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शंकर
से
सुव्रत सेन
बांग्ला से अनुवाद और प्रस्तुति : रामशंकर द्विवेदी

बांग्ला के यशस्वी लेखक और ‘चौरंगी’, ‘कत अजानारे’, ‘सीमाबद्ध’, ‘निवेदिता रिसर्च लेबोरेटरी’ सरीखे उपन्यासों से हिंदी में भी विपुल पाठक वर्ग बनाने वाले लेखक शंकर के जीवन-संघर्ष और साहित्यिक जीवन की कहानी आज किसी के लिए अनजानी नहीं है. लेकिन एक मनुष्य के रूप में हम शंकर को कितना जानते हैं? वह बराबर ही सभी चीजों के अच्छे पक्ष को ही देखते हैं. मणिशंकर का एक बहुत बड़ा गुण सामान्य मनुष्य के प्रति असीम संवेदना है. संभवतः सफलता के शिखर पर पहुंचने के बाद भी वह अपने जीवन-संघर्ष की कहानी भूलते नहीं हैं, इसीलिए उनके जीवन में यह सब संभव हो सका है. उन्हें कोई अहंकार नहीं है. वह सदा, सहज और सरल हैं, सभी के लिए सदा उनका दरवाजा खुला रहता है. घटनाबहुल जीवन और भावनाओं की बात जानने के लिए उनसे बातचीत की सुव्रत सेन ने.

[रामशंकर द्विवेदी]

मणिशंकर मुखोपाध्याय के साथ मेरा परिचय साल 1950 से है. वह उस समय ‘मूछ-पूंछ’ त्याग कर शंकर नहीं बने थे और मैं कलकत्ता मेडिकल कॉलेज का छात्र था. कॉलेज में वह हमारे एक सहपाठी के साथ स्कूल में पढ़ा करते थे. उसी सूत्र से उनसे मेरा परिचय हुआ था. 50 बरसों से भी अधिक समय से उनके सुख-दु:ख में उनके पास खड़े होने का सौभाग्य मुझे मिला हुआ है.

लड़कियों के विवाह, नाती के उपनयन अथवा हर वर्ष उनके जन्मदिन पर हम लोग उनके साथ रहते थे, और हैं. नवजात संतान और मां की बीमारी में पूरी रात अस्पताल में बिताकर भोर-बेला में फुटपाथ की दुकान पर चाय पी है. इन सबके माध्यम से मनुष्य मणिशंकर को अच्छी तरह जानने का मुझे सुयोग मिला है. वह सब चीजों का सदा अच्छा पक्ष ही देखते हैं. अधिकतर लोगों की धारणा है कि सरकारी ऑफिसों में कोई काम नहीं होता है, लेकिन मणिशंकर यह नहीं मानते हैं, उनके मत से सरकारी ऑफिसों में अधिकांश लोग काम करते हैं, और इसीलिए देश चल रहा है. मणिशंकर का और एक गुण है, और वह है मनुष्य के प्रति असीम संवेदना.

[सुव्रत सेन]

शंकर

अपने जन्म, माता-पिता, इस संबंध में कुछ बताएं.

मेरा जन्म 7 दिसंबर 1933 ईस्वी में वनग्राम में हुआ था, कहा जा सकता है ‘पाथेर पांचाली’ के देश में. विभूतिभूषण वंद्योपाध्याय यहीं रहते थे. पिता हरिपद मुखोपाध्याय, वनग्राम में वकालत करते थे. एक समय ऐसा था, जब वह विडन स्ट्रीट के कोहिनूर थिएटर के लिए नाटक लिखा करते थे. मेरी मां अभयारानी थीं. मेरे मामा का घर वनग्राम के उस पार नकफूल गांव में था. मेरे नाना क्षीरोद वंद्योपाध्याय ने मर्चेंट ऑफिस में एक अंग्रेज अफसर को थप्पड़ मार दिया था, इसलिए उन्होंने अपनी नौकरी खो दी थी. आर्थिक दृष्टि से वह परेशान हो गए थे. लड़कियों के खूब सुंदर होते हुए भी वह उनका अच्छे घर में विवाह नहीं कर सके थे. दूसरी पत्नी होने के कारण मेरी मां ने सारा जीवन अनेक तरह का कष्ट भोगा है, लेकिन उस कष्ट को हंस कर सहन करते हुए उन्होंने अपने अभया नाम को सार्थक किया.

आपके बचपन और स्कूल जीवन की कथा जानने की इच्छा हो रही है.

जब मैं एकदम छोटा था, उस समय बाबा अपने भाग्य को आजमाने, जीविका की खोज में वनग्राम से हावड़ा पोर्ट चले आए. यथासमय हम लोग भी चले आए. सबसे पहले मैं भर्ती हुआ हावड़ा जिला स्कूल में कक्षा तीन में. पड़ोस में रहने वाले पचूकाकू ने एडमीशन टेस्ट पास करा दिया था. 1942 में द्वितीय विश्वयुद्ध के समय भवन हाथ से निकल जाने के कारण काफी दिनों स्कूल बंद रहा, अफवाह फैल गई कि स्कूल हो सकता है अब न खुले. उस समय चौधुरी बागान में घर के पास खुरंट रोड पर विवेकानंद इंस्टीटयूशन में मैं भर्ती हो गया. पहले दिन से ही मुझे स्कूल के प्रधानाचार्य सुधांशु शेखर भट्टाचार्य का स्नेहाश्रय मिल गया, यही मेरे साहित्यिक जीवन और जीवन-संग्राम का मुख्य अवलंब था.

अविवाहित (अकृतदार) सुधांशु शेखर ने मुझे विवेकानंद और सत्साहित्य के संबंध में आग्रही बना दिया. उन्होंने मुझे सहज रूप से विचार करना सिखाया. उनकी बांग्ला रचना-भंगिमा आज भी मेरा आदर्श है. स्कूल के ऊंचे क्लास में और भी एक व्यक्ति मुझे सीनियर रूप में मिला, वह थे शंकरी प्रसाद बसु— मेरे साहित्यिक जीवन के आयोजक, संचालक और सूत्रधार. ऐसे दादा इस संसार में कितने लोगों को मिलते हैं?

लेखक बनने का सपना पहली बार कब देखा?

हांदूदा अर्थात हेडमास्टर महाशय ने यह मान ही लिया था कि मैं लेखक बनूंगा, लेकिन वैसा कोई लक्ष्य मेरा था ही नहीं. एक नाटककार होने में बाबा ने जीवन का एक बहुमूल्य समय नष्ट कर दिया था. उन्हें भय था कि कहीं वह बुरा नशा मुझे न लग जाए. वह चाहते थे कि मैं खूब मन लगाकर गणित के सवाल लगाऊं, यद्यपि गणित के भय ने ही मेरे छात्र जीवन को विष से भर दिया था.

मेरा पहला लेख पड़ोसी बादल काकू के कारण लिखा गया. उसका शीर्षक था ‘मैं क्या बनना चाहता हूं?’ बादल काकू ने मेरे दबाव में लिख दिया था — गंगा के घाट पर तेल मलते-मलते मर्चेंट ऑफिस के बड़े बाबू ने कहा — कलम के इस व्यवसाय से बंगाली जाति की कोई उन्नति नहीं होगी. उस समय इसका अर्थ किरानीगीरी अर्थात क्लर्की से लगाया जाता था, कभी भी यह नहीं सोचा था कि कलम का सहारा लेकर कोई जीवित रह सकता है.

दर्जा आठ में पढ़ते समय स्कूल मैगजीन में सबसे पहले लिखा. उस समय स्थानीय श्रमजीवी प्रतिष्ठान में नियमित रूप से चर्खा कातता था, यद्यपि सूत की क्वालिटी बेहद खराब थी, लेकिन छापे के अक्षरों में वही मेरे लेख का पहला विषय था.

यह तो… लेकिन लेखक होने के सपना कब देखा?

लेखक बनने का सपना तो बहुत बाद की बात है. दु:ख, दारिद्रय, अवहेलना, अपमान और एक अनोखे विदेशी को, बिना खर्च के सम्मान देने के कारण, मुझे एक लेखक की भूमिका में अवतीर्ण होने का दुस्साहस करना पड़ा. रचना प्रकाशित होने की कोई संभावना नहीं थी. जीवन के एक स्मरणीय अध्याय की कहानी पूरी तरह भूल जाने के पहले लिख डालने की व्याकुलता ही सबसे बड़ा लक्ष्य था. वह कथा लिपिबद्ध की है दो पुस्तकों में— ‘चरण छुएजाई’ (तीन खंड) और वारवेल साहब को लेकर दूसरी रचना है ‘अनेक दिन आगे’ (बहुत दिन पहले).

शुरुआती जीवन में बहुत कुछ छिपाने की इच्छा होती थी, अब आशंका होती है कि जो लिख कर न रख जाऊंगा उसे तो शीघ्र ही चिरदिनों के लिए खो दूंगा. जिनकी बात छिपाकर रखी है, वे भी आज दुनिया में नहीं हैं.

आपकी छोटी कहानियां असाधारण हैं, विशेषकर ‘एक, दो, तीन’. बाद में आपकी कहानियां हमें कम क्यों मिलने लगीं?

मेरे साहित्यक जीवन में गृहिणीपने का अभाव है. कोई अज्ञात शक्ति आत्मप्रकाश का कोई अन्य पथ न पाकर मुझे इस लाइन में खींच लाई थी. एक दिन नींद से उठ कर देखा कि मैं एक लेखक हूं. असल में अपने को प्रकाशित करने का अन्य कोई रास्ता मैं खोज नहीं पाया. अनेक शक्तिशाली व्यक्ति यह कहते हुए घूमने लगे कि शंकर ‘वन बुक राइटर’ है. इससे मुझे डर और कष्ट नहीं हुआ अगर मैं यह कहूं, तो यह मिथ्या भाषण होगा. तब ईश्वर के सामने क्षुब्ध होकर मैंने यही प्रार्थना की कि मुझे ‘वन बुक राइटर’ मत बनाना. साहित्य के लक्ष्य स्थान तक पहुंचने के लिए मेरे हाथ में कोई मानचित्र नहीं था, इसलिए जब जो दिमाग में आया उसी को प्रश्रय दे डाला. परिणाम यह हुआ कभी उपन्यास, कभी कहानी, कभी रम्यरचना, कभी भ्रमण-कहानी, कभी रस-रचना अथवा कभी महामानवों की जीवन-गाथा लिखता रहा हूं. ना, ना करते हुए भी सात-आठ सौ पन्नों की कहानी लिख डाली है, लेकिन उन्हें एक साथ प्रकाशित नहीं कर सका हूं. सोच-समझ कर, एक योजना बनाकर सृष्टि का पौध तैयार करना बहुत अच्छा है, लेकिन मेरे जैसे लोग जो अव्यवस्थित प्रकृति के होते हैं, वे लोग सुयोग्य होते हुए भी पाठकों और प्रियजनों की प्रत्याशा पूरी नहीं कर पाते हैं. जीवन के सांध्यान्ह में पहुंच कर यही मेरा दु:ख है, मुझे जो करना चाहिए था, मैं नहीं कर सका. तब भी छोटी कहानियों की तरफ मैं पुन: लौटना चाहता हूं, एकदम अपनी तरह से.

अनेक विषयों में आपने लिखा है, उपन्यास, कहानियां, हास्य कहानियां (पत्र-पात्री), घोड़े के गालब्लेडर के ऑपरेशन की कहानी, कॉरपोरेट संसार की कहानियां, रामकृष्ण-विवेकानंद की कथा. इतनी चीजों को पढ़ने का समय कैसे निकालते हैं?

हेडमास्टर मशाई और वारवेल साहब ने मुझे नाना विषयों में एक साथ अत्युत्साही होने की बुरी आदत लगा दी है. हांदूदा कहा करते थे, लेखक के मन के रस में डूब कर पत्थर का ढोका भी खजूर की तरह नरम हो जाता है. जन्मजात कथाकार की इसी में बहादुरी है. इस फंदे में पांव देने के बाद संसार के कठिन से कठिन व्यापारों को सहज बनाने के लिए मैंने कितनी निद्राहीन रातें बिताई हैं, उनका कोई हिसाब नही है. वारवेल साहब ने मुझे सिखाया था कि पूर्व मनीषियों के विचारों का अवगाहन करके भी किस तरह से अपने विचारों और व्यक्तित्व को अक्षुण्ण रखा जा सकता है. शंकरीदा (शंकरी प्रसाद बसु) ने मुझे सिखाया कि मनुष्य पर श्रद्धा करना और विवेकानंद ने मुझे जो फॉर्मूला दिया है, वह है, इतिवाचक हो जाओ, विधायक दृष्टिकोण रखो, पूरे समय नेति-नेति करते हुए अपने को निम्नगामी मत बनाओ. अनुगत होते हुए भी सदा अनुसरण करने की जरूरत नहीं है. यही श्रद्धा और विस्मय का मनोभाव लेकर हमारे कथा-साहित्य में, जिन विषयों की विश्वसनीय छवि नहीं है, उन्हीं सब विषयों को लिख डालने का लोभ मैं संभाल नहीं सका. यह वैचित्र्य ही मेरी शक्ति है और यही मेरी दुर्बलता भी है.

मेरा एक दु:ख और है, मरने के काफी दिन बाद किसी को लेकर खूब उत्साहित होकर उसे याद करने में हम बंगाली लोगों का कोई जवाब नहीं है, लेकिन हमारे बीच, हमारे समय में ऐसे सब मनुष्य सशरीर विद्यमान रहते हैं, जिनकी ओर हम देखते भी नहीं हैं. हमारा विद्वत समाज उदारतापूर्वक किसी जीवित व्यक्ति को कुछ देने में भीषण कृपणता का बर्ताव करता है, हम यह खयाल करते ही नहीं हैं कि इससे नुकसान समकालीनों का ही है. इसी दु:ख से प्रेरित होकर मैं किसी जीवित अथवा सद्य:प्रयास किसी विराट मनुष्य का पता चलते ही उल्लासित हो उठता हूं, इसी मनोभाव के कारण मैंने सागर पार गांव के योगी श्री चिन्मय के संबंध में लिखा है.

आपको लिखने की प्रेरणा किससे मिली?

एक नंबर देना होगा दु:ख के देवता को. दु:ख, अवहेलना और अपमान को भूलने के कारण लेखन की शुरुआत हुई. ‘कत अजानारे’ लिखते समय सर्वाधिक अवहेलना प्राप्त की ‘बंगाल चेंबर ऑफ कॉमर्स’ के अपने दो-एक सहकर्मियों से, उन्होंने इसकी पांडुलिपि पढ़ कर कहा था, ‘‘यह तो कुछ भी नहीं है.’’ सबसे अधिक मेरी मदद की थी शंकरी प्रसाद बसु ने. उन्होंने मुझे बचा लिया था गौर किशोर घोष तथा सागरमय घोष ने भी.

नए लेखकों से मेरा कहना है, खबरदार किसी जाने-माने लेखक को अपनी पांडुलिपि कभी पढ़ने को मत दो. ‘familiarity breeds contempt’ (अत्यधिक नजदीकी से अवहेलना पैदा होती है) कहावत जरा भी झूठ नहीं है.

पहली पुस्तक ‘कत अजानारे’ (कितने अनजाने रे) का नामकरण किसने किया था?

पहली पुस्तक का नामकरण सहजता से नहीं हुआ था. ‘देश’ पत्रिका में जब यह पुस्तक धारावाहिक निकल रही थी, तब हर किस्त के अलग-अलग नाम होते थे. अंत में मेरा उद्धार किया नामों के राजा प्रेमेंद्र मित्र ने. उन्होंने ही स्नेहपूर्वक इसका नाम रखा— ‘कत अजानारे’… इसी नाम से अंतिम किस्त निकली थी ‘देश’ पत्रिका में साल 1955 में.

मणिशंकर से शंकर कैसे हो गए?

अपने पूरे नाम के प्रयोग में बड़ी द्विविधा थी, कारण एक कानूनविद् के चेंबर में बैठ कर, जिन लोगों को देखने का सुयोग मिला, उनका परिचय उजागर हो, यह उचित नहीं था. पूरा नाम तो हमेशा एक शुभंकर नाम होता है, घर में तो सभी लोग मुझे शंकर ही कहते थे, वारवेल साहब ने भी कर्म क्षेत्र में मेरा यही नाम चालू कर दिया था. बाद में तो मेरा पूरा नाम लौट आए इसकी सुविधा ही नहीं मिली. दिल्ली में एक बार मुझसे पूछा गया था कि मणिशंकर मुखर्जी शंकर कैसे हो गया. आत्मरक्षा के लिए मैंने उत्तर दिया था, कलकत्ता के कटी मछली के बाजार में पूंछ और मुंड की कीमत बहुत कम है, सबसे कीमती चीज मैंने अपने पाठक-पाठिकाओं को देनी चाही है.

स्मरणीय उपन्यास ‘निवेदिता रिसर्च लेबोरेटरी’ उपन्यास के पीछे क्या कोई कहानी है?

वह एक बहुत बड़ी कहानी है. बांग्ला साहित्य में विज्ञान को गंभीर स्थान देना चाहिए, यही बाजी लगाकर यह उपन्यास लिखा गया है. नेशनल लाइब्रेरी में लगातार तीन दिन की साधना से, ‘महाभारत’ से, अंत में किस तरह यह कहानी मिली… उसका विवरण किसी समय दिया जा सकता है. साहित्य का सहारा होता है, बांस के ढोले की तरह, घर बनने के बाद जैसे उसे अलग फेंक देना होता है, इस उपन्यास में भी ‘महाभारत’ को उसी तरह सम्मानपूर्वक अलग कर देना पड़ा है.

मनीषियों की जीवन-कथा और उनके संस्मरण लिखने की एक नई विधा लक्षित की जा सकती है ‘चरण छुएजाई’ पुस्तक में. इस विषय पर आप कुछ कहना चाहते हैं?

‘चरण छुएजाई’ पुस्तक को इतना विपुल समर्थन पाठकों का मिलेगा, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती है. एक बात स्पष्ट है, दुनिया की सारी भक्ति, श्रद्धा आज भी रद्दी की टोकरी में नहीं फेंकी जा सकती है. इस पुस्तक में मेरे नितांत अपने जनों में विशेषकर मेरी मां और हेडमास्टर मशाई आ गए हैं, और भी कई आ गए हैं, चलते-चलते देखे हुए अनेक चरित्र. इनमें से कोई विख्यात है, कोई मामूली व्यक्ति है, लेकिन प्रयास करने के बाद भी मैं उन्हें भूल नहीं सका हूं. इस पुस्तक का तीसरा खंड निकल गया है, अर्थात हजार पन्ने लिख डाले गए. अगर मेरी इस रचना को पाठक अस्वीकार कर देते तो मुझे बड़ा कष्ट होता. लेकिन यथासमय, यथास्थान पर तारीफ भेजने में बंगाली पाठक-पाठिकाएं कभी भूल नहीं करते हैं .

आपके लेखक-जीवन पर क्या कुछ आक्षेप लगाए गए हैं?

मनुष्य मात्र पर ही आक्षेप लगाए जाते हैं. संवाद-पत्रों के नामी-गिरामी लोगों ने, नाक-भौंह सिकोड़ी थी, एक वकील का मुंशी-आखिर क्या लिखेगा? बहुपठित हो सका हूं, इस अपराध में काफी कुछ सजा भी मिली थी. जो सब समझ लें और समझ कर आनंदित हों, ऐसी रचनाओं को साहित्य नहीं कहा जा सकता है. कभी-कभी यह भी सुनने को मिला है कि पहले की पुस्तक तो अच्छी लिखी थी, लेकिन इस समय जो लिख रहे हैं वह अपाठ्य है.

हेडमास्टर मशाई कहा करते थे, सभी की बातें ध्यान देकर सुनोगे, लेकिन स्वयं जिसे अच्छा समझोगे, अंत में वही करोगे. अब आक्षेप बुरी तरह कम हो गए हैं. लगता है कि समकाल जितना दुलार करता है, वैसे ही अवज्ञा अथवा शासन भी कर सकता है. इसे जो सहन न कर पाए, उनके लिए लेखन की लाइन नहीं है. जो खुलेआम चीख कर कहते हैं कि मुझे अमुक चीज मिलनी चाहिए थी, लेकिन मिली नहीं, वे लगता है मूर्खता करते हैं.

मेरी मां कहा करती थी, जो चीज स्वयं तुम्हें न मिली हो, वह चीज तुम दूसरों को दोगे.

जिन सब लेखकों को आपने देखा है, उनके बारे में कुछ कहेंगे?

जिस भाषा में पच्चीस करोड़ लोग बात करते हों, उसका साहित्य कभी अनुर्वर नहीं रह सकता है. नए युग के नए लेखक ही तो हमारा मुख उज्ज्वल करेंगे. फिर भी साहित्य के पूर्ण कुंभ में मृत देवताओं का भी तो बोध रहता है, इसीलिए हमारे साहित्य में जिनका आज भी प्रबल प्रताप है, उनमें से अनेक आज इस संसार में नहीं हैं. नए युग में एक ही चिंता है, बांग्ला लेखक अपने प्राप्य सम्मान से वंचित हो रहे हैं. जनंसचार माध्यम, अगर आप अंग्रेजी में न लिखें अथवा साहबों की स्वीकृति न हो, तो वे लेखक को छापना नहीं चाहते हैं. सत्यजित राय कहा करते थे कि क्रिएटिव लोग थोड़ी तारीफ चाहते हैं. विमल मित्र दु:ख प्रकट किया करते थे, लिखना होता है होलटाइम इन्श्योरेंस पॉलिसी, मरने के पहले कितनी रकम मिलेगी, इसका हिसाब पाना संभव नहीं है. मरने के बाद जो लेखक बचता नहीं है, वह फिर लेखक कैसा? इसके साथ विमल मित्र यह भी कहा करते थे कि गांव के खेतों में भूमिहीन मजदूरों को जो कुछ मिलता है, वह है दैनंदिन खुराक. अगर खुराक ही न मिले तो लेखक जीवित कैसे रहेगा. नगद विदाई के इस युग में बांग्ला के लेखक को उदास वदन खड़े देखकर मानसिक पीड़ा हो ही सकती है. नए युग के साहित्यिक यात्रियों से मैं सिर्फ यही कह सकता हूं कि सप्त जन्मों की तपस्या करने के बाद बांग्ला का लेखक हुआ जा सकता है. इस तरह का रसिक पाठक समाज पाना सचमुच में बड़े भाग्य की बात है.

किसी पत्रिका के संपादन का लोभ कभी नहीं हुआ?

संपादक होने का वैसा भाग्य नहीं हुआ. श्रद्धेय सागरमय घोष ने एक बार ‘देश’ पत्रिका में योग देने का सुअवसर दिया था, लेकिन मेरा साहस नहीं हुआ. अपनी लेखक-सत्ता को अक्षुण्ण रखते हुए संपादक होना बड़ा कठिन काम है. फिर भी बताए दे रहा हूं, नितांत अपरिपक्व उम्र में एक पत्रिका निकाली थी, उसमें संपादक का पता था हावड़ा मैदान. डाक टिकट बिना लाए संपादक से भेंट नहीं होगी… उसमें ऐसी घोषणा भी की थी. एक अंक के साथ ही इस पैम्फलेट पत्रिका का अंत हो गया था.

वर्तमान पीढ़ी की पुस्तक पढ़ने की आदत के बारे में आपका क्या मत है?

वर्तमान पीढ़ी पढ़ती नहीं है, यह सच नहीं है. यहां के ‘डेली पेपर’ तो एक-एक पुस्तक की तरह हैं. वे असंख्य पत्रिकाएं भी पढ़ रहे हैं. इस पार के बांग्ला समाचार पत्रों का दैनिक सरकुलेशन यदि 25 लाख है, तो वह आखिकर जा कहां रहा है? इधर के बांग्ला प्रकाशन का व्यवसाय यदि जाली पुस्तकों से न भरा होता, तो आज भी बांग्ला के लेखकगण सिर ऊंचा करके घूम सकते थे. वहां के बड़े-बड़े जाली प्रकाशक नहीं जानते हैं कि वे बांग्ला भाषा और साहित्य की कैसी क्षति कर रहे हैं. पाठकों का एक दल और है, जिन्हें आज का बांग्ला साहित्य तृप्ति नहीं दे पा रहा है. जिस पुस्तक से उन्हें तृप्ति मिले, वह पुस्तक वे अवश्य पढ़ेंगे. जबरदस्ती अथवा भिक्षा मांग कर साहित्य अथवा साहित्यकार को बचाए रखना उचित नहीं है. याद रखना, युग के प्रयोजन को समझकर साहित्य-सृष्टि करने में बंगाली लेखक किसी भी युग में असफल नहीं रहे हैं.

किसी एक विषय पर आप अधिक दिनों तक नहीं लिखते हैं, बार-बार आप विषय-परिवर्तन करते रहते हैं, इसका कारण क्या है?

असल में मेरे स्वभाव में एक तरह की अस्थिरता है. बीच-बीच में मैं विषय बदलने के लिए व्याकुल हो जाता हूं. विमल मित्र इस बात को पसंद नहीं करते थे, कहा करते थे, जो व्यक्ति संदेश बनाता है, वह जीवन भर संदेश ही बनाता रहता है, रथयात्रा के दिन नकुड़ नंदी, लहिया-पकौड़ी की दुकान खोलता नहीं है. तर्क की दृष्टि से कहा जा सकता है कि कितने जीव ऐसे होते हैं जो बीच-बीच में अपनी केंचुल बदलते रहते हैं, वे परिवर्तन को बुला लेते हैं, कितने ही वृक्ष पुराने पत्तों को त्याग कर नए पत्तों को आने का अवसर दे देते हैं. असल में है क्या, जिसका जैसा स्वभाव हो.

लिखने की प्रेरणा क्या आज भी मिलती रहती है?

अपनी पहली पुस्तक ‘कत अजानारे’ प्रकाशित होने के बाद पहला अवसर मिलते ही एक प्रति डाक द्वारा अन्नदाशंकर राय को भेजी थी. शांतिनिकेतन से उन्होंने अवसर मिलते ही आशीर्वाद भेजा था. उन्होंने लिखा था कि आपकी पहली सफलता ईश्वर करे जीवन की अंतिम सफलता न हो… यह तो 1955 की बात है. आगे चलकर देखा है, शरदेंदु बंधोपाध्याय, विमल मित्र, ताराशंकर सभी कलम हाथ में लेकर ही चले जाना चाहते हैं. परम करुणामय ईश्वर ने उनकी इच्छा पूरी की. कम आयु में प्राय: भय होता था, कितना और लिख सकूंगा? यदि एक दिन विषयों का भंडार चुक जाए तो फिर क्या करूंगा. शंकरीदा कहा करते थे, जो लिखने बैठे हो, उसी में यथासंभव अपना पूरा सर्वस्व ढालने में कभी देर मत करना, बाद में क्या होगा इसे बाद में सोचा जाएगा. जीवन के संध्यान्ह में आकर देख रहा हूं, मां सरस्वती की अगर दया बनी रही तो विषयों का कोई अभाव नहीं होगा. इसीलिए इस क्षण मेरे सामने विषयों की कोई कमी नहीं है. ‘अंचना श्री चिन्मय’ के बाद ही जिस रचना को मुझे शेष करना होगा, वह है, ‘अविश्वास विवेकानंद’. इस व्यक्ति का जीवन नाटक से भी नाटकीय और उपन्यास से भी अचिंतनीय, उसे हृदयंगम करने में मेरा बहुत समय लग गया था, लेकिन उसके लिए आज मुझे कोई दु:ख नहीं है. एक पुस्तक लिखकर जो मिला उसे एकमात्र बंगाली पाठक ही किसी लेखक को दे सकते हैं. मेरा लेखक-जीवन सार्थक हो गया.

पूरे जीवन इतने तरह के काम, लिखना किस तरह से संभाल पाए?

जीवन में कभी छुट्टी नहीं मिली. बाबा की अकाल मृत्यु के बाद उसी चौदह वर्ष की उम्र से उपार्जन के संग्राम में उतर गया था. उसके बाद पूरे जीवन दो नावों में पैर रख कर जीवन-समुद्र में बहता रहा हूं. बीच-बीच में कुछ दिन की छुट्टी लेने का लालच होता था, लेकिन जिनकी नौकरी पक्की नहीं होती है, वे लोग छुट्टी का आवेदन नहीं कर पाते हैं. इस वजह से दु:खी होने का भी अवसर नहीं है, और भी दो-तीन बड़े-बड़े विषय मेरे लेखक के मन में जड़ जमा कर बैठे हुए हैं. लगता है कि उन कामों को पूरा किए बिना छुट्टी पर जाने का कोई अर्थ नहीं है. इन्हीं कामों के बीच जब थकान आती है, कष्ट होता है, तब उसी कौए की कहानी याद आ जाती है, गले में गाव (फल विशेष) अटक जाने के बाद उसने कहा था, अब गाव कभी नहीं खाऊंगा, न गाव पेड़ के नीचे जाऊंगा. लेकिन उसी कौए ने गाव की गुठली नीचे उतर जाने के बाद सारी यंत्रणा भूलकर कहा था, गाव अगर नहीं खाऊंगा तो खाऊंगा क्या? गाव जैसी चीज और है क्या?

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[ यह साक्षात्कार साल 2009 में ‘बोइएर देश’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ था. सुव्रत सेन ‘देश’ पत्रिका के संपादकीय विभाग से संबद्ध हैं. रामशंकर द्विवेदी ने बांग्ला से हिंदी में अनेक अनुवाद किए हैं. अभी उनकी पुस्तक ‘भगिनी निवेदिता के चुने हुए पत्र’ प्रकाशित हुई है. वह उरई (उत्तर प्रदेश) में रहते हैं. उनसे rn_dwivedi@yahoo.co.in पर बात की जा सकती है. यह प्रस्तुति प्रियंवद द्वारा संपादित ‘अकार’ के 49वें अंक में पूर्व-प्रकाशित है और यहां वहीं से साभार है.]

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