गद्य ::
पीयूष रंजन परमार

पीयूष रंजन परमार

प्रतीक्षा का अनुवाद कैसे करूँ

यह देर शाम की एक ख़ाली-सी सड़क है जिसके एक किनारे मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। मेरी प्रतीक्षा के सामने एक सड़क है और सड़क के उस पार एक अजनबी लड़की। ऐसा लगा जैसे वह लड़की सालों से वहीं है जैसे उसे कहीं नहीं जाना, जैसे वह किनारा उसका घर हो। उसकी आँखें सड़क के ख़ालीपन को निहारती रहतीं। हल्की-सी आहट से भी वह चिहुँक जाती और किसी अजनबी से चेहरे को देख वापस मोबाइल की स्क्रीन में धँस जाती। मैं तुम्हारा इंतज़ार करते न जाने कब उसके निहारने, चिहुँकने और खो जाने का इंतज़ार करने लगा। उसके चेहरे में तुम्हारा चेहरा, उसकी आँखों में तुम्हारी आँखें, उसके होने में तुम्हारा न होना। मुझे हम दोनों की याद आई जब हमने न जाने कितनी रातें साझेपन की गठरी में बाँध ली हैं। सामने से रह-रहकर कुछ गाड़ियाँ गुज़र जातीं। गाड़ियों के गुज़रने पर वह ख़ासा ध्यान नहीं दे रही है मानो वह यह मान बैठी है कि उससे मिलने वाला शख़्स पैदल ही चला आ रहा होगा। आशुतोष ने कहा था, ‘‘प्रेम दूरी से नहीं, देरी से डरता है।’’ एक पैदल चलने वाले शख़्स के साथ तो दूरी भी होती है और देरी भी। मुझे याद आया कि मैं भी तुम्हारे लिए पैदल ही चला था। मैं उस अजनबी प्रेमी के लिए डर गया। उस लड़की की प्रतीक्षा अब मेरी प्रतीक्षा है, क्योंकि मैं अपने बीत चुके अक्स को देखने के लिए बेचैन हो उठा हूँ।

आसमान में चाँद है। उससे गिरती चाँदनी को टेलकम पाउडर की तरह बदन पर लपेटे मजबूर से पेड़ रास्ते के किनारे खड़े हैं, जैसे रात में मंडी के बाहर खड़ी रहती हैं—सहमी-सी वेश्याएँ। पेड़ों को डर है कि कहीं ऐसा न हो कि जैसे एक विवाहित व्यक्ति अपनी अश्लील-सी भूख के लिए औरत की आत्मा छेद देता है, उसी तरह कोई हत्यारा उनकी बोटी-बोटी काट दे और प्यार को उसका गोपन देने का सामर्थ्य पेड़ों से छिन जाए। बोगेनवेलिया के फूल ग़ुलाम की तरह दीवारों से चिपके हैं। वे शहरों की दीवारों पर खुलकर मुस्कुरा भी नहीं सकते। उनकी ग़ुलामी का रंग गुलाबी है। कुकुरमुत्ते की तरह फैली इमारतें चालाक बनिये की तरह मुस्कुराती हैं और एक षड्यंत्र गहरा होता चला जाता है।

मोटरसाइकिल से आते-जाते कुछ लड़के, उस लड़की को देखते हुए जाते हैं। उनकी भूखी आँखों में एक टूटे हुए साहस का इतिहास है। लड़की उन लड़कों को उसी तरह नहीं देख रही है, जैसे हम प्रार्थना करते हुए ईश्वर को नहीं देख रहे होते हैं। कभी उसके होंठ हिलते हुए दिखाई देते हैं। शायद वह पेड़ों से बात कर रही हो या शायद हवाओं से या ख़ुद से। वह एक लड़की है। इंतज़ार में डूबी हुई लड़कियों को ख़ुद से बातें करने का वरदान मिला हुआ है।

प्रतीक्षा कितना ख़तरनाक काम है। हम उम्मीद की एक दूब लिए खड़े रहते हैं और भटकने और नाउम्मीदी का अँधेरा हमें चारों ओर से घेरे रहता है। नसों में छिपी एक सिहरन उस वक़्त अचानक आत्मा को झकझोर देती है, जब एक पल को लगता है कि वह नहीं आएगा। आप का समूचा अतीत सुन्न-सा पड़ जाता है और उसकी सांय की अनुगूँज वर्तमान की शिराओं में भी सुनाई देने लगती है।

मेरी नज़र एक बार फिर उस लड़की पर पड़ी और अचानक से मैं बेचैन हो उठा। मैंने बेचैनी से लाल हो चुके अपने चेहरे को छुआ जिसकी लालिमा से मेरी हथेली भी लाल हो गई थी। मैं डर गया था। यह एक भयानक सपने जैसा था जहाँ एक गाँव के लोग सुदूर दक्षिण चले गए और अकेलेपन से भरी जगह में मैं किसी की प्रतीक्षा करता रहा और कोई एक बार भी कहने नहीं आया कि हम वापस लौटेंगे।

अचानक तुम्हारी आवाज़ से मेरा भ्रम टूट गया। हम दोनों वहाँ से चल पड़े। वह लड़की पीछे छूट गयी। मैं अब तुम्हारी आँखों में प्रतीक्षा ढूँढ़ रहा हूँ।

हम चुप से ही चलते रहे। तुम चुप-सी मुझे देखती रहीं। कहने की सबसे सँकरी-सी जगह है, जहाँ हम दोनों पहुँच गए हैं। गली के बीचोबीच खड़े होकर हम दोनों अंतहीन छोरों को देखते हैं, उनसे आता धुंधला-सा प्रकाश हमारी आँखों की सतह को छूकर ग़ायब हो जाता है। यह मात्र देखने के भ्रम जैसा है। मैं तुम्हें देखने की अथाह कोशिश करता हूँ, लेकिन मुझे तुम दिखाई नहीं दे रहीं। मैं तुम्हें छूकर तुम्हारे होने की तस्दीक़ करता हूँ, लेकिन वहाँ भी एक अपरिचित है—जैसे तुम्हारी देह बदल गई हो। काफ़ी समय बीत चुका है और तुमने मेरा नाम भी नहीं पुकारा। क्या यह वही डर है जिसके बारे में हम बातें किया करते थे : कि एक दिन हम परिचय का व्याकरण भूल जाएँगे और हम होने में भी नहीं होंगे। मुझे उस लड़की की वापस याद आने लगी है। क्या वह आया होगा, जिसका वह इंतज़ार कर रही थी! उस किनारे पर उसने अपनी कितनी ज़िंदगी ख़र्च कर दी होगी!

तुम्हारी आँखों में मैंने देखा तब मुझे पता चला कि मैं खो गया हूँ। तुम्हारी आँखें ख़ाली हैं।

लेकिन, तुम घबराओ मत। शहर की यह श्रापित जगह हमारे हिस्से आनी ही थी। क्या यही हमारी नियति नहीं है कि जीवन का सुंदर एक साथ देखने वाले हम, जीवन का अपरिचय भी एक साथ देखें। अक्सरहाँ हम रातों में मिले, जब शहर सोने लगता है। तुम्हारे क़दमों की आहट आज भी उन सुनसान रास्तों पर गीत की तरह बजती है, जहाँ तुम्हारा इंतज़ार छूट गया है। मैं कभी दिन के उजाले में वहाँ जाता हूँ तो देखता हूँ कि वे रास्ते गुलज़ार हैं। उन पर नई कहानियाँ जन्म ले रही हैं—हरी और नीली कहानियाँ। तुम्हें नीला और हरा दोनों बहुत पसंद थे।

मुझे पता नहीं चल रहा कि मैं तुमसे बात कर रहा हूँ या उस लड़की से जिसे मैं वहाँ सड़क किनारे अकेला छोड़ आया।

मैं पागल हो रहा हूँ। तुम सुन रही हो?
‘‘मैं जा रही हूँ।’’

अजीब नहीं है कि एक कहानी मर रही है और यह शहर सो रहा है।

तस्वीर : पीयूष रंजन परमार

…और सांत्वना का एक शब्द भी नहीं

आँखों की कोर से लगभग टपकने की हद पर एक सपना जल रहा है। दीवार पर एक मनहूस-सी पेंटिंग है जो किसी दोस्त ने अच्छे दिनों में मुझे दी थी। रात के अँधेरे में वह पेंटिंग और भयानक हो जाती है, उसमें कभी एक पुलिस वाला एक जवान लड़के के सीने में ख़ंजर घोपता है, कभी एक अधेड़ औरत अपने जवान प्रेमी के होंठ काटकर हँसती है और उसके दाँत ख़ून से लाल हैं। एक बूढ़ा आदमी अपनी ही लाश को अपने कंधे पर लेकर कहीं जा रहा है। कमरे में किताबें बेतरतीब पड़ी हुई हैं। शमशेर की ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ के पन्ने हवा से हिल रहे हैं। कुछ किताबों के कवर पर चाय के दाग़ हैं। सिगरेट की एक न मिटने वाली गंध है और शराब से चादर गीली हो गई है। मानो यह एक भयानक सपना हो लेकिन…

सपनों में सपनें जला नहीं करते। आँखों के बाहर सपनों की एक भी जगह नहीं।

यह वही कहानी है जो मर रही थी और शहर सो रहा था।

एक चीख़ जो घुट कर हड्डियों में दफ़्न हो गई थी, अब टीस बनकर उठती है। सारी नसों में साँप की तरह रेंगती है और आधी रात को आत्मा का आँगन एक भयानक रुदन की आवाज़ से भर जाता है। कितनी भयावह है—रोने की यह आवाज। ऐसा लगता है कि मानो हज़ारों कुँवारी प्रेमिकाएँ एक साथ रो रही हों और सांत्वना का एक शब्द भी नहीं। प्रतीक्षा में अपना आधा जीवन काट चुकी लड़की अब असफल प्रेम में अपना आधा जीवन काट रही है। सड़क किनारे उस लड़की का इंतज़ार करता लड़का, शहर के रास्तों पर अपनी कहानियाँ लिए भटकता रहता है। उसे एक ख़रीदार की सख़्त ज़रूरत है जो उसकी कहानियों के बदले सिगरेट और शराब भर पैसे दे सके। यह शहर कितनी बड़ी त्रासदी है जहाँ शराब के लंगर नहीं चला करते, जहाँ डूब जाने के लिए शोर के अलावा कोई जगह नहीं।

मर चुकी लड़कियों को ‘भागी हुई लड़कियाँ’ याद आती हैं। शरीफ़ से लड़के अपने आवारा दोस्तों को याद करते हैं जिनकी रातें सुखद आहों से भरी होतीं और उनकी रगों में एक स्त्री के रक्त की ऊर्जा दौड़ती। लेकिन याद करने की यह अश्लील कोशिश केवल रात के अँधेरे में होती। सब अपनी प्रतीक्षाओं को अपने भीतर छुपाकर बैठे हैं जो लगातार सड़ रही हैं। अकेले में उनसे बदबू आती है और भीड़ में कहानियाँ-कविताएँ।

लेकिन अंत में सुबह होती है और सब कुछ शांत हो जाता है। एक भी आवाज नहीं… न हँसी… न रोना… न सपना… न हक़ीक़त। एक पवित्र मंत्र और एक कायर चुप्पी से सब कुछ एक प्रार्थना में बदल गया है और माँग में सिंदूर भरे एक स्त्री शरमा रही है और पुरुष उसकी गर्दन में अपने दाँत धँसा देता है।


पीयूष रंजन परमार हिंदी की अत्यंत प्रतिभाशाली नई पीढ़ी के प्रमुख सदस्य हैं। वह इन दिनों दृश्य में कम, रचना में अधिक हैं। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : शहर का टूटना चाँद के टूटने जैसा है

1 Comments

  1. वेदांत पांडे अप्रैल 20, 2022 at 6:46 अपराह्न

    “प्रतीक्षा का अनुवाद कैसे करूँ “एक बहुत संजीदा कहानी ,लेखक की भाषा आपको अंत तक पकड़ कर रखती है।और वर्णन इसके चित्रण के समान है।

    Reply

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