कविताएँ ::
मानव कौल
दरवाज़े
सबके सामने नंगा होने का डर इतना बड़ा है
कि मैं घर हो गया हूँ—
दो खिड़की और एक छोटे-से दरवाज़े वाला
जहाँ से मुझे भी घिसट कर निकलना पड़ता है।
किसी के आने की गुंजाइश उतनी ही है
जितनी मेरे किसी के पास जाने की।
सबके अपने-अपने घर हैं
अपने-अपने डर हैं
इसलिए अपने-अपने दरवाज़े हैं।
प्रेम
तुम तक पहुँच पाता हूँ क्या मैं
तुम्हें इतना हल्के छूने से।
तुम्हें छूते ही मुझे लगता है
हमने इतने साल बेकार ही बातों में बिता दिए।
असहाय-सी हमारी आँखें कितनी बेचारी हो जाती हैं
जब वे शब्दश: ले लेती हैं हमारे नंगे होने को।
चुप मैं… चुप तुम…
थक जाते हैं जब एक दूसरे को पढ़ कर
तब आँखें बंद कर लेते हैं।
फिर सिर्फ़ स्पर्श रह जाते हैं : व्यावहारिक
और हम एक दूसरे की प्रशंसा में लग जाते हैं।
तुम्हारा हल्के-हल्के हँसना और मुस्कुराना
मुझे मेरे स्पर्श की प्रशंसा का ‘धन्यवाद कहना’ जैसा लगता है।
फिर हम एक-एक रंग चुनते हैं
और एक दूसरे को रँगना शुरू करते हैं
बुरी तरह, पूरी तरह…
तुम कभी पूरी लाल हो चुकी होती हो
कभी मैं पूरा नीला।
इस बहुत बड़े संसार में हम एक दूसरे को इस वक़्त
‘थोड़ा ज़्यादा जानते हैं’ का सुख
कुछ लाल रंग में तुम्हारे ऊपर
और कुछ नीले रंग में मेरे ऊपर
हमेशा बना रहेगा।
रात
सभी अपने-अपने तरीक़े से रात के साथ सोते हैं
हर आदमी का रात के साथ एक संबंध होता है
अगर यह संबंध अच्छा है
तब आपको नींद आ जाती है
अगर यह संबंध ख़राब है
तब आपके जीवन के छोटे-छोटे अँधेरे
रात के अँधेरे में घुस आते हैं
और आपको सोने नहीं देते।
नींद
मैंने सुनहरा सोचा था
काला निकला।
तभी नींद का एक झोंका आया
मैंने उसे फिर सुनहरा कर दिया।
अब…
सुबह होने का भय लेकर नींद में बैठा हूँ
या तो उसे उठकर काला पाऊँ
या हमेशा के लिए उसे सुनहरा ही रहने दूँ
और कभी न उठूँ।
जूता
जूता जब काटता है
तब ज़िंदगी काटना मुश्किल हो जाता है।
जूता जब काटना बंद कर देता है
तब वक़्त काटना मुश्किल हो जाता है।
आश्चर्य
खिड़की से खड़े
पेड़ ताकते हुए
उस पेड़ को भूल जाना…।
लाल गर्दन वाली छोटी चिड़िया का उस पेड़ पर आना-बैठना-उड़ जाना…
पेड़ का उड़कर दृश्य में वापिस आ जाना है।
***
मानव कौल नाटक, सिनेमा और साहित्य के संसार से संबद्ध हैं। उनसे और परिचय के लिए इस प्रस्तुति से पूर्व ‘सदानीरा’ के 20वें अंक में प्रकाशित उनका गद्य यहाँ पढ़ें :
बहुत खूबसूरत प्रयास
Bohat bhakt khoob meine thore din phele aapka show dheka slow motion you are very realistic and sensitive person I have learn alot of you.
मानवजी, आपकी कविताओं में भूमिका के पीछेका वास्तविक संवेदन और आस्वादके पहलू उजागर होते लगते है । मुझे वे अच्छी और नायाब़ लगी ।
औसत कविताएँ हैं। स्प्रिचुअल मेटाफ़र्स से सायास लिपटी भाषा और लहज़ा किसी प्रीचर सा। विचारों में एक पोएटिक कंटीन्यूटी की अनुपस्थिति चुभती है।
मानव कौल को पढ़ना अमृतपान के समान हो जाता है
जूता सुनते ही मस्तिष्क पटल पर प्रेमचंद उभर आते हैं