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व्योमेश शुक्ल
से
अविनाश मिश्र

व्योमेश शुक्ल

‘मेरी अपेक्षाएँ ख़ुद से बहुत ज़्यादा हैं’

‘जस्ट टियर्स’आपके दूसरे कविता-संग्रह ‘काजल लगाना भूलना’ की पहली कविता है। क्या वह अंतिम कविता भी हो सकती थी?

हाँ। हो सकती थी। उसमें अंतर्वस्तु ज़्यादा है। प्रासंगिकता का दबाव भी ज़्यादा है। वह ज़्यादा समकालीन कविता है। उसकी वजह से संग्रह का नाम ‘जस्ट टियर्स और अन्य कविताएँ’ होते-होते बचा। उसमें मेरे कवि-व्यक्तित्व को ज़्यादा अनुभव किया जा सकता है। मेरी मृत्यु के बाद या उसके कुछ पहले, अगर आप मेरी प्रतिनिधि कविताओं का चयन करेंगे तो मुझे पता है कि वहाँ भी वह होगी। ये बातें मुझे उससे दूर करने के लिये पर्याप्त हैं। मैं उससे बचना चाहता हूँ।

विनोद कुमार शुक्ल ‘जस्ट टियर्स’ में बहुत हैं, उनका नाम भी बहुत है; लेकिन उसमें ‘अन्य कहानियाँ’ वाले देवी प्रसाद मिश्र भी हैं क्या, नाम न सही?

देवी प्रसाद मिश्र मुझमें बहुत हैं। उनकी कविता में ज़बर्दस्त अनंतता है। मैं उसी को इम्प्रोवाइज़ करने लग जाता हूँ। रोज़ उनकी याद आती है। लेकिन यह पितृव्यता नहीं है; सहोदरत्व है। जैसे हम एक ही गर्भ से निकले हों। उनका नाम न आना या विनोद कुमार शुक्ल का नाम कई बार आना—दोनों—एक ही बात है। फिर भी, विनोद कुमार शुक्ल पूर्वज हैं। मैंने उन्हें भी अपने ख़ून में खोजा है। इन दोनों से साथ-साथ असरंदाज़ हो पाना बहुत मुश्किल है। विष्णु खरे कहते थे कि इन्हें प्यार करने के लिए बड़ी इंटेलेक्चुअल हैसियत चाहिए।

यह जो ‘तब से कुछ नहीं कहना है’ यह क्यों है?

कभी-कभी कविता आपकी नियति बन जाती है। यह पंक्ति कुछ-कुछ मुझ पर लागू हो गई। मैं किंचित चुप हो गया। 2004 से 2009 के बीच, बहुत ज़्यादा साहित्य से मैं ऊब भी गया था। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि अक्षरशः तब से मैंने कुछ नहीं कहा है। कुछ नहीं कहने के नियम के अपवाद की तरह बीच-बीच में मैं कुछ कहता भी रहा हूँ।

वह शासक तब एक राज्य का था, अब पूरे मुल्क का है, तब कविता आपसे छूटी क्यों… क्या प्रतिरोध और रोष और क्षुब्धताओं को कहने में विचार की या भाषा की या शैली की कोई बाधा थी?

रघुवीर सहाय कह गए हैं कि अगर हम विरोध ही करते रहेंगे तो रचना कब करेंगे। मुझे महज़ प्रतिरोध, रोष और क्षोभ ही नहीं कहना था। मुझे प्रेम, सुंदरता, शील, अतीत, बनारस, आदत, रोग, शोक, जरा और मरण भी बताना था। मेरी अपेक्षाएँ ख़ुद से बहुत ज़्यादा हैं। ऐसी अपेक्षाओं का वज़न उठाए-उठाए मैं थक गया था। मैं तितली के पंख जैसा निर्भार और स्वस्थ हो जाना चाहता था। मोहन राकेश वाले कालिदास के मुहावरे में कहें तो मैं अथ से आरंभ करना चाहता था। मुझे शुरू से शुरुआत करना पसंद है—एक मीडियाकर की तरह। नाटक बचपन का शौक़ था जिसमें बहुत आमंत्रण और चैलेंज था। नाटक में एक अनूठी स्थानीयता भी होती है, जो बहुत पसंद है। मुझे यह भी लगता था कि नाटक और कविता अलग-अलग नहीं हैं। यह राज़ तो धीरे-धीरे खुला कि फ़िलहाल, भारत में, दोनों दो अलग-अलग संसार हैं।

आपने नरेंद्र मोदी को अपनी कविताओं में नाम से पुकारा है, लेकिन 2014 से पहले… अब क्या भय लगता है?

मुझे नरेंद्र मोदी से बहुत डर लगता है। इस निज़ाम में, रोज़ आशंका होती है कि कहीं जेल न चला जाऊँ, कहीं मेरा रंगसमूह दाने-दाने को मोहताज न हो जाए, कहीं मैं मनहूस, विक्षिप्त और मनोरोगी न हो जाऊँ आदि। दरअसल, हिंदी कविता की मैसिव वामपंथी मुख्यधारा बहुत-सी अच्छी बातों के साथ-साथ आपको दुश्मन का डेमोनाइज़ेशन करना भी सिखाती है। मैं इस दुष्चक्र में फँस गया। मैंने एक नाराज़ उत्साह में दुश्मन का घनघोर अतिपाठ किया और उसी से डर गया। हिंदी के लोग बेहतर जानते हैं, 2014 के आम चुनावों में सांप्रदायिक ताक़तों के ख़िलाफ़ जो अभियान बनारस से शुरू हुआ, मैं उसका नाभिक था। सारे सूत्र मेरे हाथ में थे और सभी साथियों का मुझ पर भरोसा था; जो मेरे ख़याल से, अब भी है। हम लोगों ने बड़ी-बड़ी सभाएँ कीं, नारे लगाए, पूरी-पूरी रात जागे और ज्यां द्रेज़, तीस्ता सीतलवाड, शबनम हाशमी, अनुष्का रिज़वी, रीतिका खेड़ा, विष्णु खरे, काशीनाथ सिंह, विभूति नारायण राय, अवधेश प्रधान, प्रणय कृष्ण, चौथीराम यादव, बलिराज पाण्डेय जैसे बहुत से लेखक-संस्कृतिकर्मियों और सभी लेखक-संगठनों और सभी एनजीओ’स को अपनी ओर इकट्ठा कर लिया। यह विचित्र बात है कि तब विष्णु खरे ने सिर्फ़ मेरे कहने पर, सांप्रदायिक शक्तियों को परास्त करने के लिए, कांग्रेस के मंचों से अनेक भाषण दिए। ऐसी सभाओं में कांग्रेस के अनेक केंद्रीय मंत्री और दूसरे बड़े नेता उन्हें ऐसे तकते थे, जैसे वह किसी और ग्रह से आए हों। ख़ुद उनके जीवन में इस क़िस्म का यह पहला अवसर था और नर्वस होने पर हम लोग उनका मनोबल बढ़ाया करते थे। हम लोग क़तई कांग्रेस के ग़ुलाम न थे—न तब, न आज; लेकिन यह भी तय है, तब भी तय था, कि कांग्रेस भाजपा से कम बुरी है। हम पता नहीं कौन-सी नैतिकता में यह सब करते रहे; जबकि अभिन्नतम मित्र और सहचर-रचनाकार-दोस्त इन हरकतों के लिए फ़ेसबुक आदि पर हमारा मज़ाक़ भी उड़ाते रहे।

चुनाव नतीजों के बाद सभी दोस्त निराशा में डूब गए और मैं अपने हिस्से के अवसाद के साथ नाटकों के पूर्वाभ्यास में लग गया। ठीक है कि इस बीच हमारे नाटकों को मंचन के अवसर मिले, लेकिन उसका कारण ज़्यादातर नाटकों की गुणवत्ता है; कभी-कभी ‘रामायण’ की अंतर्वस्तु भी। यों, मैं तरह-तरह के मंचों पर जाकर नाटक करने की वजह से निंदित भी हुआ हूँ; लेकिन सारी निंदाएँ सरमाथे।

रंगकर्म की तरफ़ जाते हुए कविता कितनी साथ और याद आती है?

रंगकर्म में मैंने अपने कम से कम दो कविता-संग्रहों की ऊर्जा लगा दी। बहुत दूर तक कुछ लोग इस बात को समझ भी रहे थे। नीलाक्षी सिंह, चंदन पांडेय और आपने उन नाटकों पर लिखा। अशोक वाजपेयी, दिनेश कुमार शुक्ल और दूसरे कई बुज़ुर्ग लेखकों की लिखित या मौखिक अनुशंसाएँ साथ थीं।

ज़िंदगी के वज़न पर कविता लिखने की अनिवार्य दिक़्क़त यह भी है कि कविता के तर्क से जीवन जीना पड़ता है। मैं इसी हल्लाबोल सिद्धांत के दम पर नाटक की दुनिया में घुसा, लेकिन वहाँ भी सूक्ष्मता और गहराई में प्रवेश तो करना ही था। जो होना था, वह हुआ। जो नहीं होना था, वह भी हुआ; लेकिन हिंदी सुनने-समझने वाली बड़ी दुनिया ने बहुत प्यार और सम्मान दिया; चाहे नाटक हो या कविता। दोनों ही संसारों ने तुरत मान्यता दी। लोग मूल्यांकन के अभाव पर विलाप करते हैं। मैं कविता, आलोचना और नाटक—तीनों क्षेत्रों में अधिमूल्यन का शिकार हूँ। अक्सर, अतिरिक्त सराहना से मेरा मन बहुत बढ़ जाता रहा है। मतभेद अलग हैं; और वे भी अंततः आपको ज़रूरी ही बनाते जाते हैं। यह ऐसा क़र्ज़ है जो कभी चुका न सकूँगा।

आलोचना से कैसा रिश्ता है और उसकी अब कितनी ज़रूरत है? जब हमारी आलोचना के नायक नहीं रहे?

आलोचना का हाल बुरा है। कानाफूसी और अन्यथाकरण ने बहुत ज़्यादा जगह घेर ली है। उत्कृष्ट आलोचना के अभाव में बेस्ट सेलर सर्वेक्षणों, आभासी माध्यमों के हिट्स और लाइक्स ने एक अलग राह चला दी है। चाहे-अनचाहे हम सब लोग इसमें शामिल हैं। बड़े संस्थानों ने भी आलोचना की मदद नहीं की। आलोचना को गाली देना भी रिवाज़ है, जिससे साहस और प्रतिभा का क्षय हो गया है। सबसे शानदार आलोचक अकेले और निहत्थे हैं। दरअसल, आलोचना नई कविता के ज़माने से आज तक, इलियट के शब्दों में ‘समवेत प्रयास’ है। आलोचना को माहौल चाहिए, जो बातचीत से बनता है। हमने वह माहौल बनते और बिगड़ते देखा है। ज़्यादातर कवि आलोचना-प्रक्रिया में शामिल नहीं होते और उसे चिढ़कर पुकारते हैं। आलोचना के साथ भी अपनी विवशताएँ हैं। वह कभी भी यह नहीं मान सकती कि वह अनिवार्य है—ऐसा मानना उसकी अपनी नैतिकता के ख़िलाफ़ है; और यह समय ऐसा है कि अगर कोई ख़ुद से अपनी वकालत न करे तो उसके पक्ष में एक कुत्ता भी भौंकने को तैयार न होगा।

बहरहाल, आलोचना जितनी कम है, उतनी ही ज़्यादा उसकी ज़रूरत है। मेरा भी आलोचना में बहुत मन लगता रहा है और मेरी रीडिंग लिस्ट में आलोचना-पुस्तकें ही अधिकांशतः रहती आई हैं। अंततः इस तर्कातीत, असंयत और मतवाले लोकप्रियता-विमर्श को प्रतिरोध आलोचना से ही दिया जा सकता है।

लगभग बारह बरस बाद आए आपके इस दूसरे कविता-संग्रह को क्या कविता में आपकी वापसी की तरह भी पढ़ा जा सकता है? क्या कविता अब आपकी प्राथमिकता होगी? हालाँकि कविता-संग्रह या कविताएँ देर से आना, यहाँ प्रश्न नहीं है, कविता में बने रहना है।

‘कविता में वापसी’ में ‘कविता की वापसी’ की बहुत ज़्यादा अनुगूँज है। मैं कई बार कविता की वस्तु जेब में रखकर भूल जाता रहा हूँ। इसके बाद जब लिखने बैठो तो कुछ है ही नहीं। हर बार ख़ुद को शून्य से शुरू करता देखना। यह भी एक तरह का अमर्ष है, एक प्रकार का वृथा अभिमान ही है। लेकिन कविता लगातार साथ रहती है, इसका यक़ीन है।

सौ से भी कम पन्नों वाली कविताओं की आपकी दूसरी किताब में बहुत सारी जगह ख़ाली दिखाई देती है। मैंने इस संग्रह को पढ़ते हुए, इन्हें भी पढ़ने की कोशिश की। मुझे ये जगहें आपके पहले कविता-संग्रह ‘फिर भी कुछ लोग’ के बाद बनीं वे जगहें लगती हैं, जिनमें आप कविता नहीं लिख पाए, लेकिन आपने उन्हें भी इस दरमियान संभव हुई कविताओं के साथ संग्रहीत कर लिया है।

ख़ाली जगह को आपने बहुत ख़ूबसूरती से पढ़ा है। मैं इस बारे में ज़्यादा क्या कहूँ। अपनी ही काव्य-दृष्टि का डिफ़ेंस करना कुछ अश्लील तो है। लिखते समय यह ध्यान नहीं रहा था कि पुस्तक रूप में प्रकाशित होने पर इनका स्वरूप कैसा होगा? वह पाठ भी जायज़ है कि इन कविताओं में पिछले संग्रह की कविताओं के बाद की ख़ाली जगहें भी शामिल हैं; अन्यथा उन जगहों में कविता होती।

व्योमेश शुक्ल हिंदी के सुपरिचित कवि-आलोचक और रंगकर्मी हैं। इस बार के विश्व पुस्तक मेले में एक साथ उनकी दो किताबें ‘काजल लगाना भूलना’ (कविता-संग्रह) और ‘कठिन का अखाड़ेबाज़ और अन्य निबंध’ राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई हैं। यह बातचीत उनसे ई-मेल के ज़रिए मुमकिन हुई है।

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