गद्य ::
कृष्ण कल्पित

कृष्ण कल्पित

एक

मोहनदास अब महात्मा था

रेलगाड़ी के तीसरे-दर्जे से भारत-दर्शन के दौरान मोहनदास ने वस्त्र त्याग दिए थे.

अब मोहनदास सिर्फ लंगोटी वाला नंगा-फकीर था और मोहनदास को महात्मा पहली बार कवींद्र-रवींद्र ने कहा.

मोहनदास की हैसियत अब किसी सितारे-हिंद जैसी थी और उसे सत्याग्रह, नमक बनाने, सविनय अवज्ञा, जेल जाने के अलावा पोस्टकार्ड लिखने, यंग-इंडिया अखबार के लिए लेख-संपादकीय लिखने के साथ बकरी को चारा खिलाने, जूते गांठने जैसे अन्य काम भी करने होते थे.

राजनीति और धर्म के अलावा महात्मा को अब साहित्य-संगीत-संस्कृति के मामलों में भी हस्तक्षेप करना पड़ता था और इसी क्रम में वह बच्चन की ‘मधुशाला’, उग्र के उपन्यास ‘चॉकलेट’ वह को क्लीन-चिट दे चुके थे और निराला जैसे महारथी उन्हें ‘बापू, तुम यदि मुर्गी खाते’ जैसी कविताओं के जरिए उकसाने की असफल कोशिश कर चुके थे.

युवा सितार-वादक विलायत खान भी गांधी को अपना सितार सुनाना चाहते थे, उन्होंने पत्र लिखा तो गांधी ने उन्हें सेवाग्राम बुलाया.

विलायत खान लंबी यात्रा के बाद सेवाग्राम आश्रम पहुंचे तो देखा गांधी बकरियों को चारा खिला रहे थे, यह सुबह की बात थी थोड़ी देर के बाद गांधी आश्रम के दालान में रखे चरखे पर बैठ गए और विलायत खान से कहा– सुनाओ!

गांधी चरखा चलाने लगे. घरर घरर की ध्वनि वातावरण में गूंजने लगी.

युवा विलायत खान असमंजस में थे और सोच रहे थे कि इस महात्मा को संगीत सुनने की तमीज तक नहीं है.

फिर अनमने ढंग से सितार बजाने लगे महात्मा का चरखा भी चालू था : घरर घरर घरर घरर…

विलायत खान अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि थोड़ी देर बाद लगा जैसे महात्मा का चरखा मेरे सितार की संगत कर रहा है या मेरा सितार महात्मा के चरखे की संगत कर रहा है!

चरखा और सितार दोनों एकाकार थे और यह जुगलबंदी कोई एक घंटे तक चली. वातावरण स्तब्ध था और गांधी जी की बकरियां अपने कान हिला-हिलाकर इस जुगलबंदी का आनंद ले रही थीं.

विलायत खान आगे लिखते हैं कि सितार और चरखे की वह जुगलबंदी एक दिव्य-अनुभूति थी और ऐसा लग रहा था जैसे सितार सूत कात रहा हो और चरखे से संगीत निसृत हो रहा हो!

दो

दिल्ली में वह मावठ का दिन था

30 जनवरी 1948 को दोपहर तीन बजे के आस-पास महात्मा गांधी हरिजन-बस्ती से लौटकर जब बिड़ला-हॉउस आए, तब भी हल्की बूंदा-बांदी हो रही थी.

लंगोटी वाला नंगा फकीर थोड़ा थक गया था, इसलिए चरखा कातने बैठ गया. थोड़ी देर बाद जब संध्या-प्रार्थना का समय हुआ तो गांधी प्रार्थना-स्थल की तरफ बढ़े, कि अचानक उनके सामने हॉलीवुड सिनेमा के अभिनेता जैसा सुंदर एक युवक सामने आया जिसने पतलून और कमीज पहन रखी थी.

नाथूराम गोडसे नामक उस युवक ने गांधी को नमस्कार किया, प्रत्युत्तर में महात्मा गांधी अपने हाथ जोड़ ही रहे थे कि उस सुदर्शन युवक ने विद्युत-गति से अपनी पतलून से Bereta M 1934 semi-autometic Pistol निकाली और धांय धांय धांय…

शाम के पांच बजकर सत्रह मिनट हुए थे नंगा-फकीर अब भू-लुंठित था. हर तरफ हाहाकार कोलाहल कोहराम मच गया और हत्यारा दबोच लिया गया.

महात्मा की प्रार्थना उस दिन अधूरी रही.

आजादी के बाद मची मारकाट सांप्रदायिक दंगों और नेहरू-मंडली की हरकतों से महात्मा गांधी निराश हो चले थे.

क्या उस दिन वह ईश्वर से अपनी मृत्यु की प्रार्थना करने जा रहे थे जो प्रार्थना के पूर्व ही स्वीकार हो गई थी!

***

कृष्ण कल्पित हिंदी के समर्थ कवि हैं, उनसे krishnakalpit@gmail.com पर बात की जा सकती है. यह प्रस्तुति ‘तिरछी स्पेलिंग’ पर पूर्व-प्रकाशित है. लेखक की तस्वीर उदय शकंर के सौजन्य से.

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