आन येदरलुंड की कविताएँ ::
अनुवाद और प्रस्तुति : गार्गी मिश्र
स्वीडिश कवयित्री आन येदरलुंड की कविताओं में जीवन का सौंदर्य और उसकी विवशताएँ दोनों शामिल होती दिखती हैं : जैसे मनुष्य की दैहिक संरचना, उसके आस-पास का पर्यावरण, उसकी जमीन, भूगोल, प्रकृति, मनुष्य की तीव्रतम इच्छाएँ जिसमें प्रेम, वासना, पीड़ा, आशा, अनिच्छा, रंग और उनकी क्रियात्मक उपस्थिति, अस्वाद, परमार्थ और उसका चिंतन इत्यादि असंख्य इच्छाएँ वहाँ सम्मिलित हैं।
आन की भाषा का अपना एक मनोविज्ञान है जो कई बार व्याकरण के परे जाकर स्वयं को प्रस्तुत करता है, कविताओं में एक रहस्य है जो पाठक को उनसे बाँधता है। यूँ कहें कि इन कविताओं में एक मत्स्य का निवास है, वे कब किस दिशा में घूम जाएँगी, यह कहना मुश्किल है। वे पुष्प की बातें करते हुए, मिट्टी के बर्तनों को याद करती हैं और उन बर्तनों की स्मृति में एक प्रिया का अपने प्रेयस के प्रति मिलन के आग्रह की बात कहती हैं। इन कविताओं में भौतिक और अभौतिक संसार इस तरह से एक दूसरे से मिले-जुले हैं, जैसे मनुष्य का शरीर और उसकी आत्मा।
एक अनुवादक के रूप और उससे भी पहले एक पाठक के रूप में मैं आन की बेहद शुक्रगुज़ार हूँ कि उनकी रचनाओं के विविध संसार ने मनुष्य जाति को थोड़ा ठहरने, विस्मय से भरने, जीवन के प्रति आशान्वित होने और संवेदनाओं को उनके सूक्ष्मतम रूप में देखने की जगह दी। इन कविताओं का अनुवाद करते हुए मुझे आन की कविताओं के अग्रजा कवयित्री तेजी ग्रोवर द्वारा किए गए पूर्व अनुवाद से एक दृष्टि मिली जिसके लिए मैं उनकी भी शुक्रगुज़ार हूँ।
— गार्गी मिश्र
हम स्वर्ग में क्यूँ नहीं हैं
मैं मर रही हूँ। बाहर गहरे में। स्वयं से बाहर।
मैं कल मर रही थी और तब से जब मैंने जन्म लिया।
मैं स्वयं ही से नहीं जन्मी। मैं नष्ट हो चुकी हूँ।
मेरे पास जो कुछ भी है, मेरा शरीर उसे विलगाता है।
मैं वहाँ नहीं रह सकती।
इन नाउम्मीदी दूरियों में
इन नाउम्मीदी दूरियों में।
जो न यहाँ हो सकती हैं न वहाँ।
वे अपने अनुक्षेत्रों में झिलमिलाती हैं।
स्वयं को बाहर निकालती हुईं और फिर पूर्ण अंधकार।
यह कितना घना है।
केवल अंत के कुछ दिन ही अपनी जगहों पर लौटेंगे।
कोई जगह बदल सकता है।
लेकिन कोई ऐसा नहीं करता।
यहाँ तक कि परमाणु भी अपनी जगहें बदल सकते हैं
और सब कुछ अपने आपको।
वह जो सिर के माध्यम से ऊपर उठता है
वह जो समझता है और ऊपर उठता है। सीधे ऊपर।
अपनी सबसे महीन तहों में से एक में।
जब कायाओं का लोप हो चुका हो।
वह जो भीतर उदित होता है।
जब तुम किसी को देखते हो जो वास्तव में दे नहीं सकता।
जो विश्वास न करता हो। देता हो शवों को अन्न का उपहार।
या फिर यदि काया अपनी पूरी धज में हो।
विकृत जब वह हो चुकी हो विकृत।
स्वयं घृणा द्वारा नष्ट की जा चुकी।
तब इसमें इसका कुछ भी नहीं रहता शेष।
जो साथ रह सकता है वह आएगा।
अपने रूप में अपरिवर्तित।
जो बन जाता है सिर की आंखों के पीछे का अंतस।
शायद फिर से हमेशा के लिए।
कम है कहा जाना
कम है कहा जाना
वह ऊब जो इससे एक मात्रा में बनती है।
आँखों के हर रेशे से निकलती है।
ख़ुद को धकेलती है। विरुद्ध।
इस मंद रूप की मानिंद।
बिना अस्तित्व के छिदती हुई।
क्या कभी भी कुछ है।
आत्मा अकेली है अपने आँसुओं के साथ
आत्मा अकेली है अपने आंसुओं के साथ। आवरणों में।
गहरी आँखों पर फैली हुई। सिर्फ़ चौथाई हिस्सा देखा जा सकता है।
आठवाँ हिस्सा या उससे भी कम।
चेहरे के ढाँचे में एक झिल्ली की तरह बची हुई।
बिना अग्नि के एक आत्म-लौ।
यह जलती नहीं। यह उड़ती नहीं।
कानों में चटचटाती नहीं। उदास-सी वह सिर्फ़ ख़ुद को ऊपर उठाती है।
वह नेत्रपटल पर घाव के चिह्न-सी खुदी हुई है—पतली परत में।
यह मुश्किल से बाहर देख सकती है।
मुश्किल से ही किसी को या किसी चीज़ से दिखती है।
आकृतियों की एक पंक्ति के साथ अछूते जंगल
आकृतियों की एक पंक्ति के साथ अछूते जंगल।
गवाहों के तंबू।
वहाँ कोई स्पष्टीकरण क्यों नहीं है?
वह कभी नहीं व्यतीत होगा।
वहाँ और कुछ नहीं है।
तुम अपना शरीर नहीं छोड़ सकते।
मैं एक पत्ती को देखती हूँ और उससे अपनी आस जोड़ लेती हूँ
मैं एक पत्ती को देखती हूँ और उससे अपनी आस जोड़ लेती हूँ।
कि साल के ख़त्म हो जाने के बावजूद भी वह रहेगी।
अगर हवा काँपती होगी और कंपन रह जाएगा अलक्षित।
मैं उसे अपने ठौर से देखती हूँ।
क्या हमेशा ही से उसकी जगह नहीं रही है?
आप में समरूप।
फिर मुझे कौन-सी चीज़ बनाए रखती है। उससे
और हमेशा के लिए पीछे करना
या सिर्फ़ चारों ओर ख़ुद को घुमा देना।
जब जीवन बीत जाता है
जब जीवन बीत जाता है।
भारी बोझ से लदा हर शरीर वास्तविक शरीर से ख़ुद को अलग कर लेता है
और दूसरे के भीतर उतरता है। कोई नहीं जानता कि यह कहाँ से शुरू होता है।
शायद यह उसी सतह पर हर समय अपना पुनर्वितरण करता रहता हो—
सतहवार बिना किसी तापमान के।
अगर सतहें उपस्थित हैं तो भी संभवतः वे कुछ भी नहीं बचातीं।
उपस्थित नहीं अपने अस्तित्व में जहाँ कोई है। किसी पीड़ा को कम नहीं करती।
संवेदना का पता तक नहीं ढूँढ़ती।
क्या वह उपस्थित भी है गहराइयों में?
जैसी वे हैं? झिरझिरी-सी भी?
जैसे छायाओं में किनारे?
जिन्हें शांति की तलाश है उन्हें तीर निकाल लेने चाहिए
जिन्हें शांति की तलाश है उन्हें तीर निकाल लेने चाहिए।
एक कली का कोई अर्थ नहीं है इसमें
तो आपको शांति नहीं मिलेगी।
ऐसा है यह जीवन।
कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि आप कितना जुड़े हुए हैं इससे
या संसार से।
सूर्य में आत्म और मनुष्य में आत्म
सूर्य में आत्म और मनुष्य में आत्म।
वह सभी सतहों के बीच फैलता है।
मैं जो उनसे भरी हुई हूँ
और अपने आपसे हृदय में। जब वह अज्ञात हो।
लेकिन वह वहाँ कैसे उपस्थित हो सकता है—
बिना मेरे उसका हिस्सा हुए?
आन येदरलुंड की इन कविताओं का स्वीडिश से अँग्रेज़ी में अनुवाद मिशेल हचिसन ने किया है। अँग्रेज़ी अनुवाद में ये www.poetryinternationalweb.net पर प्रकाशित हुई हैं। गार्गी मिश्र ज्ञान और संवेदना से संपन्न हिंदी की रचनात्मक उपस्थितियों में से एक हैं। ‘सदानीरा’ के 18वें अंक में पूर्व-प्रकाशित यह प्रस्तुति विश्व कविता के अनुवाद का उनका पहला प्रयत्न है। वह बनारस में रहती हैं। उनसे gargigautam07@gmail.com पर बात की जा सकती है।