प्रवेश ::
रिया रागिनी — प्रत्यूष पुष्कर

जिमी औन्ग की कृति : शिअर हीरो

क्वियर—एक क्रिया की तरह

लिंगों के बीच सहनशीलता और मुखिया और दास के बीच सहनशीलता, एक ही आस्था से उत्पन्न होते हैं।

— मोनीक विटिग

क्वियर को एक क्रिया की तरह अगर हम देखते हैं तो इसका संबंध किसी विशेष लिंग को निर्दिष्ट विशिष्ट आचरण से, विश्राम से है।

क्वियर को लिंग के पहचान की राजनीति से जोड़ना एक प्राय: की जाने वाली भूल है, जबकि लैंगिक निर्णायकता और परिभाषाओं की पुरानी परतों पर टिकी नई संरचनाओं के बीच क्वियर-विमर्श धीरे-धीरे वैकल्पिक परतें ढूँढ़ रहा है। इस यात्रा के दौरान लगातार लिंग के मनगढ़ंत नियामकों और नवाचार पर लगे निषेधों के रोज़ नए दस्तावेज़ जुड़ रहे हैं और अब क्वियर का सहज अर्थ लिंग से जुड़ी वैकल्पिक निर्णय की स्वतंत्रता के प्रवहमान् स्पेस से लिया जाता है, जिसका संदर्भ केवल व्यक्तिगत है।

यौनिकता—‘आप क्या करते हैं’ से संबद्ध है, ‘आप कौन हैं’ से नहीं

क्वियर के आगमन का नेपथ्य अपकारों, आक्षेपों और गालियों में है, और इसका शाब्दिक अनुवाद ‘विचित्र’ समलैंगिक, उभयलैंगिक हिजड़ा, क्रॉसड्रेसर सहित उन सभी पहचानों का संबोधन हैं जो समाज के लैंगिक पूर्वाग्रह से इतर हैं। रोचक यह है कि सभी विषमलैंगिक-पितृसत्तात्मक समाज की मूल विचारधाराओं के समानांतर क्वियर विचारधारा हमेशा से चली आ रही है, और इसके बहिष्कार के टूल्स एक सार्वभौम पुनरावृत्ति में हैं : एक जैसा एलियनेशन और सेक्सुअल घृणा।

रूथ वनिता बताती हैं कि शब्द ‘पुरुष’ और ‘स्त्री’ दुनिया के लगभग सभी भाषाओं में अनूदित किए जा सकते हैं, और जिन्होंने भी इन दोनों वर्गीकरण से अपनी सहमति नहीं जताई, भाषाओं ने उनके संबोधन गौण कर दिए।

क्वियर होने के साथ आज भी सबसे पहली समस्या भाषा की अपर्याप्तता ही है।

भाषा की इस अकर्मण्यता से भी क्वियर अपरिचित लगता है कि भाव हैं, नवाचार है; लेकिन उनका शब्द-संयोजन नहीं है।

लैंगिक बर्तावों का (अभित्रस्त) संकलित नामकरण भाषा का आलस है जिससे भाषागत एक ‘अनभिज्ञ’ नॉर्मल की उत्पत्ति होती है।

मानवशास्त्री गेल एस. रुबेन बताते हैं कि जैसे-जैसे ‘नॉर्मल’ का वर्गीकरण किया जाता है, उसी से फिर उसके विचलन की भी उत्पत्ति होती है, और यह घटना ज़्यादातर धर्म-शास्त्रों की विचारधारा के बारे में साधारण और सुलभप्राप्य है, चाहे वे वैदिक, बुद्धिस्ट, जैन, ईसाई या इस्लामिक ही क्यों न हों… हालाँकि इस विचलन और एक क्वियर जीवन के लिए उपर्युक्त सभी में जो विधान हैं, वे किसी न किसी रूप में दंडात्मक होते चले गए हैं।

हम एक ऐसे समाज का हिस्सा हैं जो इतिहास के ज़्यादातर चरणों में ‘कृत्रिम फ़ौज नैतिकता’ से पोषित हुए हैं, और प्रश्न उठाने या जिरह करने पर उसी इतिहास में दंडित भी हुए हैं, और ऐसे में जब यह प्रश्न हमारी साझा सामूहिक गोपनीयता; हमारी यौनिकता के बारे में हो तो दंड नियमित ही रहे हैं। इसीलिए लैंगिक पूर्वाग्रहों की विचारशून्यता पर अब हममें से ज़्यादातर सोचते भी नहीं हैं। क्वियर—लैंगिक पूर्वाग्रह से मुक्त हमारा सोचना है।

आज सभी जगह क्वियर ख़ुद को एक टेक्नो-पूँजीवादी-फ़ार्मा शासन के विरोध में भी एक-सा ही देख रहा है, जेंडर-नॉर्म्स/लैंगिक-निष्क्रियता को तोड़ रहा है, और प्रजनन से इतर सेक्स के लिए संवाद कर रहा है।

***

क्वियर आचरण के कोई तय मानक या आधार नहीं हैं, और यह इस बात की पुष्टि भी करता है कि ‘नॉर्मल’ और ‘विचलन’ में सेक्सुअल बर्ताव का यह सारा वर्गीकरण केवल मनगढ़ंत, सांकेतिक मात्र है जो एक पॉपुलर सामाजिक अर्थ मात्र ढूँढ़ पाता है (या नहीं भी)।

जूडिथ बटलर की आँखों से देखने पर, समाज का वह नक़लचीपना; नक़ल की नक़ल की नक़ल, एक विशाल भ्रम।

संभावनाओं का एक खुला स्वतंत्र, अवकाश, अतिव्यापन, विभिन्नताऍ और अनुनाद, त्रुटियाँ और अर्थ का आधिक्य जब किसी के सेक्सुअलिटी और जेंडर के घटक तत्त्वों का निर्माण किसी एकाश्म या अखंडता के द्योतक मात्र नहीं होते—क्वियर का एक संबोधन हो सकता है।

— ईव कोसोफ्स्की सेजविक

क्वियर के भारतीय संदर्भ के बारे में बात करते हुए हम उपनिवेशवाद और तलछट दास मानसिकता के बारे में नहीं भूल सकते, बिना औपनिवेशिक सत्ता के दंडात्मक स्वामित्व के भारतीय क्वियर इतिहास को देखना या उसकी कल्पना करना मुश्किल है। यह प्रचलित है कि भारतीय उपमहादेश में लैंगिक फ्लूइडिटी, रोल प्ले और सेक्स-चेंज जैसी संकल्पनाएँ एक लंबे समय से लोक-जीवन का अटूट हिस्सा रही हैं।

उदाहरण के लिए बंगाली साहित्य में ‘कृत्तिवास रामायण’, भागीरथ के जन्म का श्रेय दो रानियों चंद्रा और माला के मिलन को देता है, जिसे बाद में शंकर की दैवीय शास्ति प्राप्त होती है। भागवत पुराण में विष्णु मोहिनी का रूप धरते है, और शिव उनसे आकर्षित होते हैं और फिर उनके प्रेमालाप से अयप्पा का जन्म होता है। दो पुरुषों के मिलन से जन्मे अयप्पा को सामाजिक स्वीकृति भी मिलती है। अद्वैत हिंदू दर्शन में ब्रह्मांड को स्त्रीत्व और पौरुष दोनों से परे बताया गया है, क्योंकि यह सब एक दैवीय घेरे में हैं इसीलिए ज़्यादातर निर्विवादित है। वैदिक पौराणिक भारतीय साहित्य में दर्शन तीसरे लिंग या प्रकृति के बारे में बात करता है। इस वर्गीकरण में पुरुष और स्त्री दोनों के गुण लिए कई तरह की पहचानें सम्मिलित होते है जैसे स्रैण पुरुष, मर्दाना स्त्री, हिजड़ा, ट्रांस-सेक्सुअल, एंड्रोजेनस आदि।

लेकिन इन पहचानों से आचरण एक ‘अ-पुरुष’ जैसा अवनत प्रतीत होता है। हालाँकि पौराणिक परंपराओं में लिंग या जेंडर की एक वस्त्र या आवरण के रूप में भी व्याख्या की गई है, जिसका मृत्यु के साथ त्याग निश्चित है।

कौटिल्य का अर्थशास्त्र अपने समय में न्याय-पालिका का सेक्सुअल मामलों में हस्तक्षेप निर्देशित करते हुए विषमलैंगिक यौन-संबंधों को वैध और इससे किसी भी तरह के विचलन को दंडनीय और यहाँ तक की मृत्यु-दंडनीय प्रस्तावित करता है। ठीक ऐसे ही ‘मनुस्मृति’ में दो स्त्रियों के बीच के प्रेमालाप को दो पुरुषों के प्रेमालाप से अधिक दंडनीय माना गया है।

जैन तत्त्वार्थसूत्र में नपुंसक लिंग को बाय-सेक्सुअल या इंटरसेक्सुअल रूप में देखा जाता है, जिनकी सेक्सुअल इच्छाएँ पुरुष और स्त्री दोनों के प्रति होती हैं। सूत्र यह भी कहता है कि सेक्सुअल फ़ीलिंग देह से हमेशा संबद्ध नहीं हो सकती है।

प्रारंभिक जातक कथाओं में एक विषम-लैंगिक-उचित जीवन के त्याग, और समलिंगी प्रेम या घनिष्ठ मित्रता की मदद से जीवनार्थ ढूँढ़ने की बात कही गई है, हालाँकि बाद के बौद्ध मठों के नियमों में जेंडर के द्विचर चुनाव की पुष्टि करना अंगीकरण हेतु अनिवार्य समझा गया, और तृतीय लिंग को धम्म के योग्य भी नहीं।

सूफ़ीवाद में समलैंगिक प्रेम की इच्छा रखने वाले पुरुष प्रत्यक्ष हुए, और उनका व्यवहार किसी नकारात्मक रूप में नहीं दिखाया गया, और वे ‘ज़नाने’ कई भारतीय पाठ में औरतों के पारस्परिक सहकार और आलाप की जगहों के रूप में जानी जाने लगे। सूफ़ी; डिवाइन के साथ एक रत्यात्मक रिश्ते की पैरवी करते, विषमलैंगिक विवाह, घर-बार के रोल को नकारते हुए प्रतीत हुए।

सूफ़ीवाद ने अपने समय के समशृंगारिक-आध्यात्मिक माहौल को अभिव्यक्ति दी। समाज के इस नए स्तंभ के आस-पास हाशिए पर के सजातीय और धार्मिक अल्पसंख्यकों, सेक्सुअलिटी और जेंडर के नियामकों से इतर लोगों, औरतों के लिए भी एक जगह बनी…

— अल्टरनेटिव सेक्सुअलिटीज़ इन इंडिया

ग़ज़ल विधा के भीतर ही, कई पुरुष शाइरों का अपने से युवा शाइरों के प्रति आकर्षण के बारे में लगभग स्पष्टत: ही लिखना, मीर, गोरखपुरी की ग़ज़लों का समशृंगार, और ब्रिटिश राज के भीतर अश्लील माने जाने वाली ‘रेख़्ती’ जिसमंे पुरुषों ने अपने लैंगिक किरदार बदल लिए और औरतों दिनचर्या और सेक्सुअलिटी के बारे में लिखने की कोशिश की—जैसे उदहारण भी क्वियर हस्तक्षेप माने गए हैं।

***

ब्रिटिश उपनिवेशवाद के आगमन के साथ, ब्रिटिश राज ने भारतीय देह को भय और मूलनिवासी के प्रति ‘व्हाइट/गोरे’ इतरत्व से देखा, और यहीं से उनकी सेक्सुअल हस्तक्षेप की नीतियाँ एक व्यापक विस्तार ढूँढ़ने लग गईं। फर्टिलिटी का दंभ, और परिवार के वे सँकरे ढाँचे जिनमें कोई भी लैंगिक विचलन संभव नहीं था, उनके द्वारा आयातित आवश्यक सांस्कृतिक प्रतीक साबित हुए और ब्रिटिश राज के आने से वैवाहिक स्वीकृति को एक आजीवन सेक्सुअल इंटरकोर्स की स्वीकृति मान लेने की मानसिकता भी प्रबल होती गई।

ब्रिटिश राज के आगमन के साथ ही देश ने पहली बार ऐसे आदेश देखे कि जिनमें हिजड़ों के द्वारा किसी भी तरह के कलात्मक या धार्मिक प्रदर्शन पर रोक लगा दी गई, और पुरुषों द्वारा स्त्रियों के कपड़े पहनकर नृत्य करना आदि (जो भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा था) का भी आपराधिक चरित्र-चित्रण शुरू हुआ। हिजड़ा समुदायों से बच्चे छीन लिए गए। सोडोमी को पहली बार कैथोलिक विचारधारा के अधीन होकर ‘अप्राकृतिक’ क़रार दिया गया।

अगस्त 1852 के प्रसिद्ध भूरा नाम के हिजड़ा पुरुष के क़त्ल के मुक़दमे के दौरान ब्रिटिश राज ने एकमत से यह कहा कि हिजड़े शासन करने योग्य नहीं हैं; वे रोग, छूत और संदूषण के प्रचारक हैं, और जनता और उपनिवेशवाद की राजनैतिक इकाइयों की नैतिकता के लिए ख़तरा भी हैं। 1861 आते-आते ब्रिटिश ने यहाँ अपने पीनल कोड की धारा 377 लगानी शुरू कर दी, जिससे मुक्त होते-होते हमारे देश को 150 से ज़्यादा साल लगे और 2018 में इसे वैधानिक रूप से निरस्त किया जा सका।

***

जूडिथ बटलर (1990 में) पहली जेंडर थ्योरिस्ट या विचारक हैं जो ‘जेंडर या लिंग की नाटकीयता’ की प्रस्तावना के माध्यम से जेंडर या लिंग को एक नई पहचान और समझ की तरफ़ अग्रसारित करती हैं। उनका कहना है कि जेंडर, सेक्स और सेक्सुअलिटी के बीच के मनगढ़ंत संबंध केवल एक सांस्कृतिक और सामाजिक संरचना मात्र हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी नाटकीय पुनरावृत्तियों से संपन्न होते रहते हैं और सभी लैंगिक अस्मिताएँ नाटकीय उपलब्धियाँ हैं, जो समाज की स्वीकृतियों और प्रतिबंधों से मजबूर हैं।

यही वजह है कि क्वियर-थ्योरी का कोई एकीकृत प्रारूप नहीं हो सकता, इसका सार ही इसके दर्शन के प्रवहमान् होने में है। अगर क्वियर निर्देशात्मक, संरचनात्मक और परिभाषित होता जाता है तो क्वियर होने से भी समझौते करता प्रतीत होता है।

लौरेन बरलेंट और माइकल वार्नर कहते हैं कि वह सब जो क्वियर-थ्योरी कहा जा सकता है, मूलत: प्रत्याशित ही है—संसार को एक अस्तित्व में लाने के लिए प्रयासरत—इसे किसी भी संक्षेप रूप में बताने का प्रयत्न हिंसात्मक रूप से पक्षपाती हो सकता है। कुछ ऐसा ही अनामरी जगोस कहती हैं, “मोटे तौर पर कहा जाए तो क्वियर उन सभी हाव-भावों या विश्लेषणात्मक मॉडलों का वर्णन करता है; जो क्रोमोजोम उत्पन्न सेक्स, लिंग या सेक्सुअल इच्छाओं के उन कथित स्थिर-भाव की असंबद्धताओं को नाटकीय बना देते हैं जो विषम-लैंगिकता को अपना आदि-आरंभ बताने का दावा करते हैं। क्वियर का ध्यान सेक्स, जेंडर, और इच्छाओं के बेमेलपन पर है।”


यह प्रवेश/भूमिका ‘सदानीरा’ के क्वियर अंक के लिए इस अंक के संपादकों रिया रागिनी और प्रत्यूष पुष्कर के द्वारा संभव हुई है। इन दोनों से परिचय के लिए यहाँ देखें : कला, अध्यात्म और दर्शन

प्रतिक्रिया दें

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *