कवितावार में अल्लामा इक़बाल की कविता ::
भावानुवाद : शमशेर बहादुर सिंह

अल्लामा इक़बाल

शमा-ओ-शाइर

आश्ना अपनी हक़ीक़त से हो ए दहकाँ ! ज़रा—
दाना तू, खेती भी तू, बाराँ भी तू, हासिल भी तू !

रे गँवार : अपने अस्तित्व से अभिज्ञ हो; देख कि बीज, खेती, वर्षा और खेत की पैदावार—तू ही सब कुछ है!

आह ! किसकी जुस्तजू आवारा रखती है तुझे ?—
राह तू, रहरौ भी तू, रहबर भी तू, मंज़िल भी तू !

तू किसकी खोज में भटक रहा है? अरे, पथ और पथिक, पथ-प्रदर्शक और लक्षित स्थान, सब कुछ तू ही तो है!

काँपता है दिल तेरा अंदेश-ए-तूफ़ाँ से क्या !
ना-ख़ुदा तू, बह्र तू, कश्ती भी तू, साहिल भी तू !

तूफ़ान का डर क्या जब कि तू ही नाविक और तू ही सागर और तू ही उस पार का तट है?

देख आ कर कूच-ए-चाक-ए-गरेबाँ में कभी !
क़ैस तू, लैला भी तू, सहरा भी तू, महमिल भी तू !

ओ विक्षिप्त, तेरी धज्जियों के चीर-चीर में जो गलियाँ-सी बन गई हैं, उनमें घूम-घूमकर देख कि तू ही मजनू, तू ही लैला, तू ही बन1वन, जंगल। और बयाबान और तू ही वह पर्दा है जिसमें लैला छिपी हुई है!

वाय नादानी ! के तू मुहताज-ए-साक़ी हो गया ;
मै भी तू, मीना भी तू, साक़ी भी तू, महफ़िल भी तू !

कितना अज्ञान कि तू स्वयं साक़ी2शराब पिलाने वाला व्यक्ति/प्रेमिका। का मुहताज3अभाव वाला, ज़रूरतमंद, इच्छा रखने वाला, दूसरों पर आश्रित। हो गया जब कि मधु, मधु-पात्र, साक़ी और महफ़िल सब तेरे ही अंदर हैं?

शोला बन कर फूँक दे ख़ाशाक़-ए-ग़ैर अल्लाह को !
ख़ौफ़-ए-बातिल क्या के है ग़ारतगर-ए-बातिल भी तू !

अनीश्वरता के तृण को आग की लपट बनकर फूँक दे! क्या भय असत्य का? आख़िर असत्य और मिथ्या को नाश करने वाला भी तू ही है।

***

अल्लामा इक़बाल (9 नवंबर 1877–21 अप्रैल 1938) उर्दू के महान शाइरों में से एक हैं। वह पाकिस्तान के राष्ट्र-कवि हैं और उनके कई तराने कहीं न कहीं रोज़ गाए जा रहे होते हैं। शमशेर बहादुर सिंह (13 जनवरी 1911–12 मई 1993) हिंदी के महान कवियों में से एक हैं। यहाँ प्रस्तुत कविता उनकी गद्य-कृति ‘दोआब’ में संकलित एक लंबे लेख ‘इक़बाल की कविता’ से ली गई है। वहाँ इस कविता की आख़िरी दो पंक्तियाँ नहीं हैं, वे ये हैं :

बे-ख़बर ! तू जौहर-ए-आईना-ए-अय्याम4दिन के आईने में दिखने वाली सबसे ख़ास बात। है, 
तू ज़माने में ख़ुदा का आख़िरी पैग़ाम5संदेश, समाचार। है !

 

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