गद्य कविता ::
बाबुषा कोहली

बाबुषा कोहली

ईद मुबारक

जाने कितनी यादें लिए हर बरस चमकता है आसमान पर ईद का चाँद और कितने बरस याद की कटोरी में सेंवइयें की तरह गुत्थमगुत्था मिलते हैं, बड़े शीरीं।

अब अम्मियाँ माइक्रोवेव हुईं तो हामिद भी ई-बे के मेलों में खो गए। गले मिलने की गर्माहट चुक गई। रोज़े में कमाए चाँद ख़र्च हो गए। इतने लोग शामिल होते ज़िंदगी में रोज़ ही, और पीछे तुम सब कहाँ खो गए? ओह रेशमा! तुम कहाँ खो गई, निक़हत कहाँ खो गई? मनीषा, रवि शंकर, रईस, रियाज़, सोनाली, बुशरा, कुशल, पंकज, रोज़ मेरी, साबिर तुम सब कहाँ खो गए? व्हाट्सएप्प पर कटोरी-कटोरी भर सेंवइयाँ बँट रही है। सेवइयाँ का स्वाद खो गया। ईदी में मिलने वाला दस का नोट खो गया।

चुपके से तकिये के नीचे रख जाती थीं
इक सच्ची आमीन दुआओं के बदले जो
किस फ़साद में क़त्ल हुईं वो परियाँ प्यारी

कोयल गाना भूल गई क्यों
राग सुबह उम्मीदों वाले
पेपर वाले रामदीन से
गप्प लड़ाए अरसा बीता

किस को क्या मतलब है किस से
हर कोई अपने में गुम है
घंटे भर से ढूँढ़ रही मैं
जाने कहाँ पे पड़ी हुई है
मिर्ज़ा के ‘नुक्कड़’ की सीडी

रात अमावस वाली रौशन
करते थे मिट्टी के दीये
फूट गए सब गुज़रे सालों
छूट गए अब खील-बताशे
गुड्डे-गुड़िया रंग-तमाशे

नानी ले गई लोरी भी संग
इक गोली में नींद बंद है
शहज़ादा भी राह भूल कर
चला गया है क़िले जीतने
ख़्वाब नगर में लगा है कर्फ़्यू
सन्नाटों का हद-आलम है

दिन का क्या है
आता है फिर ढल जाता है
सूरज चाचा की आमद से
क्या दिन भी उग आता है?

इतना सब गुम जाने के बाद भी ईद के आने का रास्ता नहीं गुमा। ये आती रहेगी। इसे आते रहना चाहिए। ये हर साल आने वाली ईद और हमारे भीतर ठहरी ईद कोई दिन गले मिल कर रो पड़ेंगी। तब सब ठीक हो जाएगा।

इस उम्मीद के साथ मुबारक रहें ईदें, मेरे गुमे हुए दोस्तों!

बाबुषा कोहली हिंदी की सुपरिचित कवयित्री और गद्यकार हैं। उनका एक कविता-संग्रह ‘प्रेम गिलहरी दिल अखरोट’ शीर्षक से भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो चुका है। यहाँ प्रस्तुत गद्य कविता उनकी नवीनतम पुस्तक ‘बावन चिट्ठियाँ’ से साभार है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें :  तुम्हारी हूक से जन्मे सात रंग और हत्यारा प्रेम

1 Comment

  1. Alive hopes मई 24, 2020 at 3:44 अपराह्न

    सुकूनू की बात है कि बाबुशाएं हैं तो ईद का पता है, चांद बहाना भर मौका है फकत , पूरे बरस दिलो दिमाग में पैबस्त ईदें हमेशा हमेशा महफूज़ रहेंगी क्योंकि उम्मीदें लफ़्ज़ों का नाम नहीं, जिंदा रहने का सबूत है
    ईदें हैं तो बाबुषा का पता मिलता है ,
    अब वक़्त ही तय करे कि बाबुषा का एहसान ईद पर है या फिर ईद का ………… !

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