टॉमस ट्रांसट्रोमर की कविताएं ::
अनुवाद और प्रस्तुति : मोनिका कुमार
स्वीडन के कवि टॉमस ट्रांसट्रोमर ऐसे कवि हैं जिन्होंने बीसवीं शताब्दी जैसी जटिल शताब्दी में अपनी कविता में अनुष्ठानिक ऊर्जा का संवेग लिए, लेकिन गहरी और उदास आंखों से मनुष्य के एकांत की निगरानी की है.
उनकी कविताओं की संगत में फिर-फिर एकांत का धन पाया जा सकता है जिसे हम कारण-अकारण बारंबार गंवाते रहते हैं. हम चाहे शांत झील के किनारे अकेले खड़े हों या पचास सवारियों की क्षमता वाली बस में सफर कर रही अतिरिक्त बीस सवारियों में शुमार हों, बाहर से जो भी आवाजें रसीद हो रही हों, इन सभी आवाजों को समझने और उन पर न्यायसंगत प्रतिक्रिया देने के लिए हमें स्वस्थ ‘निज’ चाहिए.
विडंबनाओं के इस शीर्ष युग की एक विडंबना यह भी है कि आधुनिकता ने निज के संबोध को सुदृढ़ किया और कालांतर में निजता स्वार्थ का पर्याय बन गई और इसका अर्थ स्वार्थी और अहंकारी होने के अर्थ में विलय हो गया. ट्रांसट्रोमर की कविता निज के सम्मान की कविता है, इस कविता में निज को पोषित करने की युक्तियां व्याप्त हैं. इनकी कविताएं इस बात की उदाहरण हैं कि जब कोई एकांत को गंभीरता से जीवन में जीता है और अपने एकांतिक अनुभव दूसरों से अनुभवजनित भाषा में कहता है तो सुनने वाला सुनने की प्रक्रिया में ही समृद्ध हो जाता है क्योंकि इस सुनने में उसके अपने कई अनुभव आलोकित हो जाते हैं जिन्हें उसने खुद तवज्जो नहीं दी थी.
इन क्षणों में उसके निज का विस्तार होता है. निज का संरक्षण भी सभ्यता के सर्वांगीण विकास की कड़ी है, जिसे जमाने के शोर ने मुद्दे से ही गायब कर दिया है, क्योंकि एकांत का मतलब हॉलीडे और हॉलीडे का मतलब पैकेज हो गया है.
आखिर जून की सुबह और सितंबर की रात की तासीर जान लेना कोई खेल तो नहीं! इस तासीर को जानने के लिए इस पिआनोवादक कवि की कविता के सत्संग में जाना चाहिए. ट्रांसट्रोमर की कविता की संगत में पता चलता है कि आध्यामिकता दिनचर्या से अलग होकर आत्म को जानने की कोई अतिरिक्त चेष्टा नहीं, बल्कि अपनी व्याकुलता, कातरता, कायरता, क्षुद्रता और महानता को करुणा और निरंतर गहराती मुस्कान के साथ देखते हुए अपनी प्राथमिकताएं तय करने की सहज कला है.
ट्रांसट्रोमर के काव्य जगत के बारे में समग्रता से कहने के लिए उस वाक्य को उद्वित करना उचित होगा, जो साल 2011 में उन्हें नोबेल पुरस्कार देने के अवसर पर स्वीडिश अकादेमी ने अपने इस हमवतन की प्रशस्ति में कहा :
”प्यारे टॉमस! यह संभव नहीं कि तुम्हारी कविता पढ़ने के बाद भी कोई अपने आप को नाचीज समझे.”
आग सेंकते हुए लिखना
अभागे दिनों में
मेरे जीवन में बस तभी चमक आई
जब-जब तुम्हारे स्पर्श में स्नान किया
जैसे घटाटोप रात में
जैतून के पेड़ों के बीच
जुगनू जलते हैं बुझते हैं
जलते हैं फिर बुझते हैं
इनकी उड़ान को केवल झलकियों में ही देखा जा सकता है
अभागे दिनों में
आत्मा सिकुड़ कर बेजान बैठी रहती है
लेकिन देह सीधा तुम तक पहुंच जाती है
रात्रि के आकाश ने चीत्कार किया
हमने चोरी से ब्रह्मांड का दोहन किया
और जिंदा रहे
काले पोस्टकार्ड
एक
कैलंडर खचाखच भरा पड़ा है
भविष्य क्या है पता नहीं
केबल पर लोक-गीत गुनगुनाया जा रहा है
पर जैसे यह लोक-गीत किसी भी लोक का नहीं
शीशे जैसे शांत समुद्र पर बर्फ गिर रही है
परछाइयां बंदरगाह पर आपस में भिड़ रही हैं
दो
जीवन के बीचों-बीच ऐसा होता है कि मौत आती है
और आपका नाप लेती है
मौत की इस यात्रा को भुला दिया जाता है
और जीवन चलता रहता है
पर खामोशी में आपका सूट सिल दिया जाता है
मार्च ‘79 से
उन सब से ऊब कर
जिनके पास केवल शब्द होते हैं
केवल शब्द और कोई भाषा नहीं
मैं बर्फ से ढके द्वीप पर गया
जंगल की कोई भाषा नहीं होती
अनलिखे पन्ने सभी दिशाओं में फैले रहते हैं!
मुझे वहां बर्फ पर हिरन के खुरों के निशान दिखाई दिए
उन निशानों में भाषा थी पर शब्द नहीं थे
स्मृतियां मेरी निगरानी करती हैं
जून की एक सुबह
जब जग जाने के लिए यह समय अभी जल्दी होगा
और फिर से जाकर सोया जाए उसके लिए देरी हो चुकी है
मुझे बाहर हरियाली में चले जाना चाहिए
उस हरियाली में जो स्मृतियों से भरी पड़ी है
स्मृतियां जो अपनी आंखों से मेरा पीछा करती हैं
ये स्मृतियां दिखाई नहीं देतीं
कुशल गिरगिट की तरह
पृष्ठभूमि में पूरी तरह घुल जाती हैं
ये इतनी करीब हैं कि मैं इन्हें सांस लेते हुए सुन सकता हूं
हालांकि पंछियों का कलरव कानों को बहरा कर देने वाला है
काम के उपनगर में
काम करने के बीचों-बीच
हम जंगल की हरियाली के लिए तड़प उठते हैं
सिर्फ जंगल के बीच होने के लिए
शहर दाखिल हो तो बस इतना
कि कहीं टेलीफोन की पतली तारें ही दिखें
फुर्सत का चंद्रमा अपने वजन और आयतन से
व्यस्तताओं के ग्रह के चक्कर काटता है
ऐसा करना ही इनकी मंशा है
जब हम घर लौट रहे होते हैं
तो जमीन अपने कान छेद लेती है
भूमिगत जो भी है
वह घास की पत्तियों से हमें सुनता है
इस कामकाजी दिन में भी एक निजी सुकून है
जैसे किसी धुआंसे अंदरूनी इलाके में एक नहर बहती हो
ट्रैफिक के बीचों-बीच एक नौका प्रकट होती है
या फिर यह सफेद खानाबदोश नौका
जो किसी फैक्टरी के पीछे से निकल आती है
एक इतवार मैं धूसरित पानी के किनारे बनी
नई ईमारत के सामने से गुजरा
जिस पर अभी रंग-रोगन नहीं हुआ था
इसका काम अभी आधा ही हुआ है
लकड़ी का रंग ठीक वैसा है
जैसे स्नान कर रहे व्यक्ति की चमड़ी का होता है
कंदीलों से दूर
सितंबर की रात बिल्कुल काली है
जब आंखें अंधेरे के साथ सहज होती हैं
तो मैदान के ऊपर मद्धम रौशनी दिखाई देती है
जहां बड़े-बड़े घोंघे बाहर निकल रहे हैं
और खुमियां
खुमियां तो उतनी
जितने तारे हों गिनती में
एक मौत के बाद
एक बार एक सदमा लगा
जो अपने पीछे लंबी चमकती हुई पुच्छल छोड़ गया
यह सदमा हमें भीतर कैद कर देता है
टी.वी. पर आती फोटो को धुंधला देता है
टेलीफोन की तारों पर यह ठंडी बूंदें बन कर जम जाता है
जाड़े की धूप में
झाड़ी की ओट में जहां अभी भी कुछ पत्ते लटक रहे हैं
धीरे-धीरे यहां स्कीइंग की जा सकती है
ये पत्ते ऐसे दिखते हैं जैसे पुरानी टेलीफोन डायरेक्टरी से फाड़े हों
ठंड की वजह से जिनके नाम मिट गए हैं
अभी भी अपनी सांस को सुनना अद्भुत है
लेकिन अक्सर परछाइयां जिस्म से अधिक सच्ची लगती हैं
अपने दैत्याकार काले बख्तरबंद के सामने
समुराई खुद मामूली लगता है
नाम
गाड़ी चलाते हुए मुझे नींद आ गई और मैं सड़क के किनारे एक पेड़ के नीचे आ गया. गाड़ी की पिछली सीट पर गुच्छा-मुच्छा होकर सो गया. कितनी देर? घंटों. अंधेरा हो चुका था.
अचानक मेरी नींद खुली और मुझे पता नहीं था मैं कौन हूं. मैं होश में हूं, लेकिन उसका कोई फायदा नहीं. मैं कहां हूं? कौन हूं? मैं कोई ऐसी चीज हूं जो अभी-अभी कार की पिछली सीट पर से उठी हूं और जो घबराहट में अपने आपको ऐसे फेंक रही है जैसे बोरी में फंसी बिल्ली अपने आपको उछालती है. मैं कौन हूं?
काफी देर बाद मेरा जीवन मुझे वापिस मिला. किसी फरिश्ते की तरह मेरा नाम मुझ तक लौटा. किले की दीवारों के बाहर जोर-जोर से तुरही बज रही थी (जैसी बीथोवन की लिओनारा प्रस्तुति से पूर्व बजाई जाती है) और वह पदचाप जो उन लंबी सीढ़ियों से उतर कर मुझे फटाफट बचा लेगी. मैं लौट रहा हूं! यह मैं ही हूं!
लेकिन उस पंद्रह सेकिंड के स्मृतिलोप के नर्क के साथ लड़े युद्ध को भूल पाना असंभव है, हाईवे से कुछ ही फर्लांग दूर जहां बत्तियां-जगी गाड़ियां बगल से गुजरती हैं.
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मोनिका कुमार हिंदी की सुपरिचित कवयित्री और अनुवादक हैं. चंडीगढ़ में रहती हैं. उनसे turtle.walks@gmail.com पर बात की जा सकती है.
हम स्वयं के जितना करीब होते हैं………..उतना ही दूर के सत्य और प्रामाणिक तथ्य, अन्य के समक्ष रखने में सफल होते हैं, और विडम्बना यह की, अहंकार का स्पर्श हमें छु भी नहीं पाता…….