‘गीतांजलि’ पर ::
शंख घोष
बांग्ला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी

Shankha Ghosh prose
शंख घोष

घन श्रावण-मेघ जैसा

अंग्रेजी ‘गीतांजलि’ की पांडुलिपि सुनकर जो लोग मुग्ध हो गए थे, उनमें से एक थे स्टॉपफोर्ड ब्रुक. वह सोच रहे थे कि कवि क्या इन कविताओं के प्रकाशन के लिए राजी होंगे. इनके प्रकाशित होने पर वैसा कोई आलोड़न कहीं पर भी नहीं उठेगा, उन्हें ऐसा भी लगा था. इनका मूल्य सिर्फ इतना होगा कि ये कविताएं ‘निभृत क्षणों की सुकुमार संगिनी’ के रूप में पाठकों के साथ रह जाएंगी, सबके सामने ऊंचे स्वर में पढ़ने लायक कविताएं शायद ये नहीं हैं.

ब्रुक जब ऐसा सोच रहे थे तो निश्चय ही कविता और उसके काम को लेकर एक भिन्न धारणा उनके मन में जाग उठी थी. उन्होंने स्वयं ही शांत और आत्मस्थ किसी कविता की कामना की थी, जिसे पढ़कर लगे मानो वह रचना किसी पाठक की प्रत्याशी नहीं है. कविता तो किसी ओट में छिपकर सुन लेने की चीज है, स्वगत-कथन मात्र : युवाकाल में रवींद्रनाथ ने एक समय मिल की इस धारणा का प्रतिवाद किया था. लेकिन प्रौढ़ता में पहुंचकर उन्हें ऐसी रचनाएं लिखनी पड़ीं कि जो किसी ओट में छिपकर सुनने के ही गीत थे, जिन्हें पढ़कर ब्रुक की तरह कोई भी सोच सकता है कि कवि क्या इन कविताओं के प्रकाशन के लिए राजी होंगे.

केवल ब्रुक ही ऐसा सोच रहे थे, अवश्य ही ऐसा नहीं है. रचनाओं के आदृत होने के बाद रवींद्रनाथ ने ही अजितकुमार चक्रवर्ती को लिखा था, ‘‘मुझे खुद कितनी बार लगा और मैंने तुम लोगों से कहा भी कि बंगला भाषा में भी ये ठीक साहित्य में गिनने लायक नहीं हैं— ये केवल मेरे मन की बातें हैं, मेरे ही प्रयोजन से लिखी गईं.’’

यह बात सुनकर हम थोड़े विह्वल हो जाते हैं, हम समझने की कोशिश करते हैं कि इसमें विरोधाभास ठीक किस जगह पर है. ‘केवल मेरे मन की बात’ होने से, अपने ही प्रयोजन के लिए लिखी होने से, तो क्या वह ‘साहित्य में गिनी जाने योग्य नहीं होती?’

1912 में लिखी इस चिट्ठी का परवर्ती अंश है, ‘‘अब ऐसा लग रहा है कि सिर्फ अपने लिए लिखना ही सबके लिए लिखना होता है— और अलंकार को यदि छोड़ दें तो मूल्य बढ़ जाता है.’’ अपने लिए लिखने पर ही वह सबके लिए लिखना होता है, तो फिर इस धारणा तक पहुंचने में रवींद्रनाथ को इतने दिन लग गए, तो फिर विचार के इस कोण से, उनकी पूर्ववर्ती — या फिर परवर्ती — रचनाओं के विषय में हम लोग क्या निर्णय लेंगे, तो फिर क्या वे सब ‘यथार्थ रूप से तमाम लोगों के लिए लिखी हुई’ नहीं थीं?

इस बात पर विचार करने जाएं तो समझ में आएगा कि क्यों एक दिन समालोचकों ने गलती से यह सोचा था कि ‘गीतांजलि’ का पर्व कवि-प्रतिभा के निर्वासन का पर्व है. यह सोचकर बहुत-से लोग व्याकुल थे कि ‘खेया’ से ‘बलाका’ के मध्यवर्ती लंबे आठ वर्षों के समयखंड में रवींद्रनाथ ने कविता से छुट्टी ले ली थी और वह नितांत ही गीतों के जगत में लौट गए थे, ‘गीतों से सहलाता फिरता हूं इस भुवन में!’

इन लोगों ने जो इस गलत व्याकुलता को महसूस किया था, वे जो इस समय को कविता से दूर हट जाना समझ रहे थे, इसका कारण निश्चय ही रवींद्रनाथ की तरह उनका भी अस्पष्ट वही संशय था, ‘ये ठीक साहित्य में गिनने लायक नहीं हैं.’ उलटे-संशय में उस दिन उन लोगों ने यह नहीं सोचा कि हो सकता है ये रचनाएं कविता का ही एक भिन्न आदर्श रच रही हों, या और ही तरह की कविताएं आकार ले रही हों, जो किसी प्रकार का आलोड़न नहीं पैदा करतीं, जो पाठकों के साथ सीधे-सीधे कोई संवाद नहीं करतीं, जो केवल ‘निभृत क्षणों की सुकुमार संगिनी’ के रूप में किसी के पास रह जाती हैं. बाहर की ओर रुख करती और भीतर की ओर रुख करती कविता इन दो भिन्न स्वादों की ही हो सकती है, ऐसा संशय न करके उस दिन उन्होंने गलती ही की थी.

अवश्य ही, इस गलती की ओर उन्हें रवींद्रनाथ ने स्वयं ही पहुंचा दिया था. ये रचनाएं उनकी कविता की धारा में गण्य नहीं हैं, ये केवल गीत हैं, इसके नाम से और इसके विवरण से इस बात को उस समय बहुत अधिक चिह्नित किया गया था. ‘’थोड़े समय के अंतराल से जो तमाम गीत बाद में रचे गए उनमें परस्पर भावों का ऐक्य होना संभव मानकर, उन सभी को इस पुस्तक में एक साथ छापा गया है’’ इस भूमिका के साथ ‘गीतांजलि’ का प्रकाशन हुआ था. पाठकों को लग ही सकता है कि ‘गीतों की बही’ या ‘गीत’ की तरह यह भी उनका और एक गीत-संकलन है, कविता के इतिहास में उड़कर आने-जैसा.

लेकिन रवींद्रनाथ के गीतों की बहुत सारी अन्य किताबों के साथ इस किताब के (या फिर, ‘गीतांजलि’, ‘गीतिमाला’, ‘गीतालि’ इस त्रयी) एक मौलिक प्रभेद पर ध्यान दिया जाना चाहिए. बहुत दिनों के संचित कुछ गीतों को लेकर किया गया यह कोई संकलन मात्र नहीं है, इसका एक समग्र निजी गढ़न है, और उस गढ़न को हम उनकी कविताओं के ही एक विशेष परीक्षण के रूप में देख सकेंगे, वही परीक्षण, कविता जहां अपने समस्त अलंकारों को त्यागकर गीत के तुल्य हो जाती है : निविड़, सरल और वेदनामय. सिर्फ गीतों के विषय में सोचते तो इतना कहने की जरूरत नहीं पड़ती, ‘मेरे ही प्रयोजन से लिखी गईं — नितांत निरलंकार’ या फिर ‘अलंकार को यदि छोड़ दें तो मूल्य बढ़ जाता है.’ आभरण के वर्जन का यह आवेग, उसकी विख्यात पहचान ‘गीतांजलि’ के पाठकमात्र को लग सकता है : ‘मेरे इस गीत ने छोड़ दिए हैं अपने सारे अलंकार.’

यहां पर, यह ‘गीत’ शब्द, ठीक प्रचलित अर्थ में हम जिसे सुर में ढले शब्दों के रूप में जानते हैं, वह नहीं है. यह ‘गीत’ यहां पर कविता का ही दूसरा नाम है, उनके शिल्प का ही दूसरा नाम. याद रखना बेहतर होगा कि यह असंलग्न पंक्ति लेकिन एक सुरविहीन रचना से ही ली गई है, ऐसी और भी अनेक रचनाएं गीतांजलि में हैं.

‘गीतांजलि’ की ठीक कितनी रचनाओं में सुर हैं— या फिर दूसरे शब्दों में कहें कि ‘गीतांजलि’ की ठीक कितनी रचनाएं ‘गीतवितान’ में शामिल किए जाने के लिए उपयुक्त हैं, इस विषय में क्या हम सब समय सतर्क रहते हैं? ‘हे मेरे चित्त’ और ‘आज वर्षा का रूप देखता हूं मानवों में’ इन दो रचनाओं को शामिल करके भी रचनाओं की संख्या मात्र 85 तक पहुँचती है, शेष 72 रचनाओं को हम अभी तक रवींद्रनाथ के सुरों के माध्यम से नहीं जान सके हैं. तो फिर क्या हम उस आधे को ही इतने दिनों तक ‘गीतांजलि’ समझते रहे?

‘गीतांजलि’ क्या ‘गीतवितान’ का एक टुकड़ा मात्र है? या कि उससे अधिक कुछ, भिन्न कुछ? ‘आकाश के तले खिल उठा उजास का शतदल’ तो कविता ही है, दिक्-दिगंत में बिखरी हुई उस शतदल की पंखुड़ियों को छोड़ दें तो ‘गीतांजलि’ का बहुत सारा मिट जाता है, इस बात को भी याद रखना हमारे लिए बेहतर होगा. और इसे याद रखें तो हम समझ पाएंगे कि इस किताब में कवि बांग्ला कविता के एक विरलतम क्षण में आ पहुंचे हैं, जहां पर सनातन गीति-साहित्य और अधुनातन काव्य-साहित्य एक बिंदु पर आ मिले हैं, जहां प्राण पाकर ऐतिह्य एक नवीन आधुनिकता में जाग उठा है. इसकी सारी रचनाओं में सुर नहीं हैं, लेकिन कोई भी रचना सुर में प्रवाहित होने योग्य है, कविता यहां पर अपनी सारी चर्बी झराकर केवल सार-सार का स्पर्श कर रही है, और इसीलिए उसे हम कविता के एक नए आदर्श में देख पाते हैं. जहां रात आकर दिन के पारावार में मिल जाती है, कवि ने बताया था कि उस मुहाने के किनारे किसी के साथ मुलाकात हुई थी. उसका शिल्प-रूप भी यहां आकर वैसे ही एक मुहाने में मिल गया है, जहां पर कविता आकर गीतों के समुद्र में मिल जाती है.

एक दिन गीत ही हमारी कविता थी. लेकिन आधुनिक युग में पहुंचकर — पिछली सदी की आधुनिकता में — गीत और कविता की दो भिन्न धाराएं बन गईं. भिन्न हो गईं, फिर भी इस सदी की आधुनिकता से पहले तक, हमारे प्रमुख कवि ही सुरों की दुनिया के लोग थे : रवींद्रनाथ, द्विजेंद्रलाल, अतुलप्रसाद, रजनीकांत या नज़रुल जैसे कवि. लेकिन नज़रुल से ही यह योग पूरी तरह छिन्न हो गया और निर्मित हुआ गीतमुक्त कविता का देश.

इस इतिहास में, रवींद्रनाथ की लेखनी से कई बार गीत और कविता दो भिन्न-भिन्न शिल्प-रूपों के हिसाब से निःसृत हुए हैं, दोनों में एक अलग-सा योग भर था. तब, कविता मानो बाहर की ओर मुंह घुमाकर बात कहने के हिसाब से थी, आवेग का निर्झर. तब स्वरों की एक आपेक्षिक उच्चता थी, सुनाने का साहस नहीं था फिर भी वह अपनी बात पाठकों को सुना पाते थे… और ठीक ऐसे समय में गीत उनके भीतर की ओर क्षरण था, मानो कोई बहता आता मंत्र. फलतः, हमें कई बार दिखाई देगा कि एक ही समय की, यहां तक कि एक ही दिन की रचनाओं में गीत और कविताओं में दो भिन्न स्वर खिल उठे हैं. कविता में वह जब कह पाते हैं ‘यह तो माला नहीं है जी, यह तो तुम्हारी तलवार है’, गीत में वह अगले ही दिन कहते हैं ‘न भी हुआ मेरा पार जाना!’ वह कविता में जब कह पाते हैं ‘बढ़ाकर अपना तूर्य रुद्र ने हमें हांक लगाई’, गीत में उसी दिन वह ‘हम’ से ‘मैं’ पर सरक आते हैं, वह मांग सकते हैं ‘अतल काले स्नेह के बीच में डूबकर मुझे स्निग्ध कर दो’ कविता में जिस दिन लिखा जा सकता हो ‘अब तो सर्वनाश करने आ ही गया जी’, जिस दिन आवाज लगाई जा सकती है ‘रक्तिम वेश में सजकर आ रे’, हम देखते हैं उसी दिन यह गीत भी संभव हो जाता है ‘इसे भिखारी सजाकर क्या मजाक किया तुमने.’ कविता में जब कहा जा रहा था ‘डर के मारे चेहरा मत ढंको’, गीत में तब यह वेदना ‘ओ महाराज, बहुत डरे-डरे / दिन के अंत में वह आया तुम्हारे आलय में.’ कविता की यह ‘सर्वनाश करने’ के साथ गीत के इस ‘महाराज’ या फिर कविता के इस ‘रुद्र’ के साथ गीत के ‘अतल काले’ की अंत में सचमुच एक अंतःसंगति निर्मित होती है, इसमें संदेह नहीं कि एक ही सत्य की ये दो अभिव्यक्तियां हैं, लेकिन फिर भी यहां हम देखते हैं कि दो के बीच किंचित एक दूरी कायम रहती है, कुछ छिन्नता, कम-अज-कम एक आपातविरोध.

‘गीतांजलि’ ऐसी रचना है जहां पर थोड़े समय के लिए यह विरोध लुप्त हो जाता है, जहां गीत और कविता दो भिन्न शिल्प-रूप नहीं रहते, जहां वे सामंजस्यमय, सुषमामय अच्छिन्न एक अवयव में बदल जाते हैं. ‘गीतांजलि’ के पहले क्षण तक कवि और गीतकार के बीच जो समांतराल तनाव था, गीत और कविता के जो दो भिन्न प्रवाह थे, बाद में भी जो फिर से भिन्न प्रवाह में चलते रहेंगे, यहां आकर वह एक बार बिला गया है, यही तो काव्य का एक बड़ा परिचय है. यहां पर व्याप्ति के मुकाबले गहनता का दबाव अधिक है, परिधि की अपेक्षा केंद्र का… और कविता जब उस केंद्र को ही छूना चाहती हो, तब वह शब्दविरल और सज्जाहीन हो आती है, तब लग सकता है कि वह साहित्य में गिनने लायक नहीं रही, तब उसका जितना भी भार रहता है, वह सिर्फ रस का भार होता है. ‘घन श्रावण-मेघ-जैसा रस के भार से नम्र नत’ उसके उसी निविड़ आयतन को देखकर रॉथेन्स्टाइन की तरह किसी को लग सकता है : ‘‘बहुत थोड़े-से लोग हैं जो तुम्हारी तरह सहज रुकना जानते हैं.’’ सिर्फ गीत नहीं, ‘गीतांजलि’ वही सहज थम जाने की क वि ता है.

सप्तलोक की नीरवता

‘महाभारत’ के 214778 पदों की तुलना में, रामायण के 48000 पदों की तुलना में, ‘गीतांजलि’ के इस थमे हुए छोटे आयतन को देखकर आंद्रे ज़ीद ने तृप्ति की सांस ली थी. इसमें उन्हें उजाले के विभिन्न स्तर दिखाई दिए थे, इसमें उन्हें शुमन या बाख़ के संगीत के तुल्य कोई ध्वनि सुनाई दी थी. केवल ज़ीद ही नहीं, जिन्हें प्रतीकवाद की जरा-सी भी छाया ने कभी छुआ था, उन सभी के लिए यह सांगीतिक वातावरण शिल्प के वलय में मोहमय था. ज़ीद ने अपने उपन्यास के नायक से एक बार कहलवाया था कि उपन्यास का भी कोई ‘विषय’ नहीं होता, उपन्यास भी समस्त घटनाओं, उत्तेजना और चरित्र के आवर्तन को हटा लेना चाहता है. यह सब तो, उन्हें चलचित्र के योग्य उपादान लगे थे. इन सबको झराते हुए जिन्होंने उपन्यास के भी एक शुद्ध रूप को ढूंढ़ने की कोशिश की थी, उन्हें तो ‘गीतांजलि’ या फिर ‘डाकघर’ मुग्ध करेंगे ही यह बात हमें समझ में आ जाती है, हम समझ जाते हैं कि क्यों वह इन रचनाओं के अनुवाद के लिए एक दिन उन्मुख होंगे.

यूरोप के प्रतीकवादी कवि रोमांटिकों के कोलाहलमय उत्थान के ढंग और उनकी आत्मविह्वलता के पार जाना चाहते थे. आत्मस्थ होकर वे मानो किसी मंदिर के एक अलौकिक पर्दे के कांप उठते — trembling of the veil — को देखना चाहते थे, जिससे गहरे यथार्थ को छुआ जा सकता हो. यवनिका कंपायमान : मलार्मे से जो शब्द-बंध येट्स की आत्मजीवनी में चला आया था (हमें याद आएगा, थोड़े भिन्न कार्य में बुद्धदेव बसु ने भी अपने उपन्यास ‘तिथिभोज’ में इसका उपयोग किया था) : उसी यवनिका के काफी पास आकर खड़ी हुई हैं ‘गीतांजलि’ की कविताएं.

यूरोप में नए कवि पुराने कवियों को खारिज करने के आयोजन में व्यस्त थे, वे लोग कविता के एक तल से भिन्न एक तल पर पहुंचने की साधना कर रहे थे. और बंगाल में हमें एक ही कवि में इन दो तलों के चिह्न मिल जाते हैं, स्वयं को ही वे अस्वीकार कर ‘चित्रा’ से ‘गीतांजलि’ की ओर आगे बढ़ आए थे, रोमांटिक विश्व से प्रतीकवादियों की दुनिया में. ‘दोलाचल’ में हालांकि वे फिर दूसरी ओर लौट जाएंगे, लेकिन थोड़े-से समय की इस ‘गीतांजलि’ में हम उनका जो रूप देख पाते हैं, उसके साथ प्रतीकवाद के भाषासाम्य का एक सहज मेल भी हमें दिखाई देता है.

परम को स्पर्श करने योग्य परम भाषा कहां है, कभी-कभी महसूस हुआ कि नीरवता ही वह भाषा है. वाक्य मानो सत्य की ओर बढ़ते जाने की एक वाणिज्यिक पद्धति मात्र है, वह मानो सिर्फ बेचने-खरीदने का बाजार भर है. तब इस बाजार से, शब्दों के इस ढेर से कवि एक ऐसे देश में हट जाना चाहते हैं, जहां भाषा में से उनके अंतर के सुर निकल आते हों.

इन बातों में मलार्मे की प्रतिध्वनि सुनाई देगी. लेकिन क्या सिर्फ मलार्मे की ही? यह क्या रवींद्रनाथ की ही बात नहीं हो सकती? वही रवींद्रनाथ, जो अपने देवता से मुखर कवि को नीरव कर देने का आह्वान कर रहे थे? तमाम बातें होने लगीं तो जिन्होंने आक्षेप किया था कि ‘फिर इन लोगों ने मेरे मन को घेर लिया है’, हम क्या उन्हीं रवींद्रनाथ को यहां नहीं देख रहे हैं, मलार्मे या प्रतीकवादी लोग शब्दों का जिस तरह से प्रयोग करना चाहते थे, जिस तरह वे शब्द के बीच स्थित नीरवता के सुर को ध्वनित करना चाहते थे, उसके साथ रवींद्रनाथ हूबहू मेल नहीं खाएंगे— लेकिन फिर भी रोमांटिक भाषा-विलास से हट आने का आवेग ‘गीतांजलि’ के कवि में कितना था, कविता में ‘नीरव’ शब्द के निरंतर आवर्तन से भी उसका एक बाहरी परिचय उभर आता है. यहां पर उनकी वीणा नीरव है, वाणी नीरव है, रवि और शशि भी नीरव हैं, रात्रि, अंधकार, आकाश, हृदय या फिर सप्तलोक, सभी केवल नीरवता से भरे हुए हैं.

आज रवींद्रनाथ की सारी कविताओं को पढ़ लेने के बाद, सभी जानते हैं कि वाणी-विरल ऐसी कविता-देह के नीरव प्रदेश में कवि को दो बार पहुंचना पड़ा था. एक बार इस ‘गीतांजलि’ के समय, और एक बार उनकी अंतिम वर्ष की रचना में, उनके अंतिम चतुष्क1रवींद्रनाथ की चार किताबों का समाहार. में. इन दो क्षणों का एक सादृश्य है, हालांकि कुछ भिन्नता भी है. ‘गीतांजलि’ के इस पर्व में वह अपनी सत्ता के भीतरी प्रवाह से स्वभावतः ही पहुंचे थे. अंतिम चतुष्क में उन्हें यह गढ़न सचेतन प्रयास करके, कलाकार के परिश्रम से ही तैयार करना पड़ा था. ‘गीतांजलि’ में बाहुल्य को कम करते जाने वाला यह रूप उन्हें अनायास ही सुर की ओर बढ़ा ले गया था, और शेष चतुष्क में उन्होंने मूर्ति की तरह अपने अभिप्रेत अवयव को तराश लिया था, छैनी और रुखानी से मानो कविता के चारों ओर की रेखाओं को स्पष्ट उभार लिया था. एक जगत सुर में प्रवाहित, और दूसरा जगत मूर्ति में कठोर. लेकिन ये दोनों जगत ही हमारे सामने एक स्वच्छता और सरलता के आदर्श प्रस्तुत कर रहे थे.

इस सरलता की क्या कोई एक वजह नहीं थी? ‘ये केवल मेरे मन की बातें हैं, मेरे ही प्रयोजन से लिखी गईं’ : कविता जब इस बोध तक आ पहुंचती है, तब उसके लिए आभरणहीनता सहज संभव है. लेकिन कवि कब सोच सकते हैं कि वे तो खुद केवल अपने मन की बात कह रहे हैं? देश के लिए प्रेम, सुख-दुःखमय विपुल मानवविश्व के घात-प्रतिघात अथवा व्यक्तिगत प्रेम की वेदना, ये तो सभी एक प्रकार से खुद की ही बात है. अपनी ही बात तो है ‘मानसी’ में या कि ‘बलाका’ अथवा ‘पत्रपुट’ में. लेकिन नहीं, यहां भी नहीं, कवि जब निगूढ़तम रूप से अपनी बात कहते हैं, तब वे सत्ता के साथ रूबरू होने की भावना लिए अपनी आत्मा के प्रश्नों तक पहुंचते हैं. तब रचनाएं बिल्कुल भीतर की ओर मुड़ जाती हैं, तब लगता है कि मानो वे ‘मेरे ही प्रयोजन से’ लिखी गई रचनाएं हैं.

50 वर्ष की उम्र में और 80 वर्ष की उम्र में, दो बार कवि विभोर होकर इस आत्मिक के केंद्र में, उसकी मीमांसा में पहुंचे थे. बाहरी अनुभवों के पुंज को पूरी तरह से ठेलकर नहीं, उसे अंतरंगता के साथ थामे हुए ही कवि तब इसके निर्यास की तलाश कर रहे थे, सत्ता-परिचय को समझ रहे थे. और इसी के आवेग से, इन दो भिन्न समयों में किंचित भिन्न पद्धति से, उनकी कविता की देह सरल, गहन और ऐक्यमयी हो गई थी— जिसे देखकर एक दिन ‘एथिनियम’ के समालोचक को लगा था कि मानो परंपरा में ये कुछेक शिशिरबिंदु हैं, जिसे देखकर पाउंड ने सोचा था कि यह सुदूर आकाश में कोई नक्षत्रमंडल है.

निभृत प्राणों के देवता

यह जो निर्यास की बात की गई, तो क्या इसी का नाम ईश्वर है? रवींद्रनाथ के भगवान?

इसे लेकर कोई आलोड़न नहीं होगा, ब्रुक की इस धारणा के बावजूद ‘गीतांजलि’ को लेकर तब विदेशी व्याकुलता के पहले अध्याय की शुरुआत हो चुकी थी. पियर्सन का जिक्र करते हुए अजितकुमार चक्रवर्ती ने रवींद्रनाथ को एक चिट्ठी लिखी थी : ‘‘जिस खाट पर बैठकर आपने गीतांजलि लिखी, उस खाट के पास हाथ जोड़कर खड़े रहे थे (पियर्सन) — आंखों से आंसू बह रहे थे.’’

यह हमारी एक प्रत्याशित छवि है, भक्त का यह निविष्ट आत्मनिवेदन. पियर्सन उस समय जिस गीत को बार-बार सुनना चाह रहे थे, वह था ‘जीवन में जितनी पूजा न हो पाई संपन्न / मुझे पता है वह भी नहीं हुई है व्यर्थ.’ शांतिनिकेतन के अनुरागियों से वह तब कह रहे थे, उस पहले क्षण में, कि उन्हें रवींद्रनाथ की कितनी जरूरत है, ‘गीतांजलि’ से उन्हें कितनी जीवनव्यापी निर्भरता प्राप्त हो गई है.

इस पाने में, संदेह नहीं कि इन लोगों ने अपने ही ईश्वर को देखा था. एन्ड्रयूज ने लिखा था : अंतरतर मंदिर में प्रभु और ईश्वर के रूबरू होने के लिए तैयार हो जाओ, जान लो कि विश्व में उनके प्रेम की धारा किस प्रकार बहती है. ‘गीतांजलि’ उनका वही मंदिर है. हमारी प्रचंड उत्क्षिप्त समकालीन पृथ्वी के लिए यह निश्चय ही एकदम विपरीत एक अध्यात्मजगत है, जैसा कि येट्स ने अपनी भूमिका में कहा था… और इसी कहने से मानो उस दिन धुन तैयार हो गई थी. ‘गीतांजलि’ की तुलना स्वरूप यूरोप में बहुत-से लोगों को मैंने उस दिन येट्स के अंदाज में टॉमस आ कैम्पिस या सेंट फ्रांसिस ऑव् आसिसी अथवा ब्लेक के प्रसंग में विचार करते देखा था. मिस्टिसिज्म के विशेषज्ञ इवलिन अंडरहिल को जलालुद्दीन रूमी की याद आई थी, सेंट जॉन ऑव् दी क्रास या फिर सेंट ऑगस्टिन के नाम याद आए थे, ‘गीतांजलि’ की कविताओं में उन्हें रहस्यवादी लोगों की परमा सिद्धि मिल गई थी.

ऐसा होना स्वाभाविक ही था. हम बहुत दिनों तक इसे उपासना के गीत ही मानते रहे, इसे उनकी ‘शांतिनिकेतन’ प्रबंधावली और ‘साधना’ वक्तृतावली के साथ मिलाकर पढ़ते रहे. जिन गीतों के तमाम पदों में प्रभु या नाथ या फिर प्राणसखा जैसे शब्द चले आते हैं, जहां पर केवल सर्वात्ममय किसी महासत्ता से मिलन की आकांक्षा है, जहां पर सनातन उच्चारण में बार-बार ये सारी प्रार्थनाएं या क्रंदन उभर आते हैं : ‘तुम्हारी ही इच्छा पूरी करो हे, सभी को मिलाकर तुम जाग रहे हो’ या फिर ‘अंतर में है जो अंतर्यामी’ जैसी अजस्र पंक्तियां— वहां पर इन गीतों को हमारे बहुत दिनों की धार्मिक-धारा के साथ जोड़ लेना असंभव नहीं, असंगत भी नहीं. हमारे देश में धर्म और कविता जहां एक स्थान पर आ मिले हैं, ‘गीतांजलि’ उस चिरागत ऐतिह्य की कविता है, एक हिसाब से यह बात सच है.

लेकिन तब एक प्रश्न उठता है, जो प्रश्न कुछ दिनों पहले अबू सईद अय्यूब ने उठाया था. अगर ऐसा ही है, यदि एक अध्यात्म धार्मिक-मंडल में ही घिरी रहेंगी ये रचनाएं, यदि रजनीकांत या अतुलप्रसाद के गीतों की तरह ही इनका आस्वादन किया जा सकता हो, तो फिर क्या आधुनिक श्रोताओं के लिए इसका कोई आह्वान रहता है, जो आधुनिक श्रोता, मान लें, धर्म या ईश्वर में विश्वास नहीं करते हैं? जिस प्रकार हमारे मन में से बहुत सारे आध्यात्मिक भक्तिगीत दूर हो जाते हैं, ‘गीतांजलि’ की रचनाएं भी क्या उसी तरह दूर नहीं चली जातीं? जो लोग धर्म के स्वाद के लिए इन गीतों को पढ़ते या सुनते हैं, उन्हें कोई समस्या नहीं है. जो लोग धर्म या ईश्वर के प्रति अनाग्रह के कारण इस किताब का प्रत्याख्यान करते हैं, उन्हें भी कोई समस्या नहीं है. लेकिन सोचना उन्हें पड़ता है, उन आधुनिकों को, जो निरीश्वरवादी हैं, लेकिन फिर भी जिन्हें ‘गीतांजलि’ आविष्ट करती है. जैसे कि अय्यूब, जैसे बुद्धदेव. या फिर जिस तरह 1913 में (15 मई) ‘दि नेशन’ पत्रिका के ‘गीतांजलि’—समालोचक, जो रॉथेन्स्टाइन के ड्राइंगरूम को पवित्र मंदिर बनाने के विरोधी थे, ‘गीतांजलि’ में वे किसी प्राचीन हिंदू रहस्यवादी को नहीं ढूंढ़ सके थे, जिन्होंने इसमें देखा था केवल एक true flower of the autumn of romance with hints of everlasting faith!

अय्यूब ने कहा था, इसके केवल वे ही गीत उन्हें छूते हैं जिनमें प्राणों की वेदना या प्रकृति की पुकार है. लेकिन सिर्फ ‘गीतांजलि’ किताब को यदि गिना जाए तो ऐसी रचनाआएं बहुत अधिक नहीं मिलेंगी. जब बादलों पर बादल जमने पर उस अंधेरे में जो प्रतीक्षा करते रहते हैं और जिनकी प्रतीक्षा की जा रही होती है, उनमें शायद मानवीय प्रणय-संबंधों की कल्पना की जा सकती है. प्रेमगीत के रूप में ही गाया जाना संभव है, ‘अब नहीं है समय छाया उतर आई धरणी पर.’ निश्चित रूप से प्रकृति का ही गीत है ‘घेरकर आकाश फिर आया आषाढ़.’ फिर भी इस प्रकार की दो-चार रचनाएं ही इस किताब की पहचान नहीं हैं. यह तो मानना ही पड़ेगा कि ‘गीतांजलि’ का भुवन प्रभुमय भुवन है, उसमें आरंभ से अंत तक ईश्वरीय-बोध बिखरा हुआ है. बुद्धदेव ने इसे ‘प्रतीक्षा का काव्य’ कहा था, किसी एक परम मिलन के लिए चिरप्रतीक्षा में इसकी सारी कविताएं बीत जाती हैं, उस परमता की प्रकृति को अस्वीकार कर ‘गीतांजलि’ को पढ़ना कठिन है.

लेकिन तो क्या इसके लिए पाठक या श्रोताओं की ओर से किसी धार्मिकता की जरूरत है? कोई भी व्यक्ति क्या अपने ही रूबरू होने पर और एक पंख की फड़फड़ाहट नहीं सुन पाता, जिसके बारे में रवींद्रनाथ ने अजितकुमार को लिखा था, ‘‘मेरे भीतर ऐसा मैं है जो मुझसे बहुत बड़ा है, मेरे भीतर उसकी समाई कैसे होगी’’, जब रवींद्रनाथ यह बात लिखते हैं, तब उस समाई न होने वाली मूरत को कोई ईश्वर का नाम दे सकता है, कोई नहीं भी दे सकता है. यही केवल सच है कि धार्मिकता के बाहर इस सत्ता का अनुभव विचारशील लोगों का अनिवार्य अनुभव है, जो उनके प्रेम या प्रकृति या फिर किसी अन्य बोध से लिपटा रहता है. यही सोचकर मंपू में बैठकर रवींद्रनाथ ने बहुत दिनों बाद मैत्रेयी देवी से कहा था, ‘‘मैं किसी देवता की सृष्टि करके प्रार्थना नहीं कर पाता, अपने काम से अपनी जो मुक्ति है उस दुर्लभ मुक्ति के लिए कोशिश करता रहता हूं. वह कोशिश रोज करनी पड़ती है, ऐसा न करने पर कलुषित हो उठता है दिन.’’
कौन है वहां?

मैं.
मैं कौन?
तुम.
और यही जागरण है — तुम और मैं.

ऑडेन ने वैलरी की रचना के इस अंश का उल्लेख किया था, और उन्होंने इसके उदाहरण से बताया था कि ईश्वर के साथ इस मैं-तुम के संबंध तक मनुष्य जा सकता है, अपने पड़ोसी के साथ भी वह जा सकता है, क्योंकि उसका खुद के साथ खुद का यह मैं और तुम का लगाव है. अपने साथ रूबरू होने का यह एक रास्ता है और इसीलिए ‘गीतांजलि’ की आत्मिकता हमें अपनी मुट्ठी में जकड़ लेती है— ईश्वर के अर्थ में नहीं, ‘मैं’ के ही अर्थ में. कई बार हम इस संबंध के केंद्र की ओर पहुंचना नहीं चाहते, हम केवल परिधि की चकाचौंध में भटकते रहते हैं, और इस वजह से — जैसा कि कीर्केगार्द ने अपनी डायरी में लिखा था — ज्यादातर लोगों का ‘मैं’ एक टूटा-फूटा ‘मैं’ होता है, ग्लानि से भरा एक ‘टुकड़ा मैं.’

प्रतिदिन छोटी-छोटी ग्लानियों में भटकता रहता हूं, क्लीव होता जाता है मन, लगता है कि मानो ‘सारे अंगों में मलिनता लगी हुई थी’, अपने ही इर्द-गिर्द भटकने की थकन से घिर जाता हूं, जब पता चलता है कि हमारी दुविधाओं के बीचोंबीच ‘सत्य मुंदा हुआ है’, तभी एक बार आत्मकेंद्र से बाहर निकलकर जगत के आनंदयज्ञ में आने की इच्छा होती है, तब हम सभी को लगता है कि ‘मेरा मैं धुल-पुंछ कर तुममें बिला जाएगा.’

वैलरी तब लिख सकते हैं ‘जागरण वही है’ और ‘गीतांजलि’ के कवि कह सकते हैं ‘मुझे तुमने यदि आज जगा दिया नाथ.’ किस ओर है यह जाग उठना? हो जाने की मुक्ति में. मनुष्य तब केवल अपनी समग्रता के अभिमुख होना चाहता है, जिस समग्रता में वह बाहरी पृथ्वी को भी चाहता है. हो उठने की यह आग एक बार जिसे छू जाती है, उसे ‘मैं’ की ओर जाना ही पड़ता है, अर्थात ‘तुम’ की ओर, या फिर ‘मै और तुम’ के मिलन-मुहूर्त की ओर. तब, एक ओर जिस तरह इस थका देने वाली आवाजाही की वेदना मुझे याद दिला देती है कि अनुभव का यह अमृत वस्तुतः एक ‘आग से भरी सुधा’ है, दूसरी ओर उसी तरह वह दिखा देता है कि किस प्रकार व्यक्तिगत विपुल शोक के आच्छादन में खड़े होकर भी कोई कह सकता है, ‘प्रेम में, प्राणों में, गीतों में, गंध में, आलोक में, पुलक में’ प्लावित हो रही है यह निखिल पृथ्वी. शमी की मृत्यु के कुछ दिनों बाद ही किसकी शक्ति से कवि लिख सके थे ‘तुम्हारा अमल अमृत झर रहा है’? वह किसी के लिए कोई धार्मिक ईश्वर नहीं भी हो सकते हैं, लेकिन वह व्यक्तिगत रूप से मानो सभी के निभृत प्राणों के कोई देवता हैं, मानो सभी का आत्मबल. प्राणों के लक्ष्य में कोई देवता नहीं, प्राण ही यहां पर देवता है, इसे याद रखना जरूरी है. उस देवता को पाने के लिए विश्वास-अविश्वास की कोई बात नहीं उठती, बात उठती है केवल अंतर्मुखी होने की, आत्मदीक्षा की, वहां पर समस्या केवल ध्यान और ध्यानहीनता की है.

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शंख घोष बांग्ला के समादृत कवि-लेखक हैं. वर्ष 2016 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं. उत्पल बैनर्जी हिंदी के सुपरिचित कवि-अनुवादक हैं. उनकी कविताओं की एक किताब ‘लोहा बहुत उदास है’ शीर्षक से प्रकाशित है. बांग्ला के कई महत्वपूर्ण रचनाकारों को बांग्ला से अनुवाद के जरिए हिंदी में लाने का श्रेय उन्हें प्राप्त है. उनसे banerjeeutpal1@gmail.com पर बात की जा सकती है. शंख घोष का यह आलेख दो खंडों (‘नि:शब्द की तर्जनी’ और ‘होने का दुःख’) में इस वर्ष राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित उनके गद्य-संग्रह से साभार है.

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