डायरी और तस्वीरें ::
पीयूष रंजन परमार
टूटने के टूटने की आवाज़ आती है
चुप-सी सिहरन से भरा शहर सो रहा है। अपनी गतिहीनता में गूँजता-सा। रात बरस रही है और छतें अँधेरे-से गीली हो गई हैं। एक छोटा-सा चाँद भी आसमान के एक कोने में अलगनी से टँगा पड़ा है, मानो अभी हवा का एक झोंका आएगा और वह टपक कर ज़मीन पर गिर जाएगा। चाँद ज़मीन पर गिरकर टूटता है तो चाँद के टूटने की आवाज़ नहीं आती। टूटने के टूटने की आवाज आती है।
शहर का टूटना चाँद के टूटने जैसा है।
आधी रात का आधा हिस्सा शहर की सड़कों पर घूमते हुए बीतता है। आधी रात के अँधेरे में सड़कों पर शहर के सपने भी सुनता हूँ और उसकी कराह भी। लौटने के गीत भी सुने और चले जाने का मर्सिया भी। मुझे नहीं पता कि शहर कैसे बनते हैं। मैंने किसी शहर को बनते हुए नहीं देखा। मैंने शहरों से मुहब्बत की है और उन्हें केवल खिलते हुए देखा है। जीवन की सबसे ख़ूबसूरत कहानी यह रही कि शहर के सबसे एकांत हिस्से में एक दोस्त मिल जाता है। वह मेरी आँखों में आँखें डालकर कहता है कि मैं तुम्हें जानता हूँ। मैं अपनी आत्मा निकालकर उसकी आँखों में सहेज कर रख देता हूँ। हम दोनों मिलकर एक सपना बुनते हैं। आत्मा और आँख के साझेपन का सपना। शहर देखता है… मुस्कुराता है… खिल जाता है।
एक झिलमिल… दो आँखें
प्रार्थना के लिए एकांत ढूंढ़ा गया और भूख के लिए भीड़। एक समूचा शहर गणित के सवाल को अध्यात्म की भाषा में हल करने की कोशिश कर रहा है। एक थका हुआ चेहरा पानी में डूबता और भरम की एक परत और ओढ़ लेता। एक के बाद एक न जाने कितने चेहरे डूबते गए… भरम की परत मोटी होती गई। अचानक एक भीड़ अपनी आत्मा को नदी के किनारे छोड़कर पहाड़ों की ओर चली जाती है। जीवन का संगीत पीछे छूट जाता है और पहाड़ों की गुफाओं में केवल सांय-सांय की आवाज़ है।
एक झिलमिल…दो आँखें।
रोशनी से दूर अँधेरे में एक ख़ाली प्लेट चमकती है और शहर टूटकर उस प्लेट में भर जाता है। प्लेट में पड़े हुए शहर के टुकड़े को एक लड़की अपने आँचल में बाँधकर रख लेती है। एक नदी आँखों से निकलती है और पहाड़ के अंतिम पत्थर पर जाकर सूख जाती है। एक लड़का उस अंतिम पत्थर को अपनी आत्मा की सतह पर तोड़ देता है। कहते हैं कि फ़रवरी की एक मुक़द्दस तारीख़ को उसकी आँखों में समंदर दिखाई देता है।
…अंत में वह रस्सी भी टूट जाती है जो जिस्म को रूह से जोड़ती है
कितना कुछ टूट जाता है न… टूटने की प्रक्रिया में। आसमान पर देखती नज़र, धरती पर चलते हुए क़दम, प्यार करने का साहस, बेहतर हो जाने का उत्साह और वापसी की उम्मीद। आप चिट्ठियाँ लिखना बंद कर देते हैं और धीरे-धीरे परिचित पतों से चिट्ठियाँ आना भी बंद हो जाती हैं। हवा की धार टूट जाती है। साथ ही पानी खो देता है—बहाव की अनिवार्यता। फिर वही ठहराव, वही उदासी, वही सड़ाँध। सुबह देर से आती है और शाम बहुत जल्दी। आँखों की पुतलियों में अँधेरा भर जाता है, जिसकी अनिवार्य परिणति अमावस की रात है। प्रार्थनाएँ रोती जान पड़ती हैं—ईश्वर के अभाव में। भक्ति के गीत वेदना से बिंध जाते हैं।
ट्रेन में यह मेरे मर जाने का दिन था
जब मैं घर से निकला, सब अपने घरों को लौट रहे थे। आसमान साफ़ था। थोड़े-से बादल बिखरे हुए थे, जैसे बाहर निकलते ही आदमी थोड़ा-सा बिखर जाता है। स्टेशन के पास भीड़ थी, जिसमें लौट आने वाले लोग थे और जाने वाले के मन में लौटने की आकांक्षा। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह हो सकता है कि इस भागते हुए ठहरे वक़्त में मैं क्या कर रहा था। यह जान लेना ज़रूरी है कि मैं यह नहीं लिख रहा था जो आप पढ़ रहे हैं। मेरे पास बैग था जिसमें दो किताबें और एक नोटबुक थी। उसमे एक क़लम भी होनी चाहिए थी, लेकिन शायद मैं उसे घर पर ही भूल गया था। ट्रेन में बैठा तो सहम गया। इतने सारे चेहरे और उतने सारे रंग। वैसे भी मैं बचपन से ही रंगों को पहचान पाने में कमज़ोर रहा हूँ। माँ धोबी को देने के लिए पीली साड़ी कहती, मैं उसे नारंगी दे आता। एक दिन मैंने क्लास में दोस्तों के बीच कहा कि सफ़ेद रंग अच्छा होता है, दूसरे दिन क्लास की सबसे अगली सीट पर बैठने वाली लड़की सफ़ेद रंग का सूट पहन के आई। उसने मेरी ओर देखा, लेकिन चूँकि मैं तब तक गुलज़ार साहब को नहीं जानता था, इसलिए समझ नहीं पाया कि इश्क़ का रंग सफ़ेद होता है। शाम को घर लौटते वक़्त उस लड़की की पनियल आँखें देखकर मैं समझ नहीं पाया कि उसकी इच्छा का श्राप मुझे लग जाएगा। अब मैं हमेशा सफ़ेद रंग को पहचानने में ग़लती कर देता हूँ। वह मुझे सफ़ेद छोड़कर सब कुछ नज़र आता है। इश्क़ ने भी इतने रंग धारण कर लिए थे कि मैं भयभीत हुआ और चुप हो गया। ट्रेन में यह मेरे मर जाने का दिन था। मैं इतने रंगों की ध्वनि नहीं सह सकता। वह एक दूसरे से मिलते हैं और चीख़ते हैं। यह चीख़ मुझे वैसी सुनाई देती, जैसे मस्जिद के अज़ान और मंदिर की घंटियों के एक साथ मिल जाने के बाद आती है। मैंने एक किताब निकाली और अपनी आँखें उस पर डाल दीं।
…और भोर हो जाती है
ज़िंदगी यादों की नाव पर चढ़ नदी में उतर जाती है और छप-छप की आवाज़ से रात का सन्नाटा झूम उठता है। नदी की लहर किनारों से कानाफूसी कर रही है, जिसमें सभ्यता के तमाशे का ज़िक्र भी है। मैं नदी में पाँव डालकर बैठ जाता हूँ कि चुप्पियों और तटस्थता के इस दौर में नदी मुझे पत्थर समझ कुछ तो कह दे। पर वह पहचान जाती है—मेरी चाल। नदी सदियों से कवि, भुक्खड़, गायक, मदारी, दार्शनिक और प्रेमी के शब्दजाल से छली जाती रही है। इसीलिए शायद उसने उन सबसे बात करना बंद कर दिया है, जिनमें उधार की साँस चलती है। नदी एक घाट पर खड़ी होकर दूसरे घाट की ओर देखती है और रोते हुए आगे बढ़ जाती है, जैसे विवाह के बाद दुल्हन की क्रंदन भरी गति। एक लाश नदी में डूबकर आत्महत्या कर लेती है और भोर हो जाती है, जिस वक़्त शहर को कुछ दिखाई नहीं देता।
गुलमोहर की बारिश का गीत
अँधेरे से रात भीग गई है। शहर से दूर एक गाँव सिसक कर किसी को याद कर लेता है और सभी घरों की दीवारें थोड़ी-सी नम हो जाती हैं। सड़क पर रेंगती बिन देह की परछाइयाँ पिघल कर मिट्टी में मिल जाती हैं और आसमान सफ़ेद बादलों से भर जाता है। बिन बरसात वाले बादल—ख़ूबसूरत और अप्रयोज्य। सूक्तियों से जीवन नहीं चला करता। धमनियों में दौड़ता जीवन माँगता है पनाह, बंद नरम हथेलियों में। आरोप की भाषा जीवन की भाषा नहीं। जीवन का अंकुर एक चुप से अनकहे में फूटता है। गाँव के सबसे किनारे वाले घर में रहने वाली बुढ़िया ने खो दी है एक प्रतीक्षा। एक बूढ़े आदमी ने खो दिया है बचपन का अपना एक गीत जो उसके दोस्त ने उसे सौंपा था।
कहते हैं कि पिछले बरस जब बूढ़े ने अंतिम बार अपना गीत गाया था तो गुलमोहर की बारिश हुई थी। मैं गुलमोहर की बारिश की बात करता हूँ और एक लड़की मेरी आँखों से निकलकर सफ़ेद बादलों पर दौड़ जाती है। बादलों पर क़दमों के लाल निशान हैं…
पीयूष रंजन परमार (जन्म : 1994) के काम की आभा आकृष्ट करने वाली है। यह काम उनके शब्दों और उनकी खींची तस्वीरों की शक्ल में बहुत सलीक़े से सामने आ रहा है। उन्होंने पत्रकारिता की पढ़ाई की है और इन दिनों रोज़गार के सिलसिले में मुंबई में रह रहे हैं। उनसे peeyush.sirsi@gmail.com पर बात की जा सकती है।
पढ़ते हुए ऐसा लगा जैसे मेरे शहर में भी बारिश हुई आज। कमरे का दरवाज़ा खोला तो बादल उमड़ ही रहे थे अभी। कुछ घंटों बाद बरसात हुई। बरसात का होना कुछ भी बेहद सुंदर होने जैसा इंसिडेंटल होता है। लेकिन दरवाज़े खुले रखना सजग तैयारी का हिस्सा है।
इस लड़के का लिखा बारिश की आहट का लेख नही है, बंद दरवाज़ा खोलने का आमंत्रण हैं, कि खुले में जाकर भीतर झांकने से जो तीक्ष्ण होती है, उसे ही कविता में मन की आंखे कहते है।
शुक्रिया और शुभकामनाएं..
हमारे विद्यालय के सबसे प्रखर वक्ता रहे है आप।आपकीलेखनी में गजब का प्रवाह है। मन मंत्रमुग्ध हो गया।
शुक्रिया और ढेर सारी शुभकानाएं।