एरिक फ्राम के कुछ उद्धरण ::
अनुवाद : युगांक धीर
प्रेम में, अगर वह सचमुच ‘प्रेम’ है, एक वायदा ज़रूर होता है—कि मैं अपने व्यक्तित्व और अस्तित्व की तहों से अपने ‘प्रेमी’ या ‘प्रेमिका’ को उसके व्यक्तित्व और अस्तित्व की तहों तक प्रेम करता हूँ।
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अपने सार-तत्व में सभी मनुष्य एक जैसे ही हैं। हम सभी एक ही इकाई के हिस्से हैं; हम सभी एक ही इकाई हैं। इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि हम किससे प्रेम करते हैं। प्रेम एक तरह का संकल्प है—अपना जीवन पूरी तरह से एक दूसरे व्यक्ति के जीवन को समर्पित कर देने का।
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शायद ही दूसरी कोई ऐसी गतिविधि हो, दूसरा कोई ऐसा उद्यम हो, जो प्रेम की तरह बड़ी-बड़ी उम्मीदों और अपेक्षाओं से शुरू होकर इतने ज़्यादा मामलों में इतनी बुरी तरह विफल होता हो।
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ऐसा नहीं कि लोग प्रेम को महत्वपूर्ण न समझते हों। वे तो भूखे हैं इसके; जाने कितनी सुखांत और दुखांत प्रेम-कथाएँ वे फ़िल्मी परदे पर देखते हैं, जाने कितने प्रेम-गीत वे अपने ख़ाली वक़्त में सुनते हैं, लेकिन उनमें से शायद ही कोई सोचता हो कि प्रेम के बारे में कुछ जानने-सीखने की भी ज़रूरत है।
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प्रेम—सिर्फ़ आत्मा को ‘लाभ’ पहुँचाता है।
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प्रेम व्यक्ति के भीतर एक सक्रिय शक्ति का नाम है। यह वह शक्ति है जो व्यक्ति और दुनिया के बीच की दीवारों को तोड़ डालती है, उसे दूसरों से जोड़ देती है।
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प्रेम एक गतिविधि है, एक अ-सक्रिय प्रयास नहीं। प्रेम दृढ़ता है, दुर्बलता नहीं। एक बहुत आम लहजे में हम कह सकते हैं कि प्रेम का अर्थ ‘देना’ है, ‘लेना’ नहीं।
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अगर मैं किसी एक व्यक्ति से सचमुच प्रेम करता हूँ, तो मैं सभी व्यक्तियों से प्रेम करता हूँ। किसी से ‘आय लव यू’ कहने का सच्चा अर्थ है कि मैं उसके माध्यम से पूरी दुनिया और ज़िंदगी से प्रेम करता हूँ।
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प्रेम किसी व्यक्ति के साथ संबंधों का नाम नहीं है; यह एक ‘दृष्टिकोण’ है, एक ‘चारित्रिक रुझान’ है—जो व्यक्ति और दुनिया के संबंधों को अभिव्यक्त करता है; न कि प्रेम के सिर्फ़ एक ‘लक्ष्य’ के साथ उसके संबंधों को।
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अगर एक व्यक्ति सिर्फ़ दूसरे एक व्यक्ति से प्रेम करता है, और अन्य सभी व्यक्तियों में उसकी ज़रा भी रुचि नहीं है—तो उसका प्रेम प्रेम न होकर मात्र एक समजैविक जुड़ाव भर है, उसके अहं का विस्तार भर है।
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प्रेम एक पर्याप्त ‘यौन-संतुष्टि का परिणाम’ क़तई नहीं है। उल्टे यौन-सुख—और तथाकथित यौन-तकनीकों का ज्ञान भी—‘प्रेम का परिणाम’ होता है।
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प्रेम की प्राप्ति के लिए एक ज़रूरी शर्त है—अपनी ‘आत्म-मुग्धता’ से उबरने में सफलता।
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प्रेम की कला के अभ्यास के लिए ‘आस्था का अभ्यास’ ज़रूरी है।
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प्रेम ‘करने’ का मतलब है अपने आपको बिना किसी शर्त के समर्पित कर देना, अपने आपको पूरी तरह दूसरे को सौंप देना—इस उम्मीद के साथ कि हमारा प्रेम उसके अंदर भी प्रेम पैदा करेगा।
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एरिक फ्राम (23 मार्च 1900-18 मार्च 1980) संसारप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्री हैं। यहाँ प्रस्तुत उद्धरण उनकी बहुचर्चित कृति The Art of Loving के संवाद प्रकाशन से प्रकाशित हिंदी अनुवाद ‘प्रेम का वास्तविक अर्थ और सिद्धांत’ से चुने गए हैं। यह अनुवाद साल 2002 में प्रकाशित हुआ। युगांक धीर सुपरिचित हिंदी लेखक और अनुवादक हैं। वह पत्रकारिता के इलाक़े में भी सक्रिय रहे हैं।