मोहन राकेश के कुछ उद्धरण ::
आज मेरा जन्मदिन है। आज मैं पूरे अट्ठाईस वर्ष का हो गया। मुझे प्रसन्नता है कि मैं यहाँ हूँ। होटल सेवाय दिन भर शांत रहता है। रात को रेडियो का शोर होता है, पर ख़ैर! मैं यहाँ रहकर कुछ दिन काम कर सकूँगा।
कन्नानोर : 8 जनवरी 1953
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जहाँ तक चलते जाने का प्रश्न है, चलते जाया जा सकता है। परंतु जहाँ ठहरने का प्रश्न आता है, वहाँ बहुत-सी अपेक्षाएँ जाग्रत हो उठती हैं और उन सबकी पूर्ति असंभव होने से, फिर चल देने की धुन समा जाती है।
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एक वस्तु का अपना प्राकृतिक गुण होता है। व्यक्ति का भी अपना प्राकृतिक गुण होता है। मूल्य व्यक्ति और वस्तु के प्राकृतिक गुण का न लगाया जाकर प्राय: दूसरों की उस गुण को बेचने की शक्ति का लगाया जाता है। संसार में जितने धनी व्यक्ति हैं, उनमें से अधिकांश दलाली करके—वस्तु या व्यक्ति के गुण को बेचने में माध्यम बनकर धन कमाते हैं। यह दलाली वस्तु और व्यक्ति के वास्तविक मूल्यांकन और मूल्य ग्रहण में बाधा है।
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किसी भी अपरिचित व्यक्ति से, चाहे उसकी भाषा, उसका मज़हब, उसका राजनीतिक विश्वास तुमसे कितना ही भिन्न हो, यदि मुस्कराकर मिला जाए तो जो तुम्हारी ओर हाथ बढ़ाता है, वह कोरा मनुष्य होता है।
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वह मुस्कराहट जो तहों में छिपे हुए मनुष्यत्व को निखारकर बाहर ले आती है, यदि सोद्देश्य हो तो, वह उसके सौंदर्य की वेश्यावृत्ति है।
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काले पड़े हुए शरीर, सूखी हुई त्वचा, जीवन के प्रति नितांत निरुत्साह भाव, चेष्टाओं में शैथिल्य और बुद्धि के नियंत्रण का अभाव… जिस समाज में मनुष्य की एक ऐसी श्रेणी बन सकती है, उसके गलित होने में संदेह ही क्या है?
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जिस हवा में फूल अपने पूरे सौंदर्य के साथ नहीं खिल सकता, वह हवा अवश्य दूषित हवा है। जिस समाज में मनुष्य अपने व्यक्तित्व का पूरा विकास नहीं कर सकता, वह समाज भी अवश्य दूषित समाज है।
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समय सदा दिन के साथ और अगले कल का साथ देता है।
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एक व्यक्ति को इसलिए फाँसी की सज़ा दे दी जाती है कि वह व्यक्ति न्याय-रक्षा के लिए ख़तरा है। वह व्यक्ति जो न्याय-रक्षा के लिए ख़तरा हो सकता है, वह नि:सन्देह उस न्याय से अधिक शक्तिवान होना चाहिए।
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न्याय, जो सदियों से नस्लों और परंपराओं का सामूहिक कृत्य है, यदि एक व्यक्ति के वर्तमान में रहने से अपने लिए आशंका देखता है, तो वह न्याय जर्जर और गलित आधार का न्याय है। वास्तव में ऐसे न्याय के लिए ख़तरा कोई एक व्यक्ति नहीं होता, व्यक्ति तो उसके लिए ख़तरे का संकेत ही हो सकता है। उसके लिए वास्तविक ख़तरा भविष्य है, जिसे किसी भी तरह फाँसी नहीं दी जा सकती।
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हर आबाद शहर में कोई एकाध सड़क ज़रूर ऐसी होती है जो न जाने किस मनहूस वजह से अपने में अलग और सुनसान पड़ी रहती है।
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अतीत कभी भविष्य के गर्भ से बचकर वर्तमान नहीं रह सका।
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मनुष्य को फाँसी देकर नष्ट करना वहशत ही नहीं, पागलपन भी है। यह पागलपन और वहशत डरे हुए हृदय के परिणाम होते हैं जो अपने पर विश्वास और नियंत्रण खो देता है। समय ऐसे हृदयों का साथ नहीं देता। वे झडक़र नष्ट हो जानेवाले पत्ते हैं, जो झड़ने से पहले अपनी कोमलता खो बैठते हैं।
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वर्षों का व्यवधान भी विपरीत को विपरीत से दूर नहीं करता।
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मैं अपनी हर सुबह अपने काम (लेखन) के लिए चाहता था, हालाँकि यह भी सच है कि नौकरी छोड़ने के बाद कोई ज़रूरी नहीं कि मैंने हर सुबह काम किया ही हो।
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मैं नहीं जानता था कि अभाव और भर्त्सना का जीवन व्यतीत करने के बाद प्रतिष्ठा और सम्मान के वातावरण में जा कर मैं कैसा अनुभव करूँगा। मन में कहीं यह आशंका थी कि वह वातावरण मुझे छा लेगा और मेरे जीवन की दिशा बदल देगा… और यह आशंका निराधार नहीं थी।
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मैं यह जानता था कि मैं सुखी नहीं हो सकता। मैंने बार-बार अपने को विश्वास दिलाना चाहा कि कमी उस वातावरण में नहीं, मुझमें है। मैं अपने को बदल लूँ, तो सुखी हो सकता हूँ। परंतु ऐसा नहीं हुआ। न तो मैं बदल सका, न सुखी हो सका। अधिकार मिला, सम्मान बहुत मिला, जो कुछ मैंने लिखा उसकी प्रतिलिपियाँ देश-भर में पहुँच गईं, परंतु मैं सुखी नहीं हुआ। किसी और के लिए वह वातावरण और जीवन स्वाभाविक हो सकता था, मेरे लिए नहीं था। एक राज्याधिकारी का कार्यक्षेत्र मेरे कार्यक्षेत्र से भिन्न था। मुझे बार-बार अनुभव होता कि मैंने प्रभुता और सुविधा के मोह में पड़ कर उस क्षेत्र में अनधिकार प्रवेश किया है, और जिस विशाल में मुझे रहना चाहिए था उससे दूर हट आया हूँ। जब भी मेरी आँखें दूर तक फैली क्षितिज-रेखा पर पड़तीं, तभी यह अनुभूति मुझे सालती कि मैं उस विशाल से दूर हट आया हूँ। मैं अपने को आश्वासन देता कि आज नहीं तो कल मैं परिस्थितियों पर वश पा लूँगा और समान रूप से दोनों क्षेत्रों में अपने को बाँट दूँगा। परंतु मैं स्वयं ही परिस्थितियों के हाथों बनता और चालित होता रहा। जिस कल की मुझे प्रतीक्षा थी, वह कल कभी नहीं आया और मैं धीरे-धीरे खंडित होता गया, होता गया। और एक दिन… एक दिन मैंने पाया कि मैं सर्वथा टूट गया हूँ। मैं वह व्यक्ति नहीं हूँ जिसका उस विशाल के साथ कुछ भी संबंध था।
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द्वंद्व एक ही व्यक्ति तक सीमित नहीं होता, परिवर्तन एक ही दिशा को व्याप्त नहीं करता।
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मैं महज़ एक इंट्रोवर्ट था जो कि स्थितियों को किसी न किसी तरह बदलने के फेरबदल में लगा रहता था।
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मोहन राकेश (8 जनवरी 1925—3 जनवरी 1972) हिंदी के समादृत साहित्यकार हैं। यहाँ प्रस्तुत उद्धरण उनकी डायरी, उनके साक्षात्कार, उनके यात्रा-वृत्तांत ‘आख़िरी चट्टान तक’ और उनके नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ से चुने गए हैं।