कविताएँ ::
गोविंद निषाद

गोविंद निषाद

प्रेम की जगह

काट दिया वह पेड़
जिसने दी थी अपने पाँव में
प्रेम करने की जगह
जहाँ खाई थीं दोनों ने क़समें
वह गली बन गई सड़क
जिस पर चलते हुए
प्रेम करने वाले पकड़ लेते थे हाथ
पार्क को बना दिया शॉपिंग मॉल
जहाँ खिलते थे प्यार के फूल
तोड़ दिया वह दुकान
जहाँ पहली बार हमने पी थी चाय

सरकार को नेस्तनाबूद कर देना है
मिला देना है मिट्टी में
जो कभी रहे हैं प्रेम के गवाह
इसके मलबे पर बनाना है एक महल
जो एक दिन ले सके प्रेम की जगह।

शून्य

खिड़की से शून्य झाँक रहा है
अगम्य अँधेरे में वह‌ खड़ा है शांत
देवदार के पेड़ों से सटकर
दूर कराहता है पानी
पुलिस की सायरन भेद देती है शून्य
चुपचाप सधे क़दमों से जाती नाव
बचा नहीं पाती नीवरता
बोलती चिड़िया का स्वर बदल जाता है गायन में
कुचले जाने से बचकर पड़े हुए हैं बैंगनी फूल
इस इंतज़ार में कि कोई आएगा उन्हें बचाने
मछलियाँ चुरा ले जाती हैं ब्रेड के टुकड़े
दूर जलता बल्ब दिखाई देता है तारे की भाँति
गौरैया मैदान से उड़कर आ गई है झील के किनारे
उसका कलरव गूँजता है बाँसुरी-सा
अंजुली भर बचा लेना चाहता हूँ उसकी आवाज़
ले आना चाहता हूँ उसे अपने आँगन
जिसे वह छोड़ आई है
दूर सुनाई देती है बढ़ई की ठक -ठक
पहाड़ की अंतिम रोशनी
झिलमिला रही है मेरे क़दमों में
मैं इस रोशनी में निहारता हूँ अपना चेहरा
जो बन चुका है पहाड़।

उदासियों का मौसम

फूलों का खिलना
सूखे ठूँठ में कोपल का आना
मधुमक्खी का डोरे डालना फूलों पर
पसर जाना पलाश के फूलों का
सरसों के रंध्रों का कामुक हो जाना
महकना धनिया के पौधौं का
गेहूँ में बाल का आना
बौरा जाना आम का
वसंत का आना है

फूल के मन का मुरझा जाना
सूख जाना किसी कोपल का
मधुमक्खियों का लौट जाना अपने देस
पलाश के फूलों का ज़मीन पर बिखर जाना
धनिया-सरसों का बन जाना सूखा डंठल
गेहूँ का टूँड में बदल जाना
आम हो जाना बौर का

बताता है कि
वसंत के बाद आता है
उदासियों का मौसम।

दुनिया बच सकती है

जिस दिन छोड़ दिया मछुआरे ने
नदी में जाल डालना
वह इस दुनिया का अंतिम दिन होगा
अंतिम दिन को आने से रोका जा सकता है
बचाया जा सकता है मछुआरे को
नदी को बचाकर

बिना इन्हें बचाएँ
नहीं बचेंगे
जंगल-पहाड़-समंदर-फूल और प्रेम
इन्हें बचाकर
हम बचा सकते हैं नदी
नदी बचा सकती है मछुआरा
जो बचा लेगा दुनिया।

जाल में फँसी भाषा

भाषा का सवाल
जाल में फँसा साँप है
वह जितना बचता है
करता है बचने की कोशिश
उतना फँसता जाता है
बचने की कोशिश में
फँसा लेता है पूरा शरीर
एक सिरा निकालता है
दूसरा फँस जाता है
अंत में इतना फँसा जाता है कि
उसे सिर्फ़ बचाया जा सकता है
जाल को काटकर।

पहाड़ बंद

जंगल शांत है
कहीं से नहीं आ रही है कोई आवाज़
चिड़ियाँ नहीं निकली हैं अपने घोंसलों से
नहीं हिल रहा है कोई पत्ता
हवाओं ने रोक लिया है ख़ुद को
सहमी हुई है झील
बादल चले गए हैं कहीं दूर
चारों तरफ़ है धूप का पहरा

लगता है चल रहा है ‘बंद’
मानव के ख़िलाफ़ पहाड़ का
सबने तय किया है कि
कोई काम पर नहीं जाएगा
कोई नहीं निकलेगा घर से बाहर
जब तक वापस नहीं लौट जाता मानव
वापस अपने घर।

स्मृतियाँ

एक

रात में
पहाड़ का अँधेरा
समा जाता मेरे भीतर
पहाड़ सोता
मैं देखता हूँ पहाड़ के भीतर

दो

आँखों में होता है पहाड़ का सौंदर्य
गुज़रते हुए दिनों में
आँखों से ओझल होता हुआ पहुँचता है मन में
तब तक मन जा चुका होता है अपने शहर।

तीन

छोड़ दिया गया शहर
उतना याद नहीं आता
जितना याद आता है वह शहर
जहाँ जाना है वापस।

चार

पहाड़ ऊँचा है
उससे भी ऊँचा है
स्त्रियों का दुःख
पहाड़ मज़बूत है
उससे भी मज़बूत हैं स्त्रियाँ
क्या पहाड़ कभी स्त्री बन पाएगा?

पाँच

आदमी पहाड़ पर
देखता है अपनी तरफ़
मुँह पहाड़ की ओर करके।

छह

मेरे दुःख का क्या कारण क्या है
यह पहाड़ जानता है या मैं
मैंने किसी को बताया नहीं
पहाड़ से छुपाया नहीं
यह पहाड़ से बिछड़ने का दुःख नहीं
दुःख है उनसे बिछड़ जाने का
जिनको अभी तो जाना था।

सात

तुमसे मिलने के बाद
इस दुनिया में मिलने को
कुछ शेष नहीं रह जाता।

आठ

प्रेमियों का फ़रेब
खिलता हुआ गुलाब है
जिसे देखा जा सकता है
खिला हुआ
खिलते हुए नहीं।

नौ

जो चीज़ नहीं होती
उसकी अफ़वाहें होती हैं
जैसे गर्मियों के दिनों में दिखाई देती है
कोलतार की सड़क पर मृग-मरीचिका

तुम्हारा जाना

तुम्हारा आना
ठूँठे पेड़ में कोपल का आना है
मृतप्राय हो चुकी हो जिसकी उम्मीद
कि कभी इस पर आएँगे कपोल
निकलेंगे पत्ते खिलेंगे फूल
हरा कर देंगे धूसर रंग
तुम्हारा आना
ठूँठे पेड़ में जीवन का आना है

तुम्हारा जाना
त्योहार के बाद की वह शाम का है
जिसकी ख़ुशियों को निचोड़ लिया गया है
छोड़ दिया गया है उसका शुष्क ख़ालीपन
जिसमें छाए हैं अवसाद के बादल
चलती हैं चिंताओं की आँधियाँ
मन की तरंगें थम चुकी हैं
मद्धिम पड़ चुकी है प्रेम की रोशनी
रोमांस दुबक चुका होता है कोने में
ढीली पड़ चुकी हैं शरीर की हड्डियाँ
तुम्हारा जाना
त्योहारों का जाना है।

तुम्हारे बिना

तुम्हारे बिना
प्रेम की डोर टूटती जा रही है
लेकिन आशा है कि
एक दिन तुम ज़रूर आओगी
तुम कब आओगी
मैं नहीं जानता
तुम्हारे आने से हरा हो जाएगा
सूखा पड़ा मेरा चेहरा
ज़िंदा हो जाएँगी मर चुकी इच्छाएँ

बिना तुम्हारे पत्थर बन गया हूँ
जिसे छोड़कर बह जाता है प्रेम
मछलियाँ बदल देती हैं रास्ता
चली जाती हैं नदी के साथ
नाव भी हो जाती है किनारे
पत्थर के हिस्से आता है तड़पना

प्रेम की संजीवनी मुझे बचा लेगी
यह आशा
घास पर पड़ी ओस है
मैं बचा लूँगा ओस सूरज के ताप से
तुम्हारे आने तक।


गोविंद निषाद से परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इस प्रस्तुति से पूर्व प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखें : कुछ लोगों के नदी पर आने से | आज़ादी की स्मृतियों में

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