चाबुक ::
प्रचण्ड प्रवीर
कल की बात है। जैसे ही मैंने नई दिल्ली मंडी हाउस के उस विशाल भवन की तीसरी मंज़िल पर क़दम रखा, मेरी नज़र कनिका और विनीता पर पड़ी। विनीता जी ने जब मुझे देखा, उन्हें मेरा नाम याद करने में थोड़ी मशक़्क़त करनी पड़ी।
“हर बार तुम्हारा हुलिया बदला रहता है। हम सब तुम्हें जानते हैं, पर नाम भूल जाते हैं।’’ कुछ शर्मिंदगी से उन्होंने कहा। इस पर मैंने उन्हें यह बात दिलाई कि आकर्षक स्त्रियों की स्मृति में अगर रूप भी रह जाए, तो वह भी एक उपलब्धि होती है।
इस बदलते समय में प्रकाशन के नए संदर्भों पर विचार करने के लिए एक गोष्ठी आयोजित की गई थी। मैंने सोचा था कि अगर कुछ लोग मुझे सुनेंगे तो मेरा भी कर्त्तव्य है कि मैं भी कुछ लोगों को सुनूँ। इसलिए पूरे दिन की छुट्टी ले, समय से पहुँच, ऑडिटोरियम में बैठकर मैं पहले सत्र की शुरुआत के लिए एक ‘प्रसिद्ध कवि, लेखक, अदाकार और प्रेरक वक्ता’ की प्रतीक्षा कर रहा था—आधे घंटे से। तभी मेरी नज़र श्रोता-दीर्घा में विराजे एक मुख्यधारा के कवि पर जा पड़ी। बीकानेरी जी महत्वपूर्ण, उल्लेखनीय, पुरस्कृत कवि, आयोजक, प्रवक्ता आदि हैं। वह आज-कल प्रकाशन के बदले प्रारूपों के व्यवसाय में अपना योगदान दे रहे हैं। मैंने आश्चर्य से उनसे पूछा कि अब वह कविता में सक्रिय क्यों नहीं हैं? बीकानेरी जी ने कहा, “समय के साथ कुछ चीज़ें छोड़कर हम आगे बढ़ जाते हैं। एक दिन मुझे लगा कि साहित्य बहुत हो गया और मैं आगे बढ़ गया।’’
‘प्रसिद्ध कवि, लेखक, अदाकार और प्रेरक वक्ता’ हमारे बीच आकर कुछ बोलना शुरू कर चुके थे, “मैं आप लोगों को अपनी बेटी की बात बताता हूँ। हमारे घर में इतनी किताबें पड़ी हैं, पर वह कुछ नहीं पढ़ती। एक दिन मैंने देखा कि वह अपने कमरे में अँग्रेज़ी में ‘कृष्णा’ के ऊपर लिखी किताब पढ़ रही थी। मेरे पूछने पर बेटी ने बताया, ‘इट इज़ इंटरेस्टिंग।’ देखिए यह हिंदी वाला भी कोई कर सकता था। पर कौन कर रहा है? अँग्रेज़ी वाला! इसका कारण क्या है? कारण यह है कि साठ लाख बार पढ़े जाने वाले कवि को हिंदी के कुछ लोग कवि मानने को तैयार नहीं हैं! आठ-दस बार पढ़े जाने वाले को प्रमुख कवि कहा जा रहा है। मैं प्रकाशकों से निवेदन करता हूँ कि वह किताबों को छापने का निर्णय करने वाले संपादक मंडल को अपनी संस्था से बरख़ास्त कर दें। समय आ गया है कि आप लोग किताबों के प्रबंधक बन जाइए। जनता को तय करने दीजिए कि वह क्या पढ़ेगी और क्या नहीं। मैं बताता हूँ—हिंदी की समस्या। आप हिंदी में अन्य भाषाओं का अनुवाद नहीं पढ़ते। आप तमिल, तेलुगु, मलयालम की कविताएँ नहीं पढ़ते…’’
बीकानेरी जी ने मुझसे कहा, “कैसा लग रहा है सुबह-सुबह कवि जी को सुनते हुए।’’ जब मैंने कुछ नहीं कहा, तब उन्होंने याद दिलाया, “अनुवाद की हिंदी में बहुत-सी पत्रिकाएँ हैं। साहित्य अकादेमी हर साल इतनी भाषाओं का अनुवाद छापती है।’’ मैंने बीकानेरी जी को याद दिलाया कि अब उन्हें कोई नहीं सुनता। सिर खुजाते हुए बीकानेरी जी झोले में से अपना लैपटॉप निकालकर कुछ काम करने लगे।
अगला सेशन प्रकाशकों का था। ‘झंडा प्रकाशन’ के निदेशक ने कहा, “दरअसल हमारा प्रकाशन साहित्य का झंडा उठाए हुए है… लेकिन कुछ दिनों से हवा नहीं चल रही है, इसलिए झंडा फहराना मुश्किल हो रहा है। इसलिए हमने दो इम्प्रिंट निकाले हैं—‘डोरी’ और ‘डंडा’। ‘डोरी’ के तहत हमने ‘किराना दुकान’ और ‘ऊँचा मकान’ जैसी बिकाऊ पुस्तकें छापीं। पर बदलते ज़माने के नए पाठकों के लिए ‘छीछी’, ‘थूथू’ और ‘हाय राम!’ जैसी किताबें ‘डंडा’ में छापकर, हम अब झंडा फहराने में सफल हो गए हैं।’’
इसके बाद दुमदार प्रकाशन वाले कहने लगे, “हम पहले लेखकों पर किताबें छपवाने को निर्भर थे, लेकिन आज हमारे बिकाऊ लेखकों ने हमें आत्मनिर्भर बना दिया है। हम उनके माध्यम से इस दुनिया को बताना चाहते हैं कि यह देश साँप-बिच्छुओं का देश नहीं; बल्कि दरबार-दरबारी, चाय-कॉफी, नमक-मिर्च का स्वाद उठाने वालों का देश है। लोग मुझसे पूछते हैं कि आख़िर हमने यह प्रकाशन हिंदी में क्यों शुरू किया? इसका उत्तर है—अपनी बेटी के लिए। मैं चाहता हूँ कि मेरी बेटी हिंदी आडियो बुक्स सुनती हुई बड़ी हो।’’
बीकानेरी जी इस प्रकार के नए विचारों से बहुत प्रभावित थे। इन्हीं विचारों पर अगला सेशन ‘कृत्रिम बुद्धि’ यानी ‘आर्टिफ़िशियल इंटिलेजेंस’ का था जिसमें लोग यह बता रहे थे कि जो आप बोलेंगे वह कम्प्यूटर लिख देगा, पर वर्तनी और व्याकरण आपको ही ठीक करने पड़ेंगे। मैंने बीकानेरी जी से पूछा कि सुना है आपकी पत्रिका का नाम कुछ चिरकुटों ने चुरा लिया। आप क्या सोचते हैं, इस बारे में? बीकानेरी जी ने कहा कि हर शहर में ‘बीकानेरवाला’ और ‘बीकानेर मिष्ठान्न भंडार‘ नाम से कई दुकानें हैं। अब इन बातों से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।
इस अवसर पर ही चार लाइना सुनाने के लिए कुख्यात एक वरिष्ठ ‘कवि’ की भी कई लाइना सुननी पड़ीं। उन्होंने कहा, ‘‘सरकारी दफ़्तरों में हिंदी इसलिए नहीं लिखते कि अफ़सरों को डर लगता है कि उनकी वर्तनी की अशुद्धियाँ पकड़ ली जाएँगी। यहाँ ‘आर्टिफ़िशियल इंटिलेजेंस’ क्या ख़ाक काम आएगा? व्याकरण कौन सुधारेगा? सरकारी बाबू पहले हिंदी में सोचेगा, फिर अँग्रेज़ी में लिखेगा। उसी को फिर हिंदी में अनुवाद करवाएगा। जिसको ठीक करने के लिए फिर अँग्रेज़ी पढ़नी पड़ेगी। मैं कहता हूँ कि दिल से लिखो, दिल से लिखोगे तो दिल तक बात पहुँचेगी।’’
सत्र के संयोजक ने इस वरिष्ठ ‘कवि’ के आमंत्रण स्वीकार कर लेने पर ही कृतकृत्य होकर कहा, “सर, सन् 1992 की बात है। तब मैं हिंदू कॉलेज में पढ़ता था। उन दिनों आपका आना हुआ था। आज 26 साल बाद आपके साक्षात् दर्शन हुए। क्या कहूँ… (कुछ रुक कर) …आइ एम वेरी-वेरी हैप्पी सर…।’’ वरिष्ठ ‘कवि’ जी ने माइक पर फ़ौरन कहा, “आजकल के लोगों को ‘अभिनंदन’ और ‘आभार’ बोलना नहीं आता। वे कहते हैं : आपने हमारे साथ ‘ये’ किया, हम आपका ‘वो’ करते हैं।’’ इस पर लोग हँस-हँसकर लोट-पोट हो गए।
बीकानेरी जी ने कहा, “सुबह से बहुत गंभीर माहौल था। अब कुछ हल्का जान पड़ता है।’’ मैंने कहा, “अभी मैं बोझिल करने जा रहा हूँ। मेरी बात सुनकर सारे लोग भाग खड़े होंगे।’’
वरिष्ठ ‘कवि’ जी के जाते ही सारे श्रोतागण उनके साथ फ़ोटो खिंचाने के बहाने जो बाहर गए, तो उनमें से बहुत कम ही लौटकर आए। लगभग ख़ाली बेंचों पर अगला सेशन शुरू हुआ। कनिका जी, पुनीत जी और हमारा परिचय कराया गया। हमारे सत्र का विषय था, ‘भाषा का लेखन पर प्रभाव’। कनिका जी का प्रश्न था कि क्या पुनीत जी ने अपने उपन्यास में या मैंने अपनी रचनाओं में क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों आदि का प्रयोग किया है, और इससे पाठकों पर क्या प्रभाव पड़ता है।
इस पर पुनीत जी ने कहना शुरू किया, ‘‘पाठकों ने मेरी किताबों को बहुत-बहुत पसंद किया। मेरी किताबें लाखों में बिकी हैं। मुझे पाठकों से इतना प्यार मिला है कि मैं उसे शब्दों में बयान नहीं कर सकता। मैं आपको एक चिट्ठी दिखाऊँगा, मैंने सँभालकर रखी है। एक गर्भवती महिला थी, वह मेरी किताब पढ़ रही थी। किताब पढ़ने के दौरान ही उसे प्रसव हो गया और मातृत्व की सारी पीड़ा मेरे उपन्यास के अंत ने दूर कर दी। अब इससे बड़ी उपलब्धि और क्या हो सकती है?”
कनिका जी ने बाद में कहा कि मेरी भृकुटि तन गई थी। मैंने कनिका जी द्वारा पूछे गए सवाल का जवाब दिया, “खजुराहो के कंदरीय महादेव मंदिर में जो सर्वश्रेष्ठ कलाकृति है, वह गर्भगृह में शिवलिंग के ऊपर है। जिसे आप कभी नहीं देख सकते, क्योंकि वहाँ प्राकृतिक प्रकाश नहीं पहुँचता। सवाल है कि मंदिर की सबसे बड़ी उपलब्धि लोगों के लिए अदृश्य रखने की क्यों व्यवस्था की गई? उसी तरह किसी भी ईमानदार लेखक के लिए पाठक की परवाह करना फ़िज़ूल है।’’ पुनीत जी को मेरी बात नाग़वार गुज़री। उन्होंने फ़ौरन कहा, “यह कलावादी, शुद्धतावादी दृष्टिकोण है—कला केवल कला के लिए। मेरे हिसाब से हर लेखक को मशाल लेकर देश के हर घर में जा-जाकर अपनी किताब पहुँचानी चाहिए। आप यक़ीन नहीं करेंगे, बहुत-से लोगों ने ‘हरिद्वार’ पर लिखी मेरी किताब पढ़कर मुझे लिखा कि हमें पता ही नहीं था कि हरिद्वार में ‘हर की पौड़ी’ भी है, मनसा देवी का मंदिर भी है, यहाँ कभी राजा हरिश्चंद्र राज करते थे। हरिद्वार के विषय में उन्हें ऐसी-ऐसी जानकारी मिली, जो मुझे उम्मीद है कि आप लोग भी जब जल्दी ही ख़रीदकर पढ़ेंगे, आपको भी होगी और आप दाँतों तले अँगूठा दबा लेंगे कि अच्छा, हरिद्वार में यह भी है?’’
कनिका जी ने इंटरनेट के युग में भाषा के बदलते प्रारूप के विषय में मेरे विचार जानने चाहे। मैंने कहा, “कनिका जी, मेरी बेटी अभी बोलना ही सीख रही है। वह मुझसे कुछ सवाल करती है, जैसे कि गाय कहने से मैं कैसे समझता हूँ कि आँगन में बँधी गाय, या मैदान में चरती गाय? मेरे लिए यह बहुत कठिन प्रश्न हो जाता है। कठिनाई यह है कि एक तरफ़ भर्तृहरि जैसे वैयाकरण हैं जो शब्द और अर्थ को परस्पर अनुविद्ध या एक मानते हैं। वहीं दूसरी ओर दिङ्नाग जैसे बौद्ध विचारक हैं जो शब्द को विकल्पात्मक मानते हैं। मीमांसकों की अलग परिपाटी है, जहाँ कुमारिल भट्ट और प्रभाकर मिश्र शब्द को भाषा की ईकाई मानते हैं, वाक्य को नहीं। उनके लिए शब्द वाक्य में प्रयोग में आने पर ही अर्थ देते हैं। वहीं यशदेव शल्य, गोविंद चंद्र पाण्डे, कृष्ण चंद्र भट्टाचार्य और उनके अनुयायियों की अलग दृष्टि है…” इतना कहने पर ही कनिका जी ने मुझे इशारा किया कि मैं कुछ ज़्यादा ही बोल गया हूँ। मैंने बात रोक कर वहीं कहा, ‘‘भाषा का बदलता प्रारूप हो या साहित्य का अन्य माध्यमों में रूपांतर, यह सब भावन व्यापार है, जिसका आदर्श मूल्य ही है।’’
‘‘तुम्हारी बेटी कब से हो गई?’’ सेशन के बाद कनिका जी ने मुस्कुराते हुए पूछा, “कुछ नाराज़ से दिखते हो? और क्या हो गया था तुम्हें? कहीं ऐसी बातें भी की जाती हैं?’’
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जिन्हें सरे-बाज़ार खड़ा करके जूतों से मारना, जूतों का अपमान है, वे इन दिनों मंचों पर बैठकर हमारी भाषा और हमारे साहित्य को कैसा होना चाहिए, यह ‘ज्ञान’ दे रहे हैं। प्रचण्ड प्रवीर के यहाँ प्रस्तुत गद्य में महज दो रोज़ पूर्व हुए एक कार्यक्रम के वास्तविक ब्योरे हैं, कीचड़ में न सनने की ग़रज़ से नाम लेने वाले शिल्प से यहाँ बचा गया है। बाज़ दफ़ा नामलेवा कथ्य व्यंग्य की सीमा और गहराई को व्यक्तिगत कर देता है, प्रचण्ड ने इस पर लगाम कसकर चाबुक चलाई है और अपने महसूस किए को—व्यंग्य और उपहास में ही सही—सच्ची सामाजिक फ़िक्र से भर दिया है। प्रचण्ड प्रवीर कथा और दर्शन के इलाक़े में सक्रिय हैं। हिंदी और अँग्रेज़ी दोनों में लिखते हैं। हिंदी में एक उपन्यास, एक कहानी-संग्रह और सिनेमा से संबंधित एक किताब ‘अभिनव सिनेमा’ शीर्षक से प्रकाशित है। उनका अनुवाद-कार्य गए बरस ‘सदानीरा’ पर समय-समय पर प्रकाशित हुआ है। उनकी एक लंबी कहानी भी ‘सदानीरा’ के 18वें अंक में प्रकाशित हुई थी, उसे यहाँ पढ़ें :
भिन्न
इस प्रस्तुति की फ़ीचर्ड इमेज़ : FN Souza’s ‘Birth’