कवितावार में धूमिल की कविता ::
सापेक्ष्य-संवेदन
बम फटने का
दुःख तो होता है पर
उतना ज्यादा नहीं,
चाय के ठंडे होने दुःख जितना.
कहीं देखकर बलात्कार की कोई घटना
उतनी देर तड़पती रहती नहीं धमनियां
जितनी उस क्षण—
जब दो परिचित-सी आकृतियां
नीची आंखें किए, परस्पर
बिना कहे कुछ
पास-पास से गुजर गई हों.
दुःख होता है अगर किसी की
मिली नौकरी छूट गई हो
लेकिन उतना नहीं
कि जितना—
बार-बार सुनने पर भी फटकार
आदमी, लौट काम पर
फिर आया हो—
कॉलर फटी कमीज पहनकर
वह दुःख सभी सहनकर
लेते हैं जो अर्थी के उठने पर
उग आता है,
लेकिन यह असह्य संवेदन
मन को तोड़-तोड़ जाता है—
यात्राओं की अंतिम गाड़ी
एक छोर पर रुकी हुई हो
पंगुल बच्चों की कतार जब
सड़क पार करने की आतुर मुद्राओं में
बैसाखी पर झुकी हुई हो.
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धूमिल (9 नवंबर 1936 – 10 फरवरी 1975) हिंदी की आधुनिक कविता के सर्वश्रेष्ठ नामों में से एक हैं. यहां प्रस्तुत उनकी कविता उनके मरणोपरांत प्रकाशित और साहित्य अकादेमी से सम्मानित कविता-संग्रह ‘कल सुनना मुझे’ से ली गई है.