यूटी की किताबशाला में ‘नोट्स फ्रॉम दी अंडरग्राउंड’ ::
प्रस्तुति : दिव्या

यूनिवर्सिटी थिएटर (इलाहाबाद विश्वविद्यालय) की किताबशाला

फ़्योदोर दोस्तोयेवस्की ‘नोट्स फ्रॉम अंडरग्राउंड’ 1864 में लिखी गई थी। इस किताब को ‘अस्तित्ववादी सिद्धांत’ पर लिखा गया संसार का प्राथमिक साहित्य माना जाता है। अस्तित्ववाद का सिद्धांत, तर्क को सर्वोच्च स्थान न देकर, मानव को अपना केंद्र बनाता है। मनुष्य भावनाओं से प्रभावित होने वाला जीव है, और उसके अनुसार उसे चयन की स्वतंत्रता है। हालाँकि पहली बार इस सिद्धांत की बात कीर्केगार्द (1813-1855) ने की, पर दूसरे विश्व युद्ध के बाद यह चर्चा का विषय बना।

दोस्तोयेवस्की के बारे में यह कहना ग़लत नहीं होगा कि उनका जीवन उनके उपन्यासों की तरह ही विकट और उथल-पुथल वाला है तथा इसका प्रभाव उनके साहित्य में भी दिखता है। उनके किरदार विचलित करने वाले हैं। वे पैसों की तंगी, अकेलेपन, अवसाद से जूझते नज़र आते हैं।

‘नोट्स फ्रॉम अंडरग्राउंड’ का प्रधान पात्र चालीस साल का आदमी है। यह व्यक्ति ‘प्रति नायक’ के मापदंडों पर खरा उतरता है और आत्मघृणा से भरा हुआ है। वह अपनी ज़िंदगी के बीते पंद्रह साल के बारे में बता रहा है। इस क्रम में ऐसी बातें हैं जो आदमी ख़ुद को भी बताने से डरता है। उसे अपने पाठकों का पता है और वह समय-समय पर उनसे बात करता है, सवाल करता है। यहाँ एक बात है कि वाचक पूरी तरह विश्वसनीय नहीं है। वह बार-बार अपनी कही गई बात का खंडन करता है। उसके हिसाब से दो तरह के लोग होते हैं—एक : अति विकसित चेतना वाले लोग और दूसरे : जो काम सिद्ध करते हैं और एकदम सीधा सोचते हैं, जिनकी समझ विकसित या कहें दूरदर्शी नहीं होती। वाचक ख़ुद को पहले वर्ग का मानता है और इस बात पर उसे अंदर ही अंदर घमंड भी है। लेकिन वह यह भी कहता है कि अति विकसित चेतना होना अभिशाप है, एक बीमारी है जो इंसान को बेकार बना देती है; क्योंकि वह आदमी चीज़ों का इतना गहरा अध्ययन करता है कि अंततः सब चीज़ें व्यर्थ लगने लगती हैं… और उसको कोई ठोस लक्ष्य नहीं मिल पाता, वह कुछ कर नहीं पाता, जबकि दूसरे वर्ग के लोग जीवन में कुछ कर पाते हैं, कुछ बन पाते हैं। वाचक ऐसी कई दार्शनिक बातें करता है, प्रश्न उठाता है, टिप्पणी करता है। नियतिवाद और संकल्प स्वातंत्र्य के बीच सालों से चली आ रही बहस पर अपनी राय देता है :
‘‘अगर तुम कहते हो कि आदमी का हर कर्म निश्चित है तो वह इसको नकारने के लिए कुछ भी करेगा, किसी भी हद तक जाएगा ताकि यह स्थापित हो जाए कि वह स्वतंत्र है, और अगर आप कहेंगे कि ये भी निश्चित था या अनुमान के अनुसार था तो वह अपनी बात सिद्ध करते पागल हो जाएगा कि वह नियति की कठपुतली नहीं है।’’

‘नोट्स फ्रॉम अंडरग्राउंड’ में मन को आतंकित कर देने वाली सच्चाई लिखी गई है जिसे हम सब कभी न कभी जीते हैं, पर जिसे उसके चरम पर जाकर देखने की हिम्मत नहीं हुई। वाचक इन सच्चाइयों का अनुभव एक्सट्रीम में करता है और हम सबसे कहता है : ‘‘मैं शायद तुम सबसे ज़्यादा ‘ज़िंदा’ हूँ!’’

सवाल-जवाब

क्या यह उपन्यास लेखक की आत्मकथा है?

नहीं, यह कहना ग़लत होगा, इस उपन्यास का मुख्य पात्र (वाचक) ख़ुद से घृणा करता है और अपने आस-पास के लोगों से भी। वह एक चालीस वर्ष का आदमी है जो अपने बीते वर्षों का आकलन कर रहा है। इस उपन्यास को एक मनोवैज्ञानिक उपन्यास भी कह सकते हैं। लेखक इसके माध्यम से यह समझाना चाहता है कि जो भाव हम महसूस करते हैं—उनका चरम रूप कैसा होगा, आदमी क्या करता होगा। यह एक बहुत विचित्र पात्र है जो चीज़ों को तीव्रता से महसूस करता है। लेखक का इस पात्र के बारे में कहना है :

‘‘जिन परिस्तिथियों में हमारे समाज का निर्माण हुआ है, उसमें ऐसे पात्रों का होना असंभावित नहीं है।’’

इस उपन्यास का सामाजिक और राजनैतिक महत्त्व क्या है?

यूरोपियन साहित्य के विकास के हिसाब से यह एक बेहद महत्वपूर्ण उपन्यास है। ऐसा माना जाता है कि अस्तित्वाद के सिद्धांत पर यह पहला साहित्यिक काम है। अस्तित्वाद का सिद्धांत दूसरे विश्व युद्ध के बाद ज्याँ पाल सार्त्र, अल्बेयर कामू और मार्टिन हाइडेगर जैसे दार्शनिकों के कामों से चर्चा में आया। कहा जाता है कि फ़्योदोर दोस्तोयेवस्की का यह लघु उपन्यास तब के प्रसिद्ध दार्शनिक और लेखक निकोलोई चेर्नीयेवस्की के उपन्यास ‘व्हाट इज टू बी डन’ (1863) की प्रतिक्रिया स्वरूप लिखा गया था।

चेर्नीयेवस्की अपनी किताब में तर्क के सिद्धांत के आधार पर आदर्श समाज का निर्माण करने की बात करते हैं। उन्होंने तर्क को मनुष्य के जीवन में सबसे ऊँचा स्थान दिया है। दोस्तोयेवस्की का यह मानना नहीं था। उनके हिसाब से मनुष्य तर्क से ही निर्मित नहीं है, बल्कि वह भावना और अनुभूति से भी निर्मित है।

आपके व्यक्तिगत जीवन में इस उपन्यास का क्या फ़र्क़ पड़ा?

फ़र्क़ तो कुछ ख़ास नहीं पड़ा, ऐसे विचित्र पात्र के मन में क्या चलता है—उसकी समझ बढ़ी। इसमें वाचक का एक महत्त्वपूर्ण कथन है :

‘‘मुझे इसे लिखते समय पीड़ा हुई, शर्म लगी और इस प्रकार यह एक साहित्य न होकर प्रायश्चित है।’’

हम भी कई बार ऐसे काम करते हैं जो हमे पीड़ा देते हैं, पर ग्लानि से भरकर प्रायश्चित करने के भाव से उसे करते हैं। अब मुझे ‘अपराध और दंड’ का रस्कोलनिकोव का मानस और भी समझ आता है और फ्रेडरिक नीत्शे के दर्शन के पीछे का मनोभाव भी।

लेखक ऐसे विचित्र किरदार क्यों चुनते हैं—अपने उपन्यास का आधार बनाने के लिए?

इसका उत्तर आपको दोस्तोयेवस्की के निजी जीवन के बारे में जानकर मिल जाएगा। उनके जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव आए। अपने पहले उपन्यास से ही ख्याति मिलने के बाद, 1849 में उनको रूस के शासक के ख़िलाफ़ एक साहित्यिक मंडली से तालमेल रखने के अपराध में गिरफ़्तार कर लिया गया… चार साल वह साइबेरिया की जेल में रहे। उनके किरदार उन्हीं के जीवन की परछाइयाँ हैं—जो उन्होंने देखा, जैसे लोगों के बीच वे रहे। दोस्तोयेवस्की का पूरा जीवन संघर्ष में बीता। उन्हें शराब पीने और जुआ खेलने की लत थी। वह हमेशा क़र्ज़ में डूबे रहते थे। वैसे ही उनके किरदार भी अकेलेपन, पैसे की तंगी, शराब की लत से जूझते दिखते हैं। इस प्रकार वह रूस में उस समय के शासन में रह रहे निम्न मध्यवर्गीय लोगों की दुखद स्थिति को दर्ज करते थे।

यह उपन्यास क्यों पढ़ना चाहिए?

जिनको मनोवैज्ञानिक उपन्यास और अलग अपरंपरागत साहित्य पढ़ने में रुचि है, उन्हें इसे पढ़कर अच्छा लगेगा। इसमें काफ़ी नई शैली का इस्तेमाल हुआ है, जैसे कि वाचक का समय-समय पर पाठकों से बातें करना या प्रश्न करना। यहाँ एक और चीज़ है कि वाचक विश्वसनीय नहीं है, वह पूरी तरह से समय-समय पर अपनी ही बात का खंडन करता है।

यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ को अमितेश कुमार के सौजन्य से प्राप्त हुई है। यूनिवर्सिटी थिएटर, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्रों का रंग समूह है। दिव्या इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बीए द्वितीय वर्ष की छात्रा हैं।

1 Comments

  1. Anil lodipuri दिसम्बर 15, 2019 at 12:24 अपराह्न

    बहुत ही ज्ञानवर्धक लेख, बहुत अच्छा लगा। आभार!

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