निर्मल वर्मा के कुछ उद्धरण ::
वह हर किताब का पन्ना मोड़ देता है ताकि अगली बार जब वह पढ़ना शुरू करे तो याद रहे, पिछली बार कहाँ छोड़ा था। एक दिन जब वह नहीं रहेगा, तो इन किताबों में मुड़े हुए पन्ने अपने-आप सीधे हो जाएँगे—पाठक की मुकम्मिल ज़िंदगी को अपने अधूरेपन से ढँकते हुए…
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जब हम जवान होते हैं, हम समय के ख़िलाफ़ भागते हैं, लेकिन ज्यों-ज्यों बूढ़े होते जाते हैं, हम ठहर जाते हैं, समय भी ठहर जाता है, सिर्फ़ मृत्यु भागती है, हमारी तरफ़।
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कलाकार दुनिया को छोड़ता है, ताकि उसे अपने कृतित्व में पा सके।
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साहित्य हमें पानी नहीं देता, वह सिर्फ़ हमें अपनी प्यास का बोध कराता है। जब तुम स्वप्न में पानी पीते हो, तो जागने पर सहसा एहसास होता है कि तुम सचमुच कितने प्यासे थे।
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जुदाई का हर निर्णय संपूर्ण और अंतिम होना चाहिए; पीछे छोड़े हुए सब स्मृति-चिह्नों को मिटा देना चाहिए, और पुलों को नष्ट कर देना चाहिए, किसी भी तरह की वापसी को असंभव बनाने के लिए।
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हमें उन चीज़ों के बारे में लिखने से अपने को रोकना चाहिए, जो हमें बहुत उद्वेलित करती हैं जैसे—बादलों में बहता हुआ चाँद, हवा की रात और हवा, अँधेरे में झूमते हुए पेड़, पहाड़ों पर चाँदनी का आलोक, स्वयं पहाड़ और उनकी निस्तब्धता—इन सबको अभिव्यक्त करना ज़रूरी नहीं है, न ही इन्हें नाम देने की कोशिश करनी चाहिए क्योंकि वे अपनी भावमुद्रा में बहुत रहस्यमय और ‘इल्यूसिव’ हैं।
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‘उदास’ शब्द ‘उदासी’ की जगह नहीं ले सकता।
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हम अपने को सिर्फ़ अपनी संभावनाओं की कसौटी पर नाप सकते हैं। जिसने अपनी संभावनाओं को आख़िरी बूँद तक निचोड़ लिया हो, उसे मृत्यु के क्षण की कोई चिंता नहीं करनी चाहिए।
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कला—हर महत्वपूर्ण कलाकृति—संयोग को अनिवार्य में बदलने की कोशिश है।
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यह अजीब बात है, जब तुम दो अलग-अलग दुखों के लिए रोने लगते हो और पता नहीं चलता, कौन-से आँसू कौन-से दुख के हैं।
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आदमी को पूरी निर्ममता से अपने अतीत में किए कार्यों की चीर-फाड़ करनी चाहिए, ताकि वह इतना साहस जुटा सके कि हर दिन थोड़ा-सा जी सके।
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जब तक तुम्हारा संपूर्ण अस्तित्व अर्थ की कामना नहीं करता, तब तक तुम एक मृत व्यक्ति हो। मुश्किल यह है कि जब तक मृत्यु का स्पर्श नहीं मिलता, तब तक हम अर्थ की कामना नहीं करते।
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हम क्यों कुछ कविताओं, कलाकृतियों की तरफ़ बार-बार लौटते हैं? क्या देखते हैं उनमें, कि जितनी प्यास बुझती है, उतनी बाक़ी बची रह जाती है, फिर लौटते हैं, चले जाते हैं? क्या उनका कोई ‘मतलब’ है, जो बार-बार हाथ से छूट जाता है और हम उसे पाने दुबारा-तिबारा उनके पास लौटकर चले आते हैं?
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यह भयानक है, जब लेखक लिखना बंद कर देता है। उसके पास दुनिया को दिखाने के लिए कुछ भी नहीं रहता, सिवा अपने चेहरे के!
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जिन्हें हम अपने जीवन के ‘सृजनात्मक क्षण’ कहते हैं, वे घोर कृतघ्नता के क्षण हैं। वे चाहे प्रेम के हों या लेखन के।
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एक लेखक आत्म से शुरू करके शून्य की ओर जा सकता है, किंतु जो अपने को शून्य से शुरू करता है, उसे ‘आत्म’ तक पहुँचने के लिए अपनी समूची संस्कृति को बदलना होगा—वरना वह सिर्फ़ प्रयोगशील लेखक बनकर रह जाएगा।
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हम एक ऐसी सभ्यता में रहते हैं , जिसने सत्य को खोजने के लिए सब रास्तों को खोल दिया है, किंतु उसे पाने की समस्त संभावनाओं को नष्ट कर दिया है।
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जब हम अपनी आस्थाओं की धरती से मृत्यु को देखते हैं—तो वह कितनी सह्य और सहज जान पड़ती है : जब हम मृत्यु—अपनी मृत्यु की ज़मीन से—अपनी आस्थाओं को देखते हैं, तो वे कितनी ग़रीब और संदिग्ध दिखाई पड़ती हैं…
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कौन कहता है कि दुनिया एक रहस्य है? वह एक किताब की तरह खुली है, हर चीज़ एक-एक अक्षर की तरह अंकित है; आश्चर्य की बात यह है, कि हम हर अक्षर के पीछे कोई अर्थ ढूँढ़ना चाहते हैं, जो नहीं है, यदि कोई अर्थ है—तो वह अक्षर नहीं, क्षर है।
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इस दुनिया में कितनी दुनियाएँ ख़ाली पड़ी रहती हैं, जबकि लोग ग़लत जगह पर रहकर सारी ज़िंदगी गँवा देते हैं।
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एक अकेले व्यक्ति और संन्यासी के अकेलेपन में भयानक अंतर है—एक अकेला व्यक्ति दूसरों से अलग होकर अपने में रहता है; एक संन्यासी अपनेपन से मुक्त होकर दुनिया में जीता है।
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जब हम अपने अतीत के बारे में सोचते हैं, तो अविश्वसनीय क़िस्म की हैरानी होती है कि हम ऐसी मूर्खतापूर्ण ग़लतियाँ कैसे कर सकते थे, जिन्हें आज हम इतनी सफ़ाई से देख सकते हैं।
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अतीत हमें कुछ नहीं सिखाता, वह उसी तरह तर्कातीत है, जैसे दिन के उजाले में पिछली रात का स्वप्न…
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जिसे हम जागृतावस्था कहते हैं—वे सिर्फ़ पीड़ा के क्षण हैं—दो प्रेम-स्वप्नों के बीच।
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भयावह यथार्थ के सम्मुख ‘धर्म’ जैसी चीज़ कितनी काल्पनिक जान पड़ती है!
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ईश्वर अनाम न रहे, इसीलिए देवता हैं।
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जब हम प्यार करते हैं, तो स्त्री को धीरे-धीरे उस दीवार के सहारे खड़ा कर देते हैं, जिसके पीछे मृत्यु है; हम दीवार के सहारे उसका सिर टिका कर उसे सहलाते हैं, चूमते हैं, बातों में उसे बहलाते हैं, बराबर यह आशा लगाए रहते हैं—कि वह कहीं मुड़कर दीवार के पीछे न झाँक ले।
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अगर मैं दुख के बग़ैर रह सकूँ, तो यह सुख नहीं होगा; यह दूसरे दुख की तलाश होगी; और इस तलाश के लिए मुझे बहुत दूर नहीं जाना होगा; वह स्वयं मेरे कमरे की देहरी पर खड़ा होगा, कमरे की ख़ाली जगह को भरने…
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हर रोज़ कोई मेरे भीतर कहता है, तुम मृत हो। यही एक आवाज़ है, जो मुझे विश्वास दिलाती है, कि मैं अब भी जीवित हूँ।
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निर्मल वर्मा (3 अप्रैल 1929–25 अक्टूबर 2005) हिंदी के समादृत साहित्यकार और चिंतक हैं। यहाँ प्रस्तुत उद्धरण उनकी पुस्तक ‘धुंध से उठती धुन’ (डायरी, नोट्स, जर्नल्स) के पहले संस्करण (1997, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली) से चुने गए हैं।