गद्य ::
आदित्य शुक्ल

Aditya Shukla hindi writer
आदित्य शुक्ल

मैं यहाँ अक्सर एक बेकरी पर अपनी पसंदीदा बिस्किट खरीदने जाया करता हूँ और ख़ुद को क्लासिक यूरोपियन उपन्यासों के उन अभागे नायक की तरह महसूस करने की फंतासी जीता हूँ, जो आर्थिक तंगी के चलते कुलीन जीवन-शैली नहीं जी सकते थे।

इस बाज़ार के प्रवेश-द्वार पर एक बड़ा-सा डिजिटल साइन बोर्ड लगा है, जिस पर लिखा है—पोस्टर मॉकअप।

उसकी, जिसकी कहानी को विस्तार में कहना व्यर्थ है, हौज़ ख़ास गाँव (?) की तंग गलियों में रहता था और उससे मैं एक दिन संयोगवश एक कैफ़े में मिल गया था, जहाँ मैं अपनी पूर्व-प्रेमिका से मिलने की संभावना लेकर पहुँचा था।

वह दोस्ताना आदमी था और उसने मुझे हौज़ ख़ास की गलियों के दर्शन कराए और वहाँ की बुर्जुआ जीवन-शैली का प्रथम परिचय दिया।

हमें ये जगहें इसलिए आकर्षित करती थीं क्योंकि ये शहर में अन्य जगहों से अलग, थोड़ी सांस्कृतिक, अँग्रेज़ी या शुद्धतम बुर्जुआजी थीं। बेशक ये जगहें थोड़ी अधिक उदार भी थीं। यहाँ हर तरह के लोग आते थे और आपस में घुलते-मिलते थे। इस गाँव की हर गली अलग-अलग तरह के प्रेम और मैत्री कथाओं से गुंजायमान थी और युवाओं के लिए स्वभावतः आकर्षण का विषय थी। इस गाँव के पग-पग पर व्यक्तिगत स्मृतियाँ हैं, जो यूँ तो व्यर्थ और लिजलिजी हैं, पर अकेलेपन या अवसाद या नॉस्टेल्जिया के दिनों में उधर बार-बार ले जाती हैं।

बाद के दिनों में उधर जाना लगभग छूट गया। पुराने दोस्त और पुरानी प्रेमिकाएँ स्मृतियों के उपन्यास में दर्ज/दफ़्न हो गए।

ट्रैफिक रिपोर्ट :

लगातार हल्की बूँदा-बाँदी से सड़कें गीली हैं। शेरशाह सूरी के मक़बरे से लेकर बीकानेर हाउस तक, बीकानेर हाउस से लेकर तीन मूर्ति मार्ग तक हर चौक पर रंग-बिरंगे फूल खिले हैं।

”आज का मौसम ड्राइव करने लायक़ है…” कोई फ़ोन पर कह रहा है।

जगह-जगह बड़े-बड़े विज्ञापन लगे हैं। जिधर मुँह उठाओ ‘प्रधानसेवक’ का थोबड़ा दिख जाता है। न्याय-मार्ग बिल्कुल ख़ाली है। कूड़े उठाने वाले वाहन अपनी दिनचर्या शुरू कर चुके हैं। कौटिल्य मार्ग पर थोड़ा ट्रैफ़िक है।

फ़ोन पर माँ के मिस्ड कॉल्स हैं।

इन सड़कों से गुज़रने की जो यादें हैं, वे चाहें तो मेरा पूरा इतिहास बयान कर दें। सड़कें चीख़-चीख़कर बोलती रहती हैं। हमारी स्मृति का पूरा मानचित्र इन सड़कों पर बिछा है। सड़कों के दोनों किनारे लगे पेड़ों के बीच ख़ाली जगह में कुछ पक्षी उड़ रहे हैं। हर दो तीन मिनट के अंतराल पर मेट्रो रेल गुज़र जाती है। संभव है कि उनमें कोई जान-पहचान का आदमी सफ़र कर रहा हो। आसमान में उतरते-चढ़ते जहाई जहाज़ हैं। बड़े और छोटे होते हवाई जहाज़ हैं। आसमान में इन जहाज़ों के रास्ते का आँखों से अनुसरण करने पर बचपन जैसा उछाह मिलता है। जहाज़ों को देखकर याद आया कि आज एक मित्र विदेश यात्रा पर निकल रहे हैं। किसी ज़माने में बड़ी यारी थी। ज़माने बदल जाते हैं और ज़िंदगी समय के थक्के की मानिंद हमारी साँसों पर लटकी रहती है।

यात्राओं के मार्फ़त तरह-तरह की स्मृतियाँ हैं। बेल्जियम एयरपोर्ट, लंदन एयरपोर्ट, मुंबई एयरपोर्ट… इन्हीं सब बुर्जुआजी विचारों में डूबते-उतराते हम हाइवे पर आ गए हैं। इस पूरे शहर को पार करना एक विशाल समुद्र को पार करने जैसा है। समुद्र जिसके किनारे पर खड़े होकर मैं अपनी असफलताओं पर एक असहज हँसी हँस रहा हूँ। इस शहर में एक नाव के आकार की बिल्डिंग है। इसमें काम करने वाले ख़ुद को बोट बिल्डिंग में काम करने वाले की तरह पेश करते होंगे। कुछ भी हो यह शहर अब एक डिस्टोपियन शहर की ही तरह है। ऊँची-ऊँची इमारतें और कृत्रिम धुंध से एक दिन मनुष्य उकता जाएगा, लेकिन तब उसके पास जाने को कोई और जगह नहीं बचेगी। इस शहर में हर जगह तुम्हारी याद है। हर जगह मुझे तुमसे जोड़ती है और यह जुड़ाव मुझे तुमसे तोड़ता है। मैं कभी किसी पंछी की तरह आसमान में ऊपर उठता हूँ, कभी नीचे उतरता हूँ। कई बार तुम स्मृतियों में मेरे हमेशा जितनी क़रीब और हमेशा जितनी दूर होती हो। लोग मुझे मेरे जैसा होने के लिए कोसते हैं। लेकिन मैं अब कुछ और होने का प्रयत्न नहीं करूँगा। नदियों को बहने दो। समुद्र में उतरने दो। स्मृतियों की सुंदरता बचाकर रखो। उसे अपने आँसुओं में जगह दो। विदा…

मैं अपने शहर के एक बहुत से छोटे से हिस्से में एक कैफ़े की खिड़की पर खड़ा हूँ। सामने बड़े से होर्डिंग पर एक विज्ञापन लगा है। एक नाव के आकार की बड़ी-सी बिल्डिंग मस्तूल का-सा आभास देती एंटीने के साथ खड़ी है, और इस हिस्से की ओर लोगों की एक अंतहीन भीड़ बढ़ी चली आ रही है। दूर से उनकी अश्रव्य आवाज़ें वातावरण को एक अजीब तरह की क्रमहीनता से भर रही हैं। इस इलाक़े में तंग गलियाँ हैं और गलियों के दोनों ओर कैफ़े, बार और बेकरी हैं। दीवारों पर ग्राफ़िटी है। सड़कों पर ख़ुद को कलाकार कहने वाले तरह-तरह के दयनीय लोग हैं। इस शहर में कलाकार होना स्वाभाविक रूप से दयनीय हो जाना है। हूँ तो वैसे मैं भी एक कलाकार ही। होर्डिंग पर लगा विज्ञापन अगर किस्लोवस्की की किसी फ़िल्म का दृश्य होता तो उसमें लाल रंग के पोस्टर पर इरीन जैकब, नीले रंग के पोस्टर पर जूलियट बिनोशे या सफ़ेद रंग के पोस्टर पर जूली डेल्पी की तस्वीर लगी होती।

एक कैफ़े के शीशे से देख रहा हूँ—शहर के भीतर का यह एक शहर। यहाँ थोड़ी-सी जगह है। कुछेक कुर्सियाँ। इक्के-दुक्के लोग। शीशे के बाहर के दृश्य में हैं स्काईस्क्रैपर पर सजी हुई रंगीन बिजलियाँ और हर ओर शीशे। शीशे इसलिए ताकि लोग उस ओर के लोगों को देख सकें और उन्हें दिख सकें। एक लड़की नारंगी कोट और काले बूट में अपने नाख़ून निरखते हुए मुस्कुरा रही है। ज़रूर उसने आज अपने नाख़ून पॉलिश किए होंगे। इस थोड़ी-सी जगह में कोई बैठा है नहीं। एक बच्ची शीशे से अलग-अलग तरह के केक को लालसा की दृष्टि से देख रही है। मैं उसे देखकर मुस्कुरा रहा हूँ और उसके साथ उसके दादा मुझे देखकर मुस्कुरा रहे हैं। आसमान इस जगह पर थोड़ा साफ़ है। कोई कह रहा है कि तुम तो यहाँ अक्सर आते रहे होगे—अपनी प्रेमिका के साथ। मैंने कहा—हाँ! कभी-कभार, वह भी सिर्फ़ बुरी स्मृतियाँ इकट्ठी करने।

अब आता हूँ तो दिखता है वह समय, जैसे फ़िल्मों के मोजैक में दिख जाते हैं—बीते हुए पल।

इस समय और किसी और समय में कभी कोई ख़ास अंतर नहीं रहा। सारे समय एक-से रहे हैं। हम बस बदले हुए दृश्यों का हिस्सा रहे हैं। हमारी नियति और हमारी भूमिकाएँ बदल गईं। मेरे सामने एक रेस्तराँ है, जिसे मैं बाहर के दृश्य में देख रहा हूँ और बाहर के रेस्तराँ में मैं बाहर के रेस्तराँ का उपसमुच्चय हूँ—उसकी जगह से ख़ुद को देखता हुआ।

एक शहर के भीतर कितने सारे शहर होते हैं। शहरों के भीतर गाँव भी होते हैं। क़स्बा भी होता है। कभी-कभी तो विदेश भी होता है। झुग्गी भी होती है। लोग साइकिल से भी चलते हैं, कार से भी, टेंपो से भी और पैदल भी। मेरा शहर, शहर है, एक छोटा शहर—क़स्बे जितना शहर होने को आतुर—गाँव जितना भदेस और सीधा। इसी शहर में एक बड़ा शहर है जिसमें ऊँची-ऊँची इमारतें हैं, चमकीले-चमकीले लोग हैं, बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ हैं… मैं अक्सर उन्हें कौतूहलवश देखता हूँ।

लोग टाइट फिटिंग के अच्छे कपड़े पहनते हैं और चलते भी हैं इतराकर, बोलते भी हैं इतराकर और देखते भी। मैं जिज्ञासा से उन्हें देखता हूँ। मैं उन जैसा नहीं होना चाहता, पर मेरे अपने लोग मुझे उन जैसा बना देना चाहते हैं। उनके शहर में दुकानें हैं, जैसे किसी साइंस फ़िक्शन फ़िल्म का सेट-अप हों… बड़े-बड़े वीडियो होर्डिंग हैं, लोग गिटार लेकर परफ़ॉर्म करते रहते हैं, भले ठीक से उन्हें बजाना न आता हो, लोग तालियाँ भी बजाते हैं, क्योंकि नियत समय पर ताली बजाने की तालीम ले बैठे हैं।

मैं सभ्यता की चमक को उत्सुकता से देखता हूँ। दीवारें मुझे आहिस्ता पुकारती हैं—हो सके तो आ जाओ। जादू का खेल-तमाशा चल रहा है। उसके पुकारने से मैं अक्सर उदास हो जाता हूँ। लोगों के चलने की गति धीमी पड़ जाती है, लोग यकायक रुक कर एक साथ गाने लग जाते हैं। फ़ोन की घंटियाँ बजती हैं और लोग हल्के नृत्य की मुद्रा बना लेते हैं। एक फटी जेब वाला बेचारा किनारे पर खड़ा रहता है और सबको विनय-दृष्टि से निहारता रहता है। कुछ लोग उसे कुछ सिक्के दे देते हैं। मैं हर कोने में टहलता हूँ। मेरे आने-जाने पर कोई रोक नहीं है। मैं कोई भी भेस बना सकता हूँ। मैंने माँ से एक जादू सीखा है। यह जादू मैं किसी को बताता नहीं, बस ज़रूरत पड़ने पर ‘छू’ कर देता हूँ और भेस बदल जाता है। मुझे यहाँ कोई नहीं पहचानता, पर मैं सबको जानने लगा हूँ। देखो वह हरे कोट वाला, वह कब क्या चाल चलेगा… मैं बता सकता हूँ। और वह पीले स्कर्ट वाली लड़की और वह हाथ में हाथ पकड़े जा रहे वृद्ध दंपत्ति और दो युवक खिलखिलाते हुए। उनकी खिलखिलाहट तो सुंदर है, पर उनके मन में कुछ अजीब-सी शरारत है। टैक्सी वाला टैक्सी मोड़ रहा है और फ़ोन पर बात कर रहा है। वह हँस रहा है। दो लोग रेलिंग पर खड़े होकर नीचे की सारी कार्यवाही देखकर आनंद ले रहे हैं। शहर में अभी एक एंबुलेंस आई है। उसकी एक आवाज़ पर पूरा शहर तो क्या पूरी सृष्टि थम जानी चाहिए। दुकान के पोस्टर हमारी प्रतीक्षा में हैं। हम सदियों से इस क़तार में हैं। यह क़तार जो ठप्प पड़ी है। इसमें अब कोई हलचल नहीं होती। मैं उदास नज़र से शहर भीतर शहर को देखता हूँ। मेरी फंतासी में अल्बेयर कामू आकर मेरे कंधे पर हाथ रखता है और मैं मुस्कुराता हूँ।

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आदित्य शुक्ल (जन्म : 27 नवंबर 1991) हिंदी कवि-अनुवादक-गद्यकार हैं। वह गुरुग्राम (हरियाणा) में रहते हैं। उनसे shuklaaditya48@gmail.com पर बात की जा सकती है। ‘सदानीरा’ पर इससे पूर्व प्रकाशित उनके काम-काज के लिए यहाँ देखें :

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