समीक्षा ::
प्रवीण झा

Praveen Jha, 2019 hindi writer
प्रवीण झा

एक पैरोकारी जो मैं अक्सर करता हूँ, वह है ज्ञान के ‘डिज़िटल आर्काइव/संग्रह’ बनाने की। मैं तो इसमें चाभी लगाने (डिज़िटल राइट्स मैनेज़मेंट/डी.आर.एम.) के भी ख़िलाफ़ हूँ, लेकिन यह मेरी अपनी सोच है। इसका अर्थ यह भी तो निकलता है कि पाइरेसी बंद करने का सबसे सुलभ उपाय है कि पाइरेसी को क़ानूनी बना दिया जाए, किताबें कॉपीराइट-मुक्त कर दी जाएँ और उनका जो जैसा चाहे वैसा उपयोग करे।

लेकिन इस अराजकता का अर्थशास्त्र क्या होगा? रॉयल्टी कौन देगा, किसे देगा? क्यों देगा? लेखक ने लिखी, बाज़ार में खुले तौर पर बिक रही है, हर कोई पढ़ रहा है, लेकिन धनोपार्जन—शून्य। इस वाक्य में अर्थ-दोष है। जब बिक रही है, तो धनोपार्जन हो ही रहा है… और हर कोई पढ़ रहा है, यह कितनी बड़ी बात है! आपने चाभी लगा ली, कॉपीराइट-रॉयल्टी के ताम-झाम बुन लिए, और अब ढूँढ़ रहे हैं कि पढ़ेगा कौन? रोज़ गल्ले पर गिन रहे हैं कि कौन कितना बिका? जिसने ख़ज़ाना खोल रखा है, उनके तो दर पर रोज़ इतने लोग आएँगे जितने आपने एक तिमाही में गिने। रही बात अर्थशास्त्र की, तब जब लेखन-पठन अनुबंध स्थापित हुआ, उसके प्रतिफल भी होंगे ही।

ख़ैर, बात वह नहीं थी। बात यह थी कि पिछले दशक में साहित्य के डिज़िटल संग्रह में कुछ महत्वपूर्ण मील के पत्थर स्थापित हुए हैं। कविता कोश, गद्य कोश, रेख़्ता, हिंदी समय, भारत दर्शन सरीखे उपक्रमों ने साहित्य को एक स्थान पर एकत्रित कर डिज़िटल पुस्तकालय निर्मित किए हैं। इनमें कॉपीराइट की वजह से कई रचनाएँ नहीं भी आई होंगी, लेकिन यथासंभव ये संग्रह विस्तृत होते चले गए हैं और होते जा रहे हैं। इनके अतिरिक्त ‘आर्काइव’ और ‘प्रोज़ेक्ट गुटनबर्ग’ जैसे विश्व-स्तरीय डिज़िटल संग्रह मौजूद हैं ही। ‘रेख़्ता’ का तो मोबाइल ऐप्प भी है, जिसमें हिंदी-उर्दू-रोमन तीनों माध्यमों में रचनाओं को पढ़ा जा सकता है। इस ज्ञान-युग में ज्ञान कितना सुलभ और सहज हो गया, और सबसे बड़ी बात की स्थायी भी हो गया है। दीमक लगी और ‘आउट ऑफ़ प्रिंट’ किताबों को पुनर्जीवित कर सँजोया जा रहा है। यह ज्ञान का अमरत्व है। अब जिसने संदूक़ बंद रखा, वह संदूक़ के साथ ही दफ़न हो गया या हो जाएगा… यों लगता है।

अनुपम मिश्र जैसे बुद्धिजीवियों ने अपनी पुस्तकों को सदा कॉपीराइट-मुक्त रखा, यह प्रक्रिया उनके निधन के बाद भी जारी है। आज प्रकाशकों से लड़-भिड़कर फ़्रीलांसर ख़ुद को ख़ुद छाप रहे हैं, और ख़ूब पढ़े भी जा रहे हैं।

इस सिलसिले में ‘रेख़्ता फ़ाउंडेशन’ की नई मुहिम ‘सूफ़ीनामा’ (www.sufinama.org) पर जाना हुआ। सूफ़ी साहित्य दुनिया के सबसे बिखरे, अस्पष्ट, और कुछ हद तक अलिखित अथवा त्रुटिपूर्ण अनूदित साहित्य में से है। इसका संग्रह तो दूर, इसको परिभाषित करना भी एक भगीरथ कार्य है। इस तरह का साहसिक उपक्रम करने वाले को मेरा सलाम! शायद यह समय अब आ गया है कि हम इस बिखराव और अस्पष्टता से परे हटकर ‘होमोजीनाइज़्ड स्ट्रक्चर’ (एकरूपता) की ओर बढ़ें, और समावेशी बनें। इस यक्ष-प्रश्न ‘सूफ़ी क्या है?’ के सभी संभावित और विवादित उत्तरों को एक साथ समेट लें। जब हम इतने समावेशी बनेंगे तो सूफ़ी असीमित हो जाएगा, जो कि इसका मूल स्वरूप है। इसका न आदि, न अंत है, या यूँ कहिए कि यह तो सदा से ही था और है। हर धर्म का मूल सूफ़ी ही था, जब हम यह कहते हैं कि कण-कण में ईश्वर है; हम में ईश्वर, तुम में ईश्वर… तो एकात्मवादी संरचना कोई भिन्न पंथ को या विचार को जन्म नहीं दे रही। यह तो वीराने में एक बरगद के वृक्ष समान है, जिसे न किसी ने रोपा, न देख-भाल की, लेकिन सब इसकी छाया में सुकून महसूस करते हैं।

लेकिन ऐसा भी नहीं कि हर चीज़ सूफ़ी है। मैंने जब सूफ़ीवाद के श्रेष्ठ जानकार सच्चिदानंद सिंह से विमर्श किया, तो उन्होंने ‘सूफ़ीनामा’ पर सूफ़ी और भक्ति-काल के हिंदू संतों को साथ रखने, या अमीर ख़ुसरो और शाह वलीउल्लाह को सूफ़ी गिन लेने के संदर्भ में कुछ तर्क और प्रश्न सामने रखे। ये तर्क और प्रश्न हमें उसी प्रश्न की तरफ़ लौटा ले जाते हैं कि ‘सूफ़ी क्या है?’ उनके ही एक अन्य लेख में ‘रहस्यवाद’ और ‘मिस्टीसिज़्म’ जैसे शब्दों के अनुचित या हल्के प्रयोगों पर भी प्रश्नचिह्न हैं। ज़ाहिर है कि ‘सूफ़ीनामा’ के निर्माताओं के लिए भी यह कठिन रहा होगा कि मीराँबाई को सूफ़ी मानें या न मानें, और मानें तो किस तर्क से मानें? और उन सूफ़ियों का क्या, जो एकात्मवाद की आड़ में रूढ़ धर्म-प्रचार करते रहे? और उनका क्या जो रोमा, जिप्सी, हिप्पी बनते गए? क्या अद्वैतवाद या ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ को एकात्मवादी मान लिया जाए? या ओशो रजनीश को?

सच पूछिए तो इन ‘तसव्वुफ़ इस्लाम’, ‘रहस्यवाद’, ‘मिस्टिसिज़्म’, ‘सलाफ़ी/वहाबी’, ‘रिषी’, ‘मॉडर्निज़्म’, ‘समा’ जैसे शब्द-जाल ने सूफ़ी को जनमानस से दूर कर संभ्रांत बना दिया… जबकि अपने उत्कर्ष के युग में, सूफ़ी के मायने थे—जनमानस के क़रीब होना।

ओशो की मैंने बात की, जिन्होंने सूफ़ी साहित्य के कैप्सूल बनाकर पूरब से पश्चिम तक बाँटे, लेकिन उनकी परिधि ही संपन्न और अभिजात्य वर्ग था। यह धीरे-धीरे हुआ कि यह एक फ़ैशन बनता गया, और छद्म-निर्वाण का साधन भी, जिसमें इसकी प्रदूषित व्याख्याएँ भी हुईं। इसलिए यह आवश्यक है कि आज इसे इसके मूल स्वरूप में ज्यों का त्यों और समावेशी ढब से जनसुलभ बनाया जाए। यही ‘सूफ़ीनामा’ जैसी मुहिम का संभवत: उद्देश्य भी प्रतीत होता है। भक्ति-काल के दोहों और कवियों को सम्मिलित करना भी शायद इसी ‘होमोजीनाइज़ेशन’ के निमित्त है… यानी एक तरह से इस वैचारिक मकड़जाल पर से किसी धर्म, पंथ या प्रतिबद्धता को समाप्त करना। सूफ़ी पर से ‘सर्वाधिकार सुरक्षित’ का टैग हटा देना। इस सबसे परे हटकर भी सोचें, तो अब इन संग्रहों के कितने खंड करेंगे? हिंदी साहित्य की श्रेणी अलग, उर्दू/अरबी/फ़ारसी की अलग, इस्लाम से जुड़ी सूफ़ी-श्रेणी अलग, भक्ति-काल की अलग। यूँ तो कुनबे पर कुनबे बनते चले जाएँगे। इनका एक संगम तो स्थापित करना ही होगा। इसके लिए ज़रूरी है कि संग्रह और उनके वैज्ञानिक रूप से कैटलॉग बनाए जाएँ, ताकि जिसे जिस तरह का ज्ञान चाहिए वह चुन ले।

मुझे संगीत में रुचि तो है तो सबसे पहले यहाँ रागों पर आधारित पदों और बंदिशों पर मेरा ध्यान गया। मियाँ तानसेन के सूफ़ी होने का प्रमाण चाहे जो भी हो, लेकिन उनके पदों का संग्रह आवश्यक है। यूँ भी मौसिक़ी का तो मिज़ाज ही सूफ़ियाना है। ख़ुसरो के क़व्वाल-बच्चों से अष्टछाप की हवेली-संगीत, गुरबानी के सबद और कबीर के निर्गुण भजनों से गुज़रते हुए लगा कि यह अथाह है। मेरी इच्छा है कि यह सब सम्मिलित हों।

इस तरह ही कश्मीर की रिषी परंपरा और ललद्यद के वाख़ को भी शामिल किया ही जाएगा, और क्या पता रेने गुएनो जैसे पराभौतिक (मेटाफ़िजिसिस्ट) भी इस कड़ी का हिस्सा बनें? तो यह जो सफ़र शुरू हुआ है, इसमें बहुत संभावनाएँ हैं। हाँ! एक बारीक नज़र इस बात पर ज़रूर रखी जाए कि ‘रेख़्ता’ पर पहले से जो ग़ज़लें या नज़्में संकलित हैं, उनकी बस इसलिए ‘सूफ़ीनामा’ पर पुनरावृत्ति न हो कि वे उर्दू/फ़ारसी में हैं। इबादती और सूफ़ियाना कलेवर के भले ही दोनों प्लेटफ़ॉर्म पर रह सकते हैं… और इन सबको एक ही ऐप्प से जोड़ दिया जाए तो हम जैसों के लिए सुलभ होगा।

एक और बात जो सच्चिदानंद जी ने कही, और मुझे भी लगता है कि हमारी पीढ़ी को यह सरलता से समझाया भी जाए कि ‘सूफ़ी’ क्या है। इसमें भारी-भरकम शब्दावली और कुछ हद तक कठिन फ़ारसी शब्दों का प्रयोग भी कम से कम हो। इसका अर्थ यह नहीं कि ‘रहस्यवाद’ जैसे शब्द रच दिए जाएँ, लेकिन एक ‘होलिस्टिक’ (समग्र) दृष्टि दी जाए। प्राचीन पुस्तकों के अतिरिक्त उपलब्ध समकालीन लेखों, निबंधों, भाषणों का संग्रह हो तो शायद हम इससे और बेहतर ढंग से जुड़ सकें। यह सारबद्ध साहित्य अवश्य है, लेकिन असहज नहीं… बल्कि जिन देशों में स्कूली धर्म-शिक्षा या नीति-शिक्षा अनिवार्य है, जैसे तुर्की या स्कैंडिनेविया में सूफ़ी के डोज़ बाल्य-काल से ही दिए जाते रहे हैं। इसे ख़्वाह-म-ख़्वाह रहस्य से भरा ‘मिस्टिक’ और गूढ़ बनाकर नहीं पेश करना चाहिए कि लोग सूफ़ी के संसार में प्रवेश करते ही घबराएँ, या हहुआकर भटक जाएँ। अगर इसे बेपर्द, प्राकृतिक और यूज़र फ़्रेंडली रखा गया तो ‘सूफ़ीनामा’ जैसे उपक्रम एक ‘एज़ुकेशनल टूल’ की तरह प्रयोग में लाए जाएँगे। अन्यथा, यह बुद्धिजीवियों और साहित्य-रसिकों की अंतिम सीढ़ी तक ही सिमट कर रह जाएँगे।

मूल और सहज, इन दोनों मानकों पर ‘सूफ़ीनामा’ वेबसाइट पहली निगाह में खरी उतरती है। उम्मीद तो बनती है कि इससे वे लोग भी ज़रूर जुड़ेंगे जो सूफ़ी के संबंध में कुछ नहीं जानते… और वे भी जिनकी समझ सतही है। इस तरह ‘रहस्यवाद’ परत दर परत इतना खुलेगा कि इस शब्द को ही तिलांजलि दे दी जाएगी, और सूफ़ (ऊन) के सफ़ेद चोग़े जैसी सहज छवि लौटेगी।

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प्रवीण झा हिंदी लेखक हैं। समय-समय पर वह अपने बौद्धिक और जागरूक हस्तक्षेप से हिंदी के परिवेश को बेहतर करते रहते हैं। किंडल पर उनकी दो किताबें ‘चमनलाल की डायरी’ और ‘भूतों के देश में’ प्रकाशित हो चुकी हैं। वह संगीत के ख़ासे जानकार और डॉक्टर हैं। इन दिनों नार्वे में रह रहे हैं। उनसे doctorjha@gmail.com पर बात की जा सकती है। ‘सदानीरा’ के 17वें और 18वें अंक में प्रकाशित ध्रुपद पर उनका एक आलेख यहाँ पढ़ें :

एक अविचल पद

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