नाटक ::
चंदन कुमार

चंदन कुमार

कनॉट प्लेस

मशहूर अभिनेता ओम पुरी की स्मृति को समर्पित

पात्र

मीनू : 18 वर्ष
आदित्य : 25 वर्ष

स्थान ׃ कनॉट प्लेस
समय : रात्रि, 1:30

लगभग आधी रात हो चुकी है। लड़के के पास एक बैग है, जिससे पता चलता है कि वह कहीं बाहर से आया है। वह पास में ही स्थित पार्क की बेंच पर बैठा है, जहाँ हल्की मद्धिम रोशनी प्रकाश के खंभों से आ रही है। बीच-बीच में गाड़ियों की रोशनी आकर कभी-कभी उस बेंच पर पड़ती है। लड़का सिगरेट के पैकेट से निकाल-निकालकर बराबर सिगरेट पी रहा है। मोबाइल पर बात करते हुए, वह कुछ परेशान-सा है।

आदित्य : तुम आ रही हो या नहीं? मैं आ चुका हूँ। हाँ, रॉयल चैम्बर्स से आगे वाली दुकान के सामने। तुम…तुम…हैंऽऽऽ साफ़-साफ़ क्यों नहीं बतातीं कि क्या चाहती हो? तुम्हारा लफ़ड़ा क्या है यार? साढ़े सात से यहाँ पड़ा हूँ। तुम्हारी ही प्लानिंग थी सब…हैलो… हैलो…

फ़ोन कट जाता है। वह बात करने से आई आवतंरता को भंग करने के लिए फिर सिगरेट सुलगा लेता है। सिगरेट का कश खींचते−खींचते बार उसका ध्यान मोबाइल पर जाता है। पर कोई रिंग नहीं जाती, वह उठकर बाहर विंग्स में चला जाता है। एक आइसक्रीम लाता है और बैठकर बहुत इत्मीनान से खाता हुआ अपनी घड़ी और मोबाइल देखता रहता है, जिससे लगे कि वह और इंतज़ार नहीं कर सकता। कुछ पल तक ख़ामोशी छाई रहती है। वह पुनः रिंग करता है।

लड़की (दूसरी तरफ़ से) मोबाइल स्पीकर पर है।

लड़की : हैलो आदित्य मैं नहीं आ सकती, रात हो चुकी है…माफ़ कर दो मुझे…मैंने तुम्हें वेट करवाया…रियली आई एम सॉरी यार…हो सके तो वापस चले जाना।

आदित्य : मीनू मैं घर से भागकर आया हूँ। सबसे लड़ाई हो गई यार। बरेली से यहाँ तक—बस तुम्हारे लिए। मैं केवल आइसक्रीम खाने नहीं आया हूँ। बार-बार तुम्हीं मैसेज करती थीं। माँ से झगड़ा तक किया। (वह आइसक्रीम फेंकता है) हट साला! मैं चूतिया बन गया।

लड़की ׃ मैं कभी भी तुमसे नहीं मिली, फ़ेसबुक पर देखा भर है। केवल कुछ बातें…बस…और आधी रात में…कनॉट प्लेस…मैं नहीं आ सकती। रियली आई ट्रस्ट यू, बट सॉरी यार…दिल्ली बहुत सेंसेटिव हो गया है—लड़कियों के मामले में सेंसेटिव…रेप…और…

आदित्य : तो…मैं…सुनो…मैं कल तक रुक सकता हूँ। कल आ जाओ…तुम…तुम्हीं…तुमने ही तो कहा था कि अकेली हूँ। मेरे इमोशन की कोई केयर नहीं करता…अब?

लड़की ׃ हाँ सो तो है, पर क्या करूँ? रात है यार, मैं पंजाबी बाग में हूँ…नहीं…नहीं…कल देखती हूँ…बाय…गुड नाइट।

आदित्य : (ग़ुस्से में) भैंचो…(मोबाइल ज़मीन पर पटकता है) शिट! अपना राग अलापे जा रही है। फ़ेथ ही नहीं साली को। फ़ेसबुक पर क्या-क्या लिखती है? जान आ जाओ! देखने का मन है, मेरा दिल नहीं लगता! इस बार भी एग्ज़ाम ठीक नहीं गया…तुम जो नहीं थे। कब तक चैट ही चलता रहेगा…? घंटा! भैन्चो! हवा में बातें। मिलना ही नहीं चाहती। मैं रेप करने दिल्ली आऊँगा? कमअक्ल! खेल गई मेरे साथ…(ग़ुस्से में बैग खोलता है—लड़कियों का पर्स, नेलपॉलिश, लिपस्टिक, दिल का छोटा-सा पीस, रिंग और ब्रा निकलता है) ये सब है…लो…लो…(पैरों के नीचे कुचल देता है) लो…सारा मामला ही ख़त्म करता हूँ…लो…तेरे चक्कर में एक और मजनूँ पागल हुआ। हूँह।

सारा कुछ फेंकने के बाद वह शांत और स्तब्ध है। सिगरेट सुलगा लेता है। धीरे-धीरे सिगरेट पीते हुए विंग्स से जाकर जल्दी से दारू पी…तभी वहाँ लगभग 18 वर्ष की उम्र की एक लड़की जो चेहरे से भीख माँगने वाली है, ज़ोरदार मेक-अप किए हुए उसके सामने आ जाती है। उसके हाथों में दारू की बोतल है। आदित्य की आँखें आँसुओं से भरी हैं। वह सुबक रहा है। लड़की आकर उसका एकांत भंग करती है, लड़की का नाम मीनू है।

मीनू : बाबू जी कुछ खाने को…अँ…(वह खाने का इशारा करती है।)

आदित्य : उसे एकटक घूरे जा रहा है।

मीनू : दे दो न कुछ। बाबू…(फिर खाने का इशारा…)

आदित्य : चुपचाप शिथिल बैठा है, और आँसुओं को पोछ रहा है।

मीनू : बाबा…कुछ दे न…भगवान तेरी सुन लेगा…इस ग़रीब को…कुछ तो दे दो।

आदित्य : भगवान तेरी सुनता होगा। मैं तो आज तक सिर्फ़ भगवान की सुनता रहा हूँ।

मीनू : (हँसती है) दे ना…तब तो तेरी सुनेगा ऊपर वाला…दे…दे…देना।

आदित्य : मेरे पास कुछ नहीं है, सिवा उदासी के…और तुझे तो पैसे चाहिए होंगे। पैसे हैं नहीं मेरे पास।

मीनू : नहीं…उदासी भी चलेगी। वैसे मैं सुख का सौदा करती हूँ।

आदित्य : क्या चाहती है साली? रात को क्यों डिस्टर्ब कर रही है? चल निकल।

मीनू : मैं तो रात को ही डिस्टर्ब करती हूँ। दिन मुझे डिस्टर्ब कर देता है। (हँसती है…) चल हट बैठने दे मुझे।

वह लड़के को बेंच से परे खिसकाकर बैठ जाती है और अपनी दारू की बोतल निकालकर बेंच पर रखती है। लड़का थोड़ा सहमा-सा परे हो जाता है। वह नाच-नाच कर गाना शुरू करती है।

मीनू : धूम चाक…धूम चाक…धूम…धूम…धूम…(कहानी शुरू…)
आज की रात विरानी है।
सामने चिकनी जवानी है।
तेरे पास मैं आऊँ।
मेरे पास तू आ जा।
डरो मत…पास आओ।
चिपक लो…चाटो खाओ।
तुम्हारी आँखों में नमकीन हँसी से,
सवाल पूछते हैं होंठ सभी से।
दिन गिन गिन अपने भीतर कर
रात उगल अब पी-पी कर।
तुम्हारी आँखों में जवान…नमकीन हँसी में…

मीनू आदित्य को कसकर बाँहों में जकड़ लेती है। आदित्य का बाँहों में दम घुटने लगता है। वह किसी तरह से झिंझोड़कर ख़ुद को उससे छुड़ाता है। मीनू दूर जा गिरी है। आदित्य हाँफकर लंबी-लंबी साँसें लेने लगता है।

आदित्य : ओह! क्या है? क्या चाहती हो? ऐंह…गंदा बास मार रही है। तू जो समझ रही है, मैं वह हूँ नहीं। चल भाग ले यहाँ से भैन्चो पागल…भाग यहाँ से…

मीनू ख़ुद को सँभालते और मुस्कुराते हुए आदित्य के पास जाकर फिर से बैठ जाती है। वह आदित्य को आश्चर्य मिले ग़ुस्से से देख रही है।

मीनू : गाँडू। चोट लग गई कि नहीं…मैं क्या इतर-गुलाब लगाती। तू तो कुछ चाहता ही नहीं है चोर। सब चाहता है तू…बस यही चीज़ अच्छे-से लाल-पीले काग़ज़ों में लपेटकर चाहिए तुझे…भूख लगी है खा ले…सामने परोस रही हूँ…नहीं…न…न…शरीफ़ हूँ…एक शरीफ़ज़ादी चाहिए! बेचारा!

आदित्य : तू जो समझ रही है। ऐसा कुछ नहीं है। चटोर कहीं की! मैं यहाँ सेक्स के लिए नहीं बैठा हूँ कि कोई भी ऐरी-गैरी आए और मैं चेन खोलकर ठंडा हो जाऊँ। साली कुतिया…सोच बदल अपनी। (अपने जेब से पैसे निकालकर…) तुझे यही चाहए न…ले (मीनू के हाथ में 50 का नोट निकालकर ज़बरदस्ती रखता है) ले जा…दफ़ा हो भैन्चो! सभी को एक ही प्रॉब्लम है…लड़के केवल सेक्स चाहते हैं…और सौ ले, दिमाग़ का इलाज करवा लेना पागल कहीं की… सबके दिमाग़ में भूसा भरा है। (हाथ जोड़कर) अब जा यहाँ से। पीछा छोड़ डायन। चल निकल।

मीनू के हाथ में पैसे रखे हैं। वह कुछ देर उसे देखती रहती है। फिर पैसों को तह करती है। बॉटल खोलकर शराब के घूँट मारती है। लड़का दूर देखने लगता है। मीनू खिसक-खिसक कर पास आती है। एकटक बेंच पर पीछे सिरे झुकाए-टिकाए उसे देखती रहती है। लड़के की गर्दन पर अपनी उँगली फिराती है। लड़के के बदन में सिहरन हो रही है। वह घृणा से उसकी तरफ़ एक बार देखकर फिर बिल्कुल दूसरी तरफ़ देखने लगता है।

मीनू उसके शर्ट में हाथ डालकर उसे गुदगुदी करती है।

मीनू : हँस…हँस…साला सीरियस आदमी! हँस…

आदित्य पहले तो उसे अजीब नज़रों से देखता है, फिर उसके गुदगुदाने की वजह से उसे हँसी आने लगती है।

आदित्य : (हँसते हुए) तमाशा हो…तुम यार…क्यों पीछे हो…जाओ न…मेरी माँ…मर जाने दो मुझे…मैं कुछ सोच रहा हूँ…कष्ट है मुझे…तुम तो मरने भी नहीं दे सकती…दुख का स्वाद तो ले लेने दो।

मीनू : (हँसते हुए) और रात की रोटी नहीं बाँट सकती, दुख तो बाँट लेने दे। तुम्हारी आँखों में आए नमकीन पानी का स्वाद मुझे भी चखना है।

आदित्य : तू कुछ समझती भी है पियक्कड़ कहीं की…बेअक्ल! तुझसे कौन-सी बात की जा सकती है! अनपढ़! बड़ी-बड़ी बातें करना जान गई है तो तू सोचती है कि ज्ञान का महासागर पार कर गई। दारू पी तू दारू। तेरे बस में तो पीना ही है बस।

मीनू : अच्छा सुन, तुझे समझ चुकी हूँ। तू रो रहा है (वह उठकर रोने की एक्टिंग करती है, अलग-अलग पोज़ बनाकर रोते हुए दिखाती है) ऊहूँ…आहू…हूँ…हूँ…हूँआ…आ…आ…आ…मेरे लाला को किसी ने धोखा दिया है…एक शरीफ़ज़ादी ने…बात हुई होगी फ़ोन पर…ट्रींग…ट्रींग…चूड़ी मज़ा न देगी…कंगन मज़ा न देगा… (लड़की की नक़ल उतारती हुई) हैलो, चिंटू जी मैं आपकी हूँ, आ जाओ न कनॉट प्लेस! बड़ी खुजली हो रही है…बहुत अकेली हूँ मैं…वैसे तो घर से नहीं निकल सकती, पर आपके लिए निकलूँगी…वैसे तो दिल्ली में रेप पर रेप हो रहे हैं…पर आपके लिए झूठ बोलूँगी…मेट्रो स्टेशन के पास… हाँ…गेट नंबर तीन या चार पर मिलूँगी…झूठ…झूठ…सब झूठ…माया रे माया…आप कैसे पहचानेंगे मुझे…वहाँ तो कई सारी लड़कियाँ होंगी? मैं पीले कपड़े में रहूँगी…आप फ़ोन करना…पहली बार मिल रही हूँ किसी से…पता नहीं कैसा तो लग रहा है। (हँसती है…)

गाँडू तू और पहली बार…इसी कनॉट प्लेस से तू कितनी बार ऐसे भोले-भालों (आदित्य की ओर इशारा कर) को ठगकर ले गई है! तू पीले कपड़े पहने बार-बार आती है…ये दुहाइयाँ देकर कि आज पहली बार तू किसी को ठगने आई है…पर तू कई बार…कई-कई रंगों में आई है…कायर…झूठ बोल रही होगी तेरे से…वह रात में कहाँ दिन के उजाले में ही आएगी…चुस्त पैंट जिसके पीछे उसकी चड्डी की साइज़ झाँक रही होगी और एक छोटी-सी कटी शर्ट पहनकर…उजले पाउडर से भी उजली…हाथों में पर्स, पर पैसों से ख़ाली, दूर शाहदरा, नोएडा या लक्ष्मी नगर या दिल्ली के बाहरी हिस्सों से…यक़ीन से लबालब भरी, अरमानों की अँगूठी पहने तुझ पर वशीकरण कर देगी। वह मुझसे भी ज़्यादा ख़तरनाक है छोटे मियाँ…अपनी इच्छा और इरादे छुपाकर आती हैं ये डायनें।

इतना कुछ बोलकर मीनू हाँफने लगती है। आदित्य उसे घूर रहा है।

आदित्य : (उसे दारू देते हुए) ले पी ले…नाइस एक्ट (तालियाँ बजाता है)…कमाल है…बुद्धिजीवी…एनलाइटेंड भिखारन…क्या बात है…आज की रात इस खंभे के कम प्रकाश में तूने मेरे दिल और दिमाग़ को मुग्ध कर दिया। कहानी जैसी भी है, चाहे उस लड़की से मिलती हो या नहीं…पर दिलचस्प है…अनुभव से भरा मैं इसे सुन-सुनकर वियोगी हो जाऊँगा।

मीनू : (ज़ोर से हँसती है) जोगी क्या बोलता है…मुझे तो धेला समझ में नहीं आया…पर जो भी है तू समझ बस। थोड़ी पीएगा? (वह आदित्य के मुँह तक शराब की बोतल ले जाती है…)

आदित्य : (उबकाई लाते हुए…) आ…बा…आक्… क्या है…क्या पी ली है तू…सस्ती घटिया दारू…

मीनू : सस्ती घटिया लड़की…सस्ती घटिया दारू…इसमें ऐसी कौन-सी बात है…देख बड़ी बात है—इरादे और साहस की…मैं कर सकती हूँ तो कर रही हूँ। मुझे जीना है हर हाल में—बर्बाद होते हुए भी, मैंने अपने आपको अपने ख़ुद के हवाले किया है…तुम्हारी तरह मेरी लगाम किसी दूसरे के हाथ नहीं है…मैं ख़ुद अपनी मालिक बन बैठी हूँ…थोड़ा बहक कर भी मैं ख़ुद को कंट्रोल कर लेती हूँ, मैं न किसी की परेशानी हूँ और न बीवी-बहन बनकर छुप-छुपकर किसी का गला रेत रही हूँ…फ़िलहाल मेरा आत्महत्या का इरादा भी नहीं है…मैं कायर और बुजदिल होने से अच्छा अकेली और निडर होना पसंद करूँगी—इस रात की तरह जो अकेली और निडर दिन को ढँक लेती है—अपनी चादर से…और ख़ामोशी और अकेलेपन से बैठ जाती है…एक कोने में सिमटकर…

आदित्य : तुम रात हो? भिखारिन नहीं?

मीनू : ज़्यादा अलग नहीं। मैं पड़ी हूँ रात की तरह…सबसे अलग, सुकून से भरी…न कोई कृपा और न क्षमा माँगती हूँ…बस मुझे जीना है—दिन होने से पहले तक…दिन के उजाले में फिर हावी हो जाएँगे सफ़ेदपोश आतंकी…फैलाते आतंक…अपनी मुस्कुराहटों में लपेटे ख़ास ही मुस्कान। धो देंगे सिंदूर…चुरा लेंगे कान की बालियाँ, तोड़ देंगे हरी चूड़ियाँ…सौदा कर डालेंगे धरती की फ़सल का। बेच डालेंगे ज़मीन। उड़ा देंगे होश। ख़त्म कर देंगे स्त्री की उर्वरता…तुम क्या तुम्हारे जैसे कवि कोमल दिल कितनों की नींद हराम कर रक्खी है दिन ने…मैं…तुम क्या…दिन मुझे कुत्ते-बिल्लियों के करतब से ज़्यादा कुछ नहीं लगता…नोच-खसोट…झूठ…मार-लूट…बस और रात…एक चादर है—ख़ामोश तारों से बुनी…चमकते बल्ब की तरह। स्वप्न के आशीर्वाद से भरी…ओढ़ लो…बहुत कम लोग हैं, जिन्होंने रात को जिया है…ज़्यादातर लोग तो जैसे-तैसे रात काटते हैं या बिताते हैं, कहानियों के नायक…मोटे-भद्दे लुटेरे…ख़ूबसूरत लड़कियाँ रातों का ग़लत इस्तेमाल करती हैं…उन्हें रात में नींद नहीं आती…वे रात पर कभी सवार नहीं होतीं…रात उन पर हावी हो जाती है। (हँसती है…)

आदित्य शराब उससे छीन लेता है और ख़ुद कुछ घूँटें लगाता है…फिर मीनू की ओर एकटक निहारता है।

आदित्य ׃ बस! बस! हाँ तो वह लड़की तो चुस्त पैंट पहनकर…आधी बाँह की छोटी शर्ट पहनकर दिन के उजाले में आती है…फिर…

मीनू : (शराब की घूँट मारकर) फिर…फिर…क्या? (मीनू तनकर खड़ी हो जाती है) इस तरह खड़ी होकर (पास में खड़े लड़के द्वारा लाई लिपस्टिक उठाकर लगाती है) ऐसे होंठ रँगे चेहरे, कुछ भोलेपन और यहीं कोने में दीवारों से लदी शालीनता के रंग में रँगी तुम्हारा इंतज़ार कर रही होती है। वह जानती है कि तुम वहीं कहीं हो। फिर भी नंबर मिलती है कि तुम कहाँ हो?

आदित्य : मेट्रो में हूँ…क्या तुम पहुँच गईं?

मीनू : हाँ जल्दी…आओ ना…मैं पीली शर्ट में हूँ…गेट नंबर तीन-चार के पास।

आदित्य : मैं तुम्हें पहचानूँगा कैसे…इतनी सारी लड़कियाँ होती हैं वहाँ तो…

मीनू : पहचान जाओगे…धोखे का अलग रंग होता है…दीवारों से भी अलग…दिल्ली तो इसी रंग में रँगी है…आओ न…न मैं दीवार के रंग की हूँ…न दिन के उजाले के रंग की हूँ…यहाँ तक कि जो कपड़े पहने हुए हूँ, उस रंग की भी नहीं हूँ। मैं सब्ज़बाग़ की हिना जैसी दिखूँगी…मैं मुग़लगार्डन में फूले सीजनल फूलों की तरह दिखूँगी…अच्छा सुनो…सारी लड़कियों से बेहतर और ख़ूब खिला मेरा वक्ष होगा—चौड़ा…लगभग दो भागों में—दिल्ली, पुरानी दिल्ली की तरह…दो भागों में सूखी यमुना की तरह आधे-आधे बँटे मेरे नितंब होंगे…कमर मेरी पतली होगी—हाईवे की तरह…बीच सीने में धँसी मेट्रो होगी…आओ पहचान जाओगे…

आदित्य : (हँसता है) हा…हा…हा…लाजवाब…मैं एक लड़की से मिलने नहीं, पूरी दिल्ली से मिलने जा रहा हूँ।

मीनू : हाँ…आबरू लुटना या इज़्ज़त देना या लेना किसी लड़की की नहीं…वहाँ बार-बार दिल्ली ही लुटती है…हाँ वह दिल्ली जहाँ बार-बार लुटेरे अलग-अलग शक्लों में आए…वह भी बादशाह होने नहीं, किसी की नेकनीयती का फ़ायदा उठाकर रेप करने ही आए थे…वे कई सालों तक वासना का खेल खेलते रहे। एक दम बीचोंबीच दिल्ली को छेदते रहे—लाल क़िला से जामा मस्जिद, कभी क़ुतुब मीनार तो कभी तुग़लक़ाबाद घूम-घूमकर चारों तरफ़ से रौंदते रहे…किसी का चीख़ना, कब किसी ने सुना…? किसके आँसू, कब किसने पोछे? किन सामंतों ने यहाँ बैठकर इत्मीनान से जीवन के चित्र उकेरे? नहीं वह जो कुछ भी था…चाहे लाल क़िले का प्रहरी, चाहे अब की सरकार बहुत गहरी हवस के साथ दिनों-दिन लूटती ही जा रही थी…लूटती ही जा रही थी—दिल्ली का इज़्ज़त…रेप…रेपिस्ट…

आदित्य : कुछ ज़्यादा ही पर्सनल नहीं हो रही है तुम्हारी परफ़ॉरमेंस नाटक-नौटंकी? मैं आ गया चलो, मेट्रो स्टेशन से तीन या चार नंबर गेट से बाहर निकला।

लड़का अभिनय करने के हिसाब से अपने बैग के साथ खड़ा हो जाता है…वह एंट्री लेता है, उत्सुकता और कौतुहल में…

आदित्य : (फ़ोन लगाकर) कहाँ हो? क्या नाम रक्खूँ?

मीनू : मेरा नाम ‘मीनू’ बोलो न।

आदित्य : हाँ मीनू…कहाँ हो तीन-चार नंबर गेट की सीढ़ियों की तरफ़ देखो।

मीनू : हाँ…तुम भी देखो…हरे रंग की छोटी सीढ़ियों के पास मेरे जस्ट पीछे…क़तार में चमकती दुकानें हैं…नहीं दिखी…

आदित्य : नहीं।

मीनू : एक मिनट दिन में मैं नहीं दिखती हूँ क्या? या हो सकता है कि जैसा मैंने तुम्हें अपने बारे में बताया उस तरह न दिखकर किसी और तरह की लग रही हूँ। तुम अपनी आँखों से देखो।

आदित्य : क्या पागलों-सी बक रही हो…पीले रंग में तो कोई लड़की ही नहीं है।

मीनू : और नीले रंग में तो केवल मेट्रो का गार्ड दिखाई दे रहा है…अच्छा अभी-अभी तुम्हारे पीछे क्या है?

आदित्य : एक काली सड़क और उस पर चलती मोटी बेडौल लड़कियाँ…उसके साथ अरमानों से भरा लड़का उसके पीछे ललचाई नज़रों से देखता—ग़ाज़ियाबाद या मेरठ का लौंडा।

मीनू : हाँ, पहचान लिया। आओ न, अब मैं दिखाई दूँगी तुमको।

आदित्य : हाँ, तुम सेक्सी लग रही हो। अभी-अभी नहाकर आई लगती हो।

आदित्य भागकर मीनू के पास आता है…एक्टिंग करते हुए ये एक दूसरे के गले लगते हैं।

मीनू : हैलो।

आदित्य : तुम कुछ लोगी?

मीनू : नहीं रहने दो…न…

आदित्य : अरे नहीं…आओ तो…(दोनों चलते हुए आकर बेंच पर बैठते हैं) मैं जैसा सोचता था, तुम वैसी ही निकलीं…फ़ेसबुक पर तुम्हारी जो फ़ोटो है, उसमें तुम एज्ड लगती हो, पर तुम तो बिल्कुल ख़रग़ोश जैसी नरम और मुलायम हो।

लड़की हँसती है…शरमाने की एक्टिंग करती है। दोनों लगभग उस तरह बैठ जाते हैं, जैसे रेस्त्राँ में बैठे हों।

मीनू : तुम भी तो अच्छे लग रहे हो…बीलिव नहीं होता कि आज रियल में चैट से डेट पर आ गई हूँ।

आदित्य : क्या लोगी? ऑर्डर करो…

मीनू : नहीं तुम करो…

आदित्य : भैया, एक पास्ता और दो कोक और एक चिकन रोस्ट विथ बटर। तुम नॉन-वेज खाती हो न?

मीनू : मैं सब कुछ खाती हूँ, पीती हूँ…मैं किसी की परवाह नहीं करती…आख़िर जीना मुझे है, उनको थोड़े ही है जो नसीहतें या फ़रमान सुनाते रहते हैं…ज़िंदगी बहुत छोटी है, मैं अपने हिसाब से जीना पसंद करूँगी…यह नहीं कि ये करो, वो मत करो…सब करो…फिर भोगो…झेलो…ख़ुश रहो तब तक…दुख में रहो जब तक…

आदित्य : (उसका हाथ अपने हाथ में लेकर) तुम्हारे ख़याल सबसे जुदा और मेरे ख़यालात से मिलते-जुलते हैं, पर एकदम वीरानों जैसे विचार हैं…तुम्हारे जैसे लोगों के लिए दुनिया के किसी भी हिस्से में किसी भी कारीगर ने एक भी शहर नहीं बनाया। हाँ बनाई हैं सड़कें…मीनारें और उनके उदास कोने, जहाँ एक दूसरे का हाथ थामे गिनते रहें दिन। हमारी तुम्हारी जोड़ी तो जमेगी, पर ऐसे लोगों का शहर शहर में नहीं बसता। यह जगह यहाँ की इंच-इंच मिट्टी उन लोगों के पाँवों से भरी है जिनके भीतर दब्बूपन और जीवन का आसान-सा टाइम टेबल और रवैया है। इन लोगों की ट्रेन समय से आती है, समय से पहले इनके पास तेज़ ख़ंजर होता है…इसे वे अपने-अपने झोले या बैग में भरकर लाते हैं। महानगरों की दनदनाती भीड़ चीरते हुए ये बढ़ते हैं…और शाम-शाम तक असंख्य हत्याएँ कर धारदार हथियार लिए अपने-अपने घरों में लौट जाते हैं। हत्या करने का मासिक वेतन पाते हैं ये और इस तरह हत्यारों की अगली फ़ौज पैदा करते जाते हैं। गहरी रात में इनके खूंख़ार चेहरे देखकर इनकी औरतें चीख़ती हैं, लेकिन ये जल्लाद की तरह एक और जल्लाद की नींव डालने में लगे होते हैं। तुम उनमें से नहीं हो, मुझे गर्व है।

मीनू : मैंने पापा को मरते वक़्त वचन दिया था कि अपना कौमार्य बनाए रक्खूँगी…जब तक पसंद का लड़का नहीं मिलता…ख़ासकर वैसे लड़कों को सौपूँगी अपने आपको जो मेरे चमड़े का ढोल बनाकर दिन-रात बजाए नहीं, बल्कि मेरे अंदर-भीतर छुपे संगीत को समझे। मैं पिता की बेटी हूँ, उम्र में उनसे छोटी, पर उनकी तंगहाली में उनके साथ क़दम से क़दम मिलाकर चली हूँ। इसलिए शादी मैं ऐसे लड़के से करना चाहती हूँ, जो न केवल अपने पैरों पर खड़ा हो, बल्कि अपने दोनों पैर उसने पैसों के ढेर में गाड़ रक्खे हों…वैसे तुम करते क्या हो?

आदित्य : मेरी नील-चूने की दुकान है बरेली में…यह मेरा पुश्तैनी धंधा है। दो तरह की नील होती है हमारे यहाँ, एक से कपड़ा तो दूसरे से मन रँगा जाता है। मैं इसी व्यवसाय को आगे बढ़ाना चाहता हूँ। यह मेरी पिता के पति श्रद्धा होगी। उनके नहीं होने पर मन पर उनकी छाप अमिट हो गई है। दिल पर अभी भी लगता है कि कोई आदमी सादे धोती-कुर्ते में नील डाले हुए, बहुत सारे नील के डब्बों के बीच बैठा है, और रॉबिन नील का पक्षी आकर बार-बार पापा के कंधों पर बैठ जाता है। यह ख़्वाब मुझे बार-बार आता है। पापा की छोटी तराज़ू और उस पर पीतल के छोटे-छोटे 5 ग्राम और 10 ग्राम के बाट। पिता नील छोटी-छोटी चम्मचों से तौलते थे। उन्हें लगता था कि यह किसी का कुर्ता, किसी का गमछा तो किसी के घर को नीला कर देगा। पापा चंपारण ज़िले के थे। गांधी जी के सहायक रहे थे। मैं पापा का सहायक रहा हूँ। मेरे पास पैसे नहीं हैं, गांधी जी हैं। उनकी तस्वीरे हैं, मेरे पास नोट नहीं हैं। मेरे पास साहस है। इतनी हिम्मत है कि दिल्ली आकर भी झूठ नहीं बोल रहा हूँ।

मीनू : (खाना छोड़ने की एक्टिंग करती हुई) रहने दो मन भर आया खाऊँगी नहीं, मैं जाऊँगी…तुम मुझे ग़लत समझ रहे हो…इतने बड़े शहर से बरेली जाकर नील नहीं बेच सकती…मुझे लोग क्या कहेंगे, ‘‘नील वाले बनिये की बीवी…’’ यह तो तब भी लोग कहते थे कि ज्योति स्टोर वाले की बेटी है…धब्बा तो नील भी साफ़ नहीं कर सकता…मैं तो बरसों से इन नामों पर साबुन रगड़ती रही। मैं कोई पंजाबी ढूँढ़ रही हूँ…मेहरा, कालरा, भसीन या फिर चड्ढा…इन सबों में कोई अगर दो पत्नियाँ रखना चाहे। एक पत्नी के रहते, रखैल रखना चाहे। विधुर हो और बीवी की चाह रखता हो…या फिर जस्ट फॉर सेक्स। कौन-सा टच दूँगी। कंडोम तो पहनेगा ही। आप शॉक्ड मत होना। देखो इसे मेरी मजबूरी ही मान लो। अगर जवान, मस्त और सेक्सी रहते चूक गई न तो धरती के उस हिस्से में फेंक दी जाऊँगी, जहाँ लोगों में हीनता पैदा होते ही चिपक जाती है…।

आदित्य : नहीं…नहीं…उस दुनिया में मत जाओ आप। आपके साथ मजबूरी है। मैं समझ सकता हूँ। इस तरफ़ मेरा कभी ध्यान नहीं गया। बहुत अचरज से भरा है आपका सच। मैं आपको अपने उसूलों से हटाना नहीं चाहता। आप बेफ़िक्र होकर लौटें और मुझे भी मेरे शहर लौटने दें। मैं माफ़ी चाहता हूँ कि आपका समय ख़राब किया। मुझे माफ़ करें। प्लीज।

आदित्य की आँखों में आँसू है…वह सिसक रहा है…स्त्री उसे अपने बाँहों में ले लेती है…वह मीनू के गले से चिपका है…किसी तरह की हवस का भाव नहीं है…है एक विशाल हृदय की पीड़ा का निदान।

मीनू : अले…ले…मेरा बच्चा…चुप हो जाओ। एक्टिंग करते-करते रोने लगा।

आदित्य : मुझे माफ़ कर दो…

स्त्री उसे सहलाती हुई उसके बालों में हाथों से कंघी करती है…उससे बच्चे की तरह पूछती है।

मीनू : क्या हुआ? बताओ क्या हुआ? चलो चुप?

आदित्य सिगरेट निकालकर सुलगा लेता है…स्त्री बची दारू एक घूंट को ख़त्म कर डालती है, आदित्य सिगरेट पीते हुए कभी-कभी बीच-बीच में मीनू की ओर देख लेता है।

आदित्य : (सिगरेट का कश छोड़ते हुए) ओह! क्या था यह सब? सच्चाई या फिर एक नक़ल भर…तुम कितनी ग़ज़ब की एक्टिंग करती हो यार…पल भर को लगा तुम तुम नहीं कोई और हो…और मैं भी ख़ुद ही था या कोई और?

मीनू : हम दोनों ही थे…कभी कोई और भी था। पर सच्चाई तो साली सच्चाई है…चरित्र चाहे जो रहे।

आदित्य : वैसे मीनू तुम कहाँ रहती हो? यहाँ क्यों घूमती हो?

मीनू : कौन? क्यों? कहाँ? क्या? यही सब कुछ है जैसे…वैसे ही हूँ जैसे यह बेंच, वह दीवार, यहाँ पड़ी धूल, यहाँ खड़ा पेड़, तुम्हारी सिगरेट के लिए आग…वैसे ही मैं भी। यहाँ से कुछ दूरी पर चलोगे तो हनुमान मंदिर आता है, कॉफ़ी हाउस के जस्ट सामने। वहीं अंडरपास में मैं ज़िंदगी काटती हूँ। एक बेहतर और सफल ज़िंदगी मेरी तरह की—बिना आशा और भरोसे की—रात का वाचमैन बनकर।

आदित्य : (ध्यान से सुनते हुए) आश्चर्य…तुम्हारे माँ-बाप कहाँ हैं…घर के लोग कहाँ हैं? तुम्हें डर नहीं लगता…रात को कोई कुछ कर दे तो?

मीनू : फिर सवाल…तुम बरेली के हो या दिल्ली से। छोटे शहर वाले हमेशा सयाने होते हैं, तुम्हें तो सब समझना चाहिए। मेरे बाप का पता है मुझे, वह शिवाजी ब्रिज स्टेशन पर पानी की रेहड़ी लगाता था…माँ लौट गई अपने गाँव, वह पिता के प्यार में भागकर आई थी…मगर मुझे जन्म देते ही माँ के घर वाले खोजते-खोजते ग़ाज़ियाबाद तक आ गए थे। माँ दिल्ली तक भी भाग नहीं पाई थी। गाँव के लोग माँ की इज़्ज़त-आबरू की दुहाई देकर भगा ले गए। बाप दिल्ली तक घुसने में कामयाब रहा। वह मुझे दिल्ली ले लाया। आई.टी.ओ. पर पिता ने मुझे बड़ा कर दिया…मैं जवान हो गई…फिर पढ़ने गई।

आदित्य : फिर शादी…की…

मीनू : नहीं पागल…शादी…मेरी जाति ही क्या थी? जवान होते ही हर रात पिता मुझे अपने पास बुलाते…मुझे छूते-चाटते-सहलाते…मेरा ख़ून और उनका पसीना एक हो जाता…पिता मेरे साथ दिन होली, रात दिवाली मनाते…माँ तो चली गई, पर उसका एहसास पिता के भीतर मैं पूरा कर रही थी। एक रात मैं रो रही थी…रात गहरी थी, बाप मुझे लहूलुहान करके जा चुका था… मैं चीख़ रही थी…सन्नाटा, रात के काले ब्लैकबोर्ड पर जैसे मैं चिट्ठियाँ लिख रही थी…ताकि सनद रहे…अनंत में…मेरी चीख़ प्रार्थना बन गई थी…जैसे मेरे रोने से शब्दों का आविष्कार हो रहा हो…मेरे होंठों से प्रार्थना के बोल निकल रहे थे, तभी वहाँ अँधेरे में रात आई…मुझे गोद में सुलाया…मेरे ज़ख़्मों पर मरहम लगाया और मेरे कान में एक मंत्र कह गई, ‘‘निर्भीक बनो। निडर बनो। जिसका कोई नहीं उसका सब कुछ मैं हूँ…आज की रात से अनंत युगों तक के लिए कोई रात के अँधेरे में तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा।’’ वह अंधकार जब विलीन हो रहा था, मैं उससे चीख़कर पूछना चाहती थी कि तब तुम कहाँ थे, जब मेरा बाप ही मुझे नींद में चीख़-पुकार भरी लोरियाँ सुना रहा था, ईश्वर विलीन हो रहा था, मैं शांत थी…निर्मल थी। उस रात के बाद बाप नहीं आया…मैं शिवाजी ब्रिज स्टेशन गई…वह वहाँ नहीं था…पानी की रेहड़ी सूख गई थी…कोई कहता था : ट्रेन से कटकर मर गया…जो भी हो बाप को कटते तो देखा नहीं…देखती तो संतोष होता…बस यह संतोष था कि रात उसे निगल चुकी थी और वह मेरा भरपूर साथ दे रही थी।

आदित्य : अजीब है…तुम कौन हो क्यों मिली यह नहीं जानता। शुरुआत में तुमसे घृणा हुई थी। अब तुम्हारी ही गोद में मेरा सिर है। मुझे सम्मोहन में बाँध लिया है तुमने।

मीनू : कब ज़िंदगी में क्या हो जाए, किसे मालूम है? हम तुम कुछ नहीं जानते हैं कि कब कहाँ टकराएँगे और कब क्या होगा? यही तो ज़िंदगी को दिलचस्प बनाए हुए है। मेरे साथ हादसा न होता तो उस रात की विशाल देवी को मैं मिलती नहीं। तुमसे भी मुलाक़ात नहीं होती।

आदित्य : जैसे-जैसे रात रीत रही है, मुझे तुम अपनेपन में बाँधे जा रही हो…लग रहा है, जैसे मेरी अपनी माँ-बहन और प्रेमिका बैठी हो…तुम एक देवी लग रही हो—धूल में लिपटी एक अद्वितीय देवी…

मीनू : (हँसकर…) बस…बस…इतना भी कुछ नहीं है…तुम हो ही इतने अच्छे कि तुमसे कोई चीज़ दुनिया में राज़ बनकर नहीं रह सकती।

आदित्य : दुआ दे रही हो या सांत्वना?

मीनू : मैं पढ़ रही हूँ तुम्हें…जैसे कनॉट प्लेस की आती-जाती सड़कों पर चलते-नाचते क़दमों पर हिलते-मिलते लोगों की आँखों, बातों में पढ़ती रहती हूँ उनके इरादे।

आदित्य : तो तुम कनॉट प्लेस की कवि हो या किरदार?

मीनू : किरदार हूँ यार! कवि तो कभी आते थे कॉफ़ी हाउस तक। अब तो यह दलालों, बिल्डरों और सटोरियों का अड्डा है—मोटे फूले पेट वाले हलवाई की तरह व्यवसायी…हनुमान जी से दुआ माँगकर कॉफ़ी हाउस में खाते-गंधाते चला जाता है। वहाँ कवि कहाँ…हम जैसे चरित्रों के लिए आसानी होती है…कही बैठ जाऊँ…कहीं हो आऊँ…

आदित्य : ओह! सोचता हूँ जीवन से भी बड़ा जीवन का अनुभव है मीनू…तुम्हें देखकर लगता है। आज की रात घर से भागकर धूल में मिलने आया था और तुमने जन्नत सौंप दी। (उसका पैर छूने के लिए बढ़ता है…मीनू पैर हटा लेती है…)

मीनू : क्या कर रहे हो? यह सब नाटक नौटंकी क्यों? उम्र में मुझसे बड़े हो…देखने में अच्छे हो…सब कुछ अंतिम थोड़े ही है, मेरे द्वारा देखे गए सच के बाद भी जीवन है..उसकी तुम्हें पड़ताल करनी है…मैं कौन हूँ? सुनो…सुबह अपने पाँव पसार रही है…मुझे जाना होगा…इससे पहले कि सूरज की पहली किरण रात को भेद दे…मुझे जाना होगा…

आदित्य : (आतुर और व्याकुल होकर) तुम मिलोगी न हनुमान मंदिर के सामने—दिन के उजाले में…मैं आऊँगा…

मीनू : हाँ…हाँ…जाने से पहले एक अच्छा-सा डांस हो जाए…चले आओ…

स्त्री गाती है :

उधर-इधर देखो रात नशीली…
लड़की खड़ी देखो सूट पहने पीली…

आदित्य : सैयाँ मुझे बुलाए प्यार से…

लड़की : बइयाँ धर बना लो जान रे…
यह रात कभी न आएगी…
वह बात नहीं दुहराएगी…

आदित्य : आ पास कानों में कहना जा तू…
घर न जाकर यही रह जा तू…

मीनू : बस…बस…बस…

आदित्य : बस…बस…बस…थक गया मैं…
(दोनों हँसते-हँसते लोट-पोट होते हैं…) है कमाल?

मीनू : कमाल की एनर्जी है तुम्हारी यार, इसना ग़ज़ब का डाँस करते हो…अच्छा सुनो मुझ पर विश्वास है तो कुछ देर के लिए आँखें बंद करो…

आदित्य आँखें बंद करता है। मीनू उसके 150 रुपए उसके हाथों में रखती है।

मीनू : (150 उसके हाथों से रखते हुए) अभी आँख मत खोलना…मैं 10 तक गिनूँगी ठीक तब…(वह संख्या गिनती हुई पीछे हटती चली जाती है…) 1…2…(वह पीछे की ओर देखती हुई चली जाती है…) 3…4…5…6…7…8…9…10…

ब्लैक आउट! अँधेरा! प्रकाश आते ही वहाँ लड़की कहीं नहीं है, सिर्फ़ लड़का बंद आँखें लिए बैठा है।

आदित्य : अब खोल रहा हूँ, 10 पूरे हो चुके हैं…मीनू? मीनू? (वह उठकर मंच के चारों ओर भागता है…सभी विंग्स की तलाशी लेता है…हाथ के पैसे देखता है मीनू…मीनू…(प्रकाश तेजी से मंच पर आ जाता है…दिन का-सा एहसास…वह अपना बैग उठाकर भागता है। विंग्स में काल्पनिक लोगों से पूछता है…) भाई साहब आप मीनू को देखे हैं कहीं? जानते हैं, पीले कपड़ों में…अजीब तरह की लड़की…यही बोली थी कि हनुमान मंदिर के अंडरपास में रहती है।

(आदमी का स्वर) नहीं भाई साहब…यहाँ भिखारी तो रहते है, मगर मीनू कभी थी ही नहीं…

आदित्य : नहीं है…कोई नहीं…है…

आदित्य अपना सिर पकड़कर बैठ जाता है…

आदित्य : कौन थी? कहाँ गई? (अपने आपको चिकोटी काटता है। थप्पड़ मारता है…) थी तो! मैं सपने में नहीं हूँ…कोई तो थी।

वह कुछ देर के लिए बैठ जाता है। मंच पर बैठे-बैठे वह अपने बैग के साथ, मंच के बीचों-बीच हतप्रभ सोच रहा है। कभी पश्चाताप तो कभी आश्चर्य के भाव बारी-बारी से उसके चेहरे पर आ रहे हैं। लेकिन अजीब तरह के सुख में सोया है वह…आधी नींद, आधी जाग वाली अवस्था में…ग़ज़ब की परम संतुष्टि का भाव है। एक आनंदमिश्रित कौतूहल है—आँखों में। सहसा फ़ोन रिंग होता है। फ़ोन लाउड स्पीकर पर है।

लड़की : (स्वर) सुनो तुम कहाँ हो?

आदित्य : (स्थिर होकर शांत मन मन से) कनॉट प्लेस।

लड़की : (स्वर) मैं आ सकती हूँ, 15 मिनट के लिए, लेकिन हाँ बस 15 मिनट, तुम्हें मिलना हो तो बताओ?

आदित्य : नहीं, नहीं मिलना है तुमसे।

लड़की ׃ (स्वर) क्या? तुम तो बोल रहे थे…कल मिलते हैं…बाबा, केवल आधा घंटा बस।

आदित्य : नहीं बाबा, नहीं मिलना है मुझे। तुम समझो इसे…

लड़की ׃ (स्वर) अच्छा बाबा समझ रही हूँ मैं…चलो। घंटा लास्ट जो करना है, जल्दी से करना…बहुत बड़े लंगूर हो तुम! पहली मुलाक़ात और इतना समय!

आदित्य : हैलो, आप ग़लत समझ रही है। मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं है…बस अब आपसे मिलना नहीं चाहता…मेरी कोई इच्छा नहीं है।

लड़की : गाँडू…रात में तो पागल थे, दिन में चेंज मार दिया…तुम छोटे शहरों वालों को मुँह लगाना ही नहीं चाहिए…(फ़ोन काट देती है।)

आदित्य : (हँसता है…मुस्कुराता है…अपना फ़ोन और बैग आत्मविश्वास से उठाता है और अनजानी दिशा में दोनों हाथ उठाकर कहता है…) मुझे हर रात तुम्हारे होने की आहट मिलती रहेगी…तुम आओ या न आओ…तुम्हारी दी गई फ़ेथ, ट्रस्ट सब कुछ मेरे भीतर है, यहाँ तक की तुम भी…लव यू…

मंच पर अँधेरा !


चंदन कुमार (जन्म : 1986) नई पीढ़ी के लेखक और अभिनेता हैं। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से स्नातक चंदन इन दिनों मुंबई में अपने काम-काज में व्यस्त हैं। ‘कनॉट प्लेस’ उनका पहला नाटक है। इस नाटक के बहाने नाटक प्रकाशित करने का ‘सदानीरा’ का यह प्राथमिक अवसर है। नाटककार से chandanmanorma@gmail.com पर बात की जा सकती है।

1 Comments

  1. Ramesh Ram जुलाई 20, 2023 at 8:14 पूर्वाह्न

    kahani Bahot hi achhi hai padh kar Bahot achha laga
    agar ye manch par kidhe to aur bhi achha lagega

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