एदुआर्दो गालेआनो की गद्य कविताएं ::
अनुवाद और प्रस्तुति : यादवेंद्र
लैटिन अमेरिका के विद्रोही रचनाकार-पत्रकार एदुआर्दो गालेआनो (3 सितंबर 1940 – 13 अप्रैल 2015) की कर्मभूमि भले ही उरुग्वे रही हो, लेकिन साम्राज्यवादी शोषण के विरुद्ध उनकी बुलंद आवाज पूरी दुनिया में बहुत इज्जत के साथ सुनी जाती रही है. करीब तीस किताबों में उनका साहित्य संकलित है. एदुआर्दो गालेआनो कृत ‘ओपन वेंस ऑफ लैटिन अमेरिका : फाइव सेंचुरीज ऑफ द पिलेज ऑफ ए कॉन्टिनेंट’ अमेरिका की अगुवाई में लैटिन अमेरिकी देशों के दोहन का दस्तावेजी संदर्भ-ग्रंथ माना जाता है. ‘मिरर’, ‘मेमोरी ऑफ फायर’ और ‘सॉक्कर इन सन एंड शैडो’ उनकी अन्य चर्चित किताबें हैं. रचना-कर्म के लिए उन्हें जेल जाना पड़ा, निर्वासन झेलना पड़ा और किताबों पर प्रतिबंध भी. इस सबके बावजूद उनकी प्रतिबद्धता अटूट रही. अन्याय के प्रति उनके अत्यंत मुखर स्वर को याद करते हुए यहां पेश हैं उनकी किताब ‘द बुक ऑफ इम्ब्रेसेज’ से दो गद्य कविताएं…
इंसानी बोली की शान में
एक
शुअर इंडियन—जो जिबरोज के नाम से भी जाने जाते हैं—युद्ध में परास्त करने के बाद अपने दुश्मनों का सिर कलम कर देते हैं. इतना ही नहीं वे उनके सिरों को काटकर इतना कसकर दबाते-पिचकाते हैं कि वे आसानी से उनकी हथेलियों में समा सकें. वे ऐसा करके दुश्मन योद्धाओं को दुबारा जीवित न होने देने का इंतजाम कर लेते हैं. लेकिन परास्त कर देने के बाद भी दुश्मन काबू में आ ही जाए, यह जरूरी नहीं, सो वे उनके होंठ खूब अच्छी तरह से सिल डालते हैं—वह भी ऐसे धागे से जो कभी सड़े-गले नहीं.
दो
उनके हाथ रस्सी से कसकर बंधे हुए थे, लेकिन उनकी उंगलियां अब भी थिरक रही थीं. वे इधर-उधर उड़ रही थीं और शब्दों को पकड़ रही थीं. उन कैदियों के सिर को छूती हुई छत थी, पर जब वे पीछे की ओर झुकते तो बाहर का कुछ हिस्सा थोड़ा-थोड़ा दिखाई देता. उनको आपस में बात करने की सख्त मनाही थी, लेकिन वे कहां मानने वाले थे. मौका मिलते ही वे हाथों की भाषा बोलते थे. पिनिओ उंगरफेल्ड ने मुझे उंगलियों की पूरी वर्णमाला सिखाई थी. उन्होंने भी यह भाषा जेल में सीखी थी— बगैर किसी शिक्षक के सिखाए.
‘‘हम में से बहुतों की लिखावट बेहद भद्दी और खराब होती है, जबकि कुछ लोग कैलीग्राफी में उस्ताद होते हैं.’’ उन्होंने मुझसे कहा था.
उरुग्वे की तानाशाही का फरमान था कि हर अदद इंसान अकेला दूसरों से अलग-थलग रहे, बल्कि गैर-इंसान बन कर रहे—जेल हो या बैरक, पूरे देश में आपसी बातचीत पूरी तरह गैर-कानूनी करार दे दी गई थी. कई ऐसे कैदी थे जिन्हें ताबूत के आकार की कोठरी में दसियों साल से ऐसे रखा गया था, जिससे उन्हें लोहे के फाटकों और गलियारे में ड्यूटी देते पहरेदारों की पदचाप के सिवाय कुछ भी और सुनाई न दे.
फर्नांडीज हुईदोब्रो और मॉरिसियो रोजेनकॉफ सालों लंबी कैद इसलिए निभा गए, क्योंकि वे दोनों अलग-अलग कोठरियों में रहते हुए भी आपस में बात कर लेते थे—अपनी-अपनी दीवार को थप-थपाकर. इस तरह वे अपने सपने और स्मृतियां साझा कर लेते थे, अधूरे छूट गए प्रेम-संबंधों की बातें कर लेते थे. वे खूब बातें करते और कभी-कभी बहस तक कर लेते थे. वे एक दूसरे को कई बार सीने से लगा लेते थे और दूसरे ही पल गाली-गलौज पर उतर आते थे. वे अपने विचारों, विश्वासों, खूबसूरती के बारे में धारणाओं, आशंकाओं और गलतियों का आदान-प्रदान भी करते थे. यहां तक कि वे उन बातों में भी उलझ जाते थे जिनके कोई उत्तर ढूंढ़े नहीं जा सकते थे.
जब-जब बोलने की वास्तविक तलब उठेगी—और बगैर बोले रहना संभव नहीं रह जाएगा—तब किसी इंसान को बोलने से कोई रोक नहीं पाएगा. अगर मुंह बांध दिया जाएगा तो वह हाथों की भाषा बोलेगा, या आंखों के जरिए संवाद करेगा, या दीवारों में दरारें ढूंढ़ेगा… वह किसी भी तरह बोलने का रास्ता निकाल ही लेगा.
हमारे जैसे हर अदद इंसान के पास जरूर कुछ न कुछ ऐसा होता है, जो वह दूसरे से कहना चाहता है, यह बात हमें खुश कर सकती है और हम इसका उत्सव-सा मना सकते हैं, लेकिन अगर यह बात कभी अच्छी न लगे तो हमें बोलने वाले को माफी भी देनी पड़ सकती है.
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यादवेंद्र सुपरिचित अनुवादक हैं. मुंबई में रहते हैं. उनसे yapandey@gmail.com पर बात की जा सकती है.