सफ़र ::
बेंजामिन लॉ
अँग्रेज़ी से अनुवाद : धर्मेश
गेशिया : एडवेंचर्स इन द क्वियर ईस्ट
अध्याय : हिंदुस्तान
दिल्ली से छह घंटे की टैक्सी यात्रा के बीच मैं एक पाख़ाने की बदबू वाले सीमेंट के बने पेशाबघर के सामने यह सोचते हुए रुका कि मैंने कोई ग़लती तो नहीं कर दी। मेरे अनुमान से हम ‘कहीं नहीं’ पहुँचे थे और यह मुझे परेशान कर रहा था। ‘कहीं नहीं’ कोई जगह तो थी नहीं, लेकिन जब आप हिंदुस्तान में अकेले एक ऐसे ड्राइवर के साथ हों जो अँग्रेज़ी नहीं बोलता हो और आप दोनों बिफरे जा रहे हों कि किसी को भी नहीं पता कि आप कहाँ हैं… एकदम ठीक बता पाना थोड़ा मुश्किल है। साथ ही ठंड मेरा माथा सुन्न कर दे रही थी। ठंड मानो बहते हुए मेरे बीनी, दस्ताने, कई परत वाले थर्मल से होते हुए, मेरी जींस के नीचे और जूते तक में घुस गई थी। मुझे किसी ने नहीं बताया था कि यह महाद्वीप आर्कटिक-सा महसूस होगा।
हमारी मंज़िल हिंदुस्तान के पवित्र शहरों और तीर्थों में से कोई एक थी। लेकिन नक़्शे पर हमारा निशाना किसी सड़क किनारे का कोई क्लस्टर था, मानवता की कोई झटपट कैमियो उपस्थिति; जो कि आसानी से मिस किया जा सकता था।
मैंने ज़िप चढ़ाई और कैब की पिछली सीट पर खिसक लिया। ड्राइवर ने अपना सिर हिलाया और पैसेंजर सीट को नीचे कर मुझे दिखाया कि मैं एकदम सपाट होकर लेट सकता था।
‘‘सो जाओ…’’ उसने इशारा करते हुए कहा, ‘‘आप सो जाओ।’’
रात के डेढ़ बज रहे थे। मुझे उसकी बात सही लगी।
जैसे-जैसे मुझे नींद आई, ड्राइवर ने बाहर से आती ठंड को रोकने के लिए भीतर हीटर बढ़ा दी। बाहर, हिंदुस्तान के मौसम विज्ञान के रिकॉर्ड टूटते रहे और ठंड बढ़ती रही। देश भर में धुंध और कोहरे से ट्रेनें लेट होती रहीं और छूटे हुए मुसाफ़िर मुँह ढाँपकर स्टेशन के फ़र्श पर सोए रहे, जो किसी हादसे के बाद एक चलताऊ मुर्दाघर-सा दिखता था। उस रात हिंदुस्तान के सबसे अधिक जनसंख्या वाले राज्य पड़ोसी उत्तर प्रदेश में ठंड से कुछ लोग मर गए।
ड्राइवर ने मुझे तीन घंटे बाद उठाया। हम एक ऐसी जगह पहुँच गए थे जो ख़ुद को कोई यूनिवर्सिटी कहती थी, लेकिन थी नहीं; बल्कि यह एक तरह का स्वास्थ्य शोध संस्थान, कॉन्फ़्रेंस सेंटर और योग आश्रम का मिला-जुला कोई रूप था। सड़क पर चलते इसके मिस हो जाने की संभावना ही नहीं थी : गेस्ट हाउस का प्रवेश विशालकाय, गर्म चमकती रोशनियों से लैस एक सफ़ेद कंक्रीट का फ़्रेम था जिससे हॉलीवुड के किसी स्टुडियो का ख़याल आता था। क़रीने से काटे गए रास्तों के किनारों पर जर्बेरा और गुलदाउदी पौधों के बीच नए ताड़ के पेड़ उगे थे।
मिलिट्री के कपड़े पहने स्टाफ़ ने मुझसे मेरे काग़ज़ माँगे और फिर ख़ुद को ठंड से बचाते हुए अपने कंधों पर एक भारी कंबल और अपने चेहरे पे बालाक्लावा के जैसे स्कार्फ़ डाले मुझे मेरे कमरे तक छोड़ आया। मेरा बाथरूम सीमेंट का एक स्लैब था जिसमें एक बेसिन और नल थे। शॉवर काम नहीं करता था तो मैंने वैसे ही नहा लिया जैसे अधिकतर हिंदुस्तानी नहाते हैं : एक बड़ी बाल्टी में जितना हो सके उतना गरम पानी भरकर ठंडे कंक्रीट पर बैठकर ख़ुद को एकदम रगड़ दिया। बिस्तर में मैं कंबलों में ही छिपा रहा। मुझे काफ़ी देर तक नींद नहीं आई : अँधेरे में चमकने वाली मेरी घड़ी बता रही थी कि मुझे जल्दी ही उठना पड़ेगा। दो घंटे से भी कम में मुझे उस गुरु से मिलने का मौक़ा मिलेगा, जिससे मिलने के लिए मैं यहाँ आया था। हिंदुस्तान के सबसे ताक़तवर और प्रभावशाली आदमियों में से एक, उसके योग और उसकी आयुर्वेदिक दवाइयों से प्रभावित दुनिया भर में उसके लाखों भक्त थे। ऐसा माना जाता था कि उसके सुझाए अभ्यासों से कैंसर और डायबिटीज तक ठीक हो सकता था, लेकिन उसका सबसे विवादास्पद दावा यह था कि वह लोगों की समलैंगिकता ठीक कर सकता था। ज़ाहिर है कि ऐसा दावा मैंने पहले सुना था, लेकिन यह आदमी अलग था।
हिंदुस्तान में उसे कई नामों से जाना जाता है, लेकिन संक्षिप्त रखने के लिए हम उसे ‘बाबाजी’ ही कहेंगे। किसी भी हिंदुस्तानी को सड़क पर बाबाजी की तस्वीर दिखाओ और वह इसे तुरंत पहचान जाएँगे। हिंदुस्तान भर में परंपरागत आयुर्वेदिक दवाख़ानों पर उसकी तस्वीर चस्पाँ थी : लंबे-पतले-काले बाल, घनी दाढ़ी, प्यारा और हमेशा मुस्कुराता चेहरा। अपनी जवानी के दिनों में वह सेब जैसे गालों वाले अमेरिकी अभिनेता मार्क रफ़ेलो का हिंदुस्तानी वर्जन लगता था। किसी को भी बाबाजी की असली उम्र नहीं पता थी, लेकिन ज़्यादातर जन ऐसा मानते थे कि वह चालीस-पचास बरस का होगा।
बाबाजी साधु का सादा जीवन जीता है—उबली हुई सब्ज़ियाँ, सेक्स पर कड़ी रोक, दिन भर वही भगवा कपड़े—और ख़बर थी कि उसके नाम कोई बैंक खाता भी नहीं था, लेकिन वह बेहद अमीर था। उसके योग-शिविरों, आयुर्वेदिक दवाओं, फलों के रस और प्राकृतिक प्रसाधनों के सामान का साम्राज्य पच्चीस मिलियन अमेरिकी डॉलर (लगभग 180 करोड़ रुपए) का है। दुनिया भर में अपने आठ करोड़ अनुयायियों और दो करोड़ लोग जो उसे रोज़ टी.वी. पर देखते उनके लिए बाबाजी केवल एक योग प्रशिक्षक नहीं था, बल्कि एक धार्मिक नेता और कल्ट था। भले वह हिंदू हों या सिख, मुस्लिम या ईसाई; बाबाजी कहता था कि हर कोई उसकी सीख से फ़ायदा ले सकता था। लेकिन बाबाजी की सभी सीखों में सबसे अधिक विवादास्पद सीख यह थी कि समलैंगिकता एक शर्मनाक और गंदी बीमारी है और उसके पास इसे ‘ठीक’ करने के तरीक़े हैं।
बाबाजी के हेडक्वार्टर के बाहर अभी भी अँधेरा था। हमारे साथी योगियों को हमने दरवाज़े खोलते, बत्ती जलाते और चहलक़दमी करते सुना। बाहर लगे लाउडस्पीकरों ने हमें हमारे कमरों से बुलाया।
”योग अभ्यास ठीक 5:45 पर शुरू होगा…” उन्होंने अँग्रेज़ी में घोषणा की : ”योग अभ्यास ठीक 5:45 पर शुरू होगा।”
हम धीरे-धीरे बाहर आए—छाती से हाथ बाँधे और अपनी साँसों की भाप देखते हुए हम एम्फ़ी थिएटर की तरफ़ जाते हुए हुजूम की धार से जुड़ गए। अधिकतर लोग हिंदुस्तानी थे, लेकिन कुछ लोग बाहर से आए थे। कुछ पूर्वी एशिया के थे, लेकिन बाक़ी अमेरिका, यूरोप और ऑस्ट्रेलिया के गोरे लोग थे—हिप्पी जो रिटायर हो चुके थे और मोक्ष की तलाश में थे। सबने अजीब-अजीब से कपड़े पहने हुए थे। ठंड के कारण कई कपड़े पहनने थे, लेकिन हम योग करने जा रहे थे; जहाँ खुले और हवादार कपड़ों की ज़रूरत थी। लोगों ने थर्मल लेगिंग्स के ऊपर ढीले ट्रैकसूट पैंट और फर के दुपट्टे; पॉलिस्टर जैकेट और थाई मछुआरों के पतलून-सा कुछ ब्लेज़र के साथ पहना हुआ था।
जब हम योग हॉल पहुँचे तो मैं देखता ही रह गया। बेहद ख़ूबसूरती से चमकता हुआ एम्फ़ी थिएटर एक बड़ी जगह थी, जहाँ 2,50,000 स्क्वायर फ़ीट का सीमेंट का फ़र्श और गद्देदार कपास की चटाइयाँ थीं। कहानी है कि बाबाजी ने एक छोटे से 250 स्क्वायर फ़ुट के कमरे में योग सिखाना शुरू किया था। यह एम्फ़ी थिएटर उससे एक हज़ार गुना बड़ा था।
जैसे-जैसे संगीतकारों ने स्टेज पर ड्रम बजाया, हमने अपनी सुबह की अकड़न तोड़ी। हम चटाई पर बैठ गए और अपने पैर सामने रख दिए और अपने घुटने खींचे। स्टेज पर हलचल हुई, एक भगवा छाया ज्यों उभरी तो हम तुरंत समझ गए कि वह बाबाजी था। बाद में हमने भीड़ को उसके पास जाकर उसके पैर छूकर जल्दी से पीछे होते देखा, मानो वे पवित्र आग छू रहे हों। हम सब उसकी हाज़िरी मानने के लिए खड़े हुए। सबको देखते हुए मैंने अपने दोनों हाथ सैल्यूट के लिए उठाए और उसकी तरफ़ एक ‘ॐ’ की आवाज़ निकाली। हिटलर यूथ के नेपथ्य से महसूस होते हुए भी यह एक ख़ूबसूरत चीज़ थी : लोगों का एक हुजूम अपनी आवाज़ एकीकृत करते हुए। ऐसा लग रहा था मानो हम एक तत्त्व-मैमांसिक स्तर पर जुड़ गए थे।
बाबाजी ने हमें बैठने के लिए कहा।
‘‘सबका स्वागत है…’’ उसने माइक्रोफ़ोन में कहा और उसकी आवाज़ सब जगह गूँज गई।
वह अपने हमेशा के कपड़ों में ही था—भगवा, वही रंग जो आपको रेव (पार्टी) में मिलेगा। स्टेज के दोनों तरफ़ बाबाजी का चेहरा बड़े पर्दों पर दिख रहा था, जैसे कि वह यू2 (बैंड) कन्सर्ट में बोनो हो। पास से उसके नाक-नक़्श सब साफ़ दिखते थे। वह प्रोग्राम की तस्वीरों से बूढ़ा था। हालाँकि उसकी दाढ़ी उतनी ही स्वस्थ और घनी थी—एफ़्रो स्तर के घनत्व के साथ एक उल्टा मधुमखी का छत्ता। यह एक ऐसी दाढ़ी थी जिसमें आपकी चम्मच-छुरी खो सकती थी।
चंद क़दमों में बाबाजी ने अपने सिर से पाँव तक के कपड़े को बाँध-लपेटकर उसे बेहद छोटे शॉर्ट्स की तरह पहन लिया। अपनी मशहूर छाती के घने बाल दिखाते हुए उसने धीरे-धीरे और एकदम सलीक़े से व्यायाम कराया : धीरे-धीरे कूदना, बिल्लियों की तरह अंगों को खींचना, घुटने को छाती तक लाना, पुल के जैसे रीढ़ को खींचना… आख़िरी स्ट्रेच के दौरान हमारे सामने एक अधेड़ हिंदुस्तानी महिला ने पाद मार दी—एक बुझी हुई चूतड़-तुरही, जो हॉल में गूँज गई। हमारे बग़ल वाला आदमी स्ट्रेचिंग छोड़कर सिर के बल मैट पर लोट गया और ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा।
‘‘दीज आर ट्रेडिशनल इंडियन एक्सरसाइजेज…’’ पाद को अनदेखा करते हुए बाबाजी ने कहा। व्यायाम और क्लिष्ट होते गए : रशियन कोज़ैक-पैर पटकन, थालिडोमाइड-बेबी-कोहनी की ताली। सूर्य-नमस्कार के अभ्यास के संग हमने हौले से सहजता में प्रवेश किया, लेकिन जल्द ही बाबाजी उन्हें ऐसे कर रहा था जैसे कोई ब्रेकडांस, यों क्लिष्ट तिकड़म कि जिसे देखकर लगे कि अधिकतर लोगों को हमेशा के लिए रीढ़ की चोट लग जाए।
बाबाजी ने पुश-अप के आसन में ज़मीन पर हाथ टिकाया और झट से अपनी बाँहों के बीच से अपनी पूरी देह बाहर ले आया… ऐसा उसने कई बार किया और उसके बाद पालथी मारकर बैठ गया ताकि वह प्राणायाम के साथ हमें कुछ नया करके दिखा सके। अपनी आँखें बंद कर, उसने अपना पेट भीतर खींचा जिससे उसकी पसलियों में एक गड्ढा बन गया—इतना बड़ा कि आपका चेहरा उसमें समा जाए। उसने अपना पेट तेज़ी से आगे-पीछे मोचाड़ना शुरू कर दिया, जैसे भुकभुक करता कोई लावा लैंप। हमने ताली बजाई। यह उतना ही आकर्षक था जितना कि भद्दा।
अगर यही सब करने से गे लोग ठीक होकर स्ट्रेट हो जाते हैं, तो मैं अपनी पूरी ज़िंदगी गे ही रहूँगा।
जैसे-जैसे कॉन्फ़्रेंस आगे बढ़ी मैं बाबाजी से आह्लादित होने लगा। वह जो कहता उसकी अधिकतर बातें काम की थीं। उसने लोगों को कम मांस खाने के लिए कहा; सिर्फ़ इसीलिए नहीं कि ये एक अच्छी हिंदू आदत थी, बल्कि प्राकृतिक कारणों के लिए भी। वह अपना खाना अच्छे से चबाने, अच्छी सब्ज़ियाँ खाने और एसी-हीटर का कम इस्तेमाल करने में विश्वास रखता था, क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग और ऊर्जा-खपत की उसे परवाह थी। और जो लोग वहाँ आए थे, उन्हें वह हिंदी में ‘संत और दृष्टा’ कहता था।
दुपहर में बाबाजी ने बड़े से ऑडिटोरियम में प्रश्नोत्तर का सेशन लिया। कॉन्फ़्रेंस कराने वाले बाबाजी के पास बैठे और ख़तों के भंडार में वे सवाल चुने जो उन्हें सबसे बढ़िया या ग़ज़ब लगे। हम लोग जिन्हें हिंदी नहीं आती थी, वे एक हेडसेट पहने हुए थे जो लाइव अँग्रेज़ी अनुवाद प्रसारित कर रहा था। कुछ सवाल आम थे, बाक़ी अजीब : हार्मोन थेरेपी के बाद औरतों में मोटापा कैसे कम करें? सही कैसे खाते हैं, और कब खाना चाहिए? मासिक के दौरान कौन से योग अभ्यास करने या नहीं करने चाहिए? क्या आप ऑटिज़्म पर कुछ बोलेंगे? मस्क्युलर डिस्ट्रोफ़ी के लिए योग का क्या? हम योग से अपने प्रोस्टेट कैसे बड़े कर सकते हैं? क्या योग मल्टिपल सीलेरोसिस में मदद कर सकता है?
बाबाजी ने सिर हिलाकर सबका जवाब हाँ में दिया : योग इन सबमें मदद कर सकता है। सबमें। उसने कहा कि अगर आप योग करें तो आपको कभी झुर्री वाली क्रीम नहीं लगानी होगी, उसने सबूत के तौर पर अपनी जीवित बहनों के बारे में बताया। योग ऑस्टियिपोरोसिस और कैंसर भी ठीक कर देता है। अगर आपको ग्लुकोमा है तो आई-ड्रॉप या लेज़र सर्जरी की ज़रूरत नहीं है। प्राकृतिक आयुर्वेदिक दवाएँ आराम से इसे ठीक कर सकती हैं। उसने बताया कि असल में, उसने हाल ही में एक आसान प्राकृतिक तरीक़े से एक औरत का ग्लुकोमा ठीक किया। सफ़ेद प्याज़, अदरक और नींबू का रस मिलाकर औरत ने उसे सीधे अपनी आँख में डाला था… इतना सोचकर ही मेरी आँखों से आँसू आ गए।
‘‘मैं आप लोगों को पश्चिम में मरीज़ों को ये सब करने या ऐसी सलाहें देने के लिए नहीं कह सकता…’’ उसने ताली बजाकर डिकरते हुए कहा, ‘‘वहाँ पे आप पर मुक़दमा कर देंगे! तो आप लोग शायद ‘सलाह’ दे सकते हैं उन्हें, लेकिन ये करने के लिए तो मत ही ‘बोलिएगा’! और यह तो मत ही बोलिएगा कि मैंने आपको बताया है!’’ वह फिर से हँसा। मैंने सोचा कि यह उस तरह की हँसी थी जो किसी को अपनी आँख में प्याज़, अदरक और नींबू का रस डालने के लिए मना लेने के बाद आती थी।
फिर सेक्स पर एक सवाल आया।
‘‘जब हम ज़्यादा योग करते हैं तो…’’ कॉन्फ़्रेंस कराने वाले ने अँग्रेज़ी में बाबाजी के लिए पढ़ा, ‘‘क्या हमें और सेक्स करने का मन करेगा?’’
बाबाजी फिर मुस्कुराया—जिसने संभवतः कभी ख़ुद सेक्स नहीं किया था, उसके लिए यह बेहद मनोरंजक था। कॉन्फ़्रेंस में पहली बार सेक्स की बात हुई थी और उसने इसका हिम्मत से सामना किया।
‘‘योग से पति-पत्नी में बैलेंस आ जाएगा…’’ उसने कहा, ‘‘वे अपने हृदय की गहराइयों से एक-दूसरे के लिए ईमानदार होंगे। जब आप योग करेंगे तो सेक्स की बीमारियाँ दूर हो जाएँगी।’’ उसने अपनी बात को सही मानते हुए सिर हिलाया और आगे कहा, ‘‘योग से आपकी सेक्स की इच्छा बैलेंस हो जाएगी।’’
अगले दिन, जब हमें बाबाजी से आमने-सामने मिलने का मौक़ा मिला तो हमें मालूम चला कि झुर्रियों के बारे में उसकी बात तो ग़लत थी, क्योंकि उसकी ख़ुद की आँखों के नीचे काले घेरे बन गए थे; लेकिन उसकी त्वचा अभी भी पॉलिश किए हुए सेब की तरह मुलायम थी। उसके माथे पर एक इकलौती शिकन थी, मानो किसी ने उस पर अपना भोथरा नाख़ून चला दिया हो।
बाबाजी ‘प्राइवेट’ इंटरव्यू देने के लिए तैयार हो गए थे, बशर्ते उसमें उसके अपने आदमियों का हुजूम मौजूद रहेगा। उनमें से एक आदमी जो था वह बिजनेस सूट पहने हुए था जो बाबाजी की हिंदी मेरे लिए अनूदित करता। बाबाजी की अँग्रेज़ी ठीक-ठाक थी, लेकिन अपने जवाब देने के लिए कुछ मदद चाहिए होती थी। उसकी टीम से घिरे हुए जब हम साथ बैठे तो मैंने उसके स्वास्थ्य से जुड़े दावों पर सवाल किया, जैसे कि योग में एचआईवी ठीक करने की ताक़त थी। बाबाजी हँसा—उसे सब कुछ बहुत मनोरंजक लगता था—और बोला कि वह उन दावों पर क़ायम है।
‘‘मैंने कभी ख़ुद एचआईवी ठीक करने का दावा नहीं किया…’’ उसने कहा, ‘‘लेकिन जहाँ तक एचआईवी का सवाल है, मैंने तीन चीज़ें देखी हैं और दावा किया है जो मैं अभी भी कहूँगा। पहला है : वायरल लोड। आपकी रोग प्रतिरोधक क्षमता के लिए जो सीडी4 चाहिए, एचआईवी वाले लोगों में 700-800 से 25 तक आ जाता है।’’
हमने समझते हुए सिर हिलाया कि यह हालत आते-आते व्यक्ति को एड्स हो चुका रहेगा।
‘‘लेकिन प्राणायाम से सीडी4 नॉर्मल हो जाएगा…’’ बाबाजी ने कहा। ‘‘वायरल लोड में कमी तो ज़बरदस्त है। बीमारी नॉर्मल हो जाती है। अभी भी कुछ ऐसे मरीज़ हैं जिन्हें ये सब लाभ हुआ है।’’ उसने मेरी आँखों में देखा मानो मुझे चुनौती दे रहा हो। ‘‘अभी भी आप जिस मरीज़ को यहाँ भेजना या ये सुझाना चाहें, उसके साथ ये काम कर सकता है।’’
एक तरफ़ मैं प्रभावित था : बाबाजी को एचआईवी की भाषा और सीडी4 के बारे में मालूम था और यह भी कि वायरल लोड कैसे काम करता है। लेकिन अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए एड्स के मरीज़ साँस लेने का अभ्यास करें?
‘‘फिर 2009 में, सेक्शन 377 के निरस्त होने के बाद…’’ मैंने बोलना शुरू किया।
बाबाजी ने सिर हिलाया और अपना हाथ उठाकर मुझे रोका, उसे मालूम था कि मैं क्या पूछने वाला था।
‘‘जब मैं अमेरिका या इंग्लैंड जाता हूँ गे समुदाय—गे लोग—मुझे देखते हैं और सोचते हैं कि ओह! ये एक ख़तरनाक आदमी हो सकता है।”
वह फिर हँसा। वह अपनी टीम की तरफ़ भवें उठाते हुए मानो पूछ रहा हो—क्या मैं ठीक कह रहा हूँ? उन्होंने सहमति में सिर हिलाया और हँस दिए।
‘‘लेकिन मैं उनकी इस हालत के बारे में सकारात्मक सोचता हूँ! यह एक आदत है। ग़लत आदत है, और मानसिक बीमारी भी।’’ उसने अँग्रेज़ी में कहा, मानो वह अपनी बात को और आधिकारिक बना रहा हो।
‘‘समलैंगिकता…’’ उसने कहा, ‘‘एक बुरी मानसिक आदत है।’’
उसके अनुवादक ने घूरकर मुझे देखा—यह सुनिश्चित करने के लिए कि मुझे समझ में आ गया है। मैंने सिर हिलाया।
‘‘ये विकार एक ऐसी सीमा तक जा सकता है…’’ बाबाजी चालू रहा, ‘‘जहाँ लोग जानवरों के साथ सेक्स करना चाहेंगे।’’
‘‘ठीक…’’ मैंने नोट लेते हुए कहा, ‘‘तो ये एक बदलता हुआ स्केल है। एक स्पेक्ट्रम।’’
बाबाजी ने अपना हाथ पलटा और सिर हिलाया और बोला, ‘‘ये विकार का विस्तार है—सामान्य यौन-इच्छा से विकृत यौन-इच्छा तक। अधिकतर गे आदमी? वे पता है! असल में स्ट्रेट हैं! उनके औरतों से रिश्ते होते हैं, लेकिन वे कभी-कभी समलैंगिक व्यवहार रखना चाहते हैं। तो ये आमतौर पर एक विस्तार-सा है, सामान्य व्यवहार का एक विकृत विस्तार।’’
‘‘और समलैंगिक औरतों का क्या?’’ मैंने पूछा।
चुप्पी।
‘‘लेस्बियन…’’ अनुवादक ने अँग्रेज़ी में मनहूसियत से कहा।
बाबाजी मेरी तरफ़ देखकर मुस्कराया, जैसे उसने कोई गंदा मज़ाक़ सुन लिया हो।
‘‘वह भी वही चीज़ है! अगर वे सही में लेस्बियन होतीं तो आप कह सकते थे कि ये बायलोजिकल है। लेकिन व्य्वहार से वे भी स्ट्रेट हैं। केवल कुछ ही—एक प्रतिशत—ही प्योर स्ट्रेट नहीं हैं, प्योर गे या लेस्बियन हैं। अधिकतर को एक दूसरे से यौन-आकर्षण नहीं है, बल्कि व्यक्ति के तौर पर है। और फिर यह हो जाता है…’’
‘‘कुछ और?’’ मैंने पूछा।
‘‘कुछ और…’’ उसने कहा, ‘‘इन रिश्तों का एक सामान्य वर्ण हो सकता है, लेकिन विकृत भी हो सकता है। प्राणायाम और ध्यान का अभ्यास हमें इस पर क़ाबू करना सिखा सकता है, हम इस बुरी आदत से बाहर आ सकते हैं। लोग बाहर निकलना चाहते हैं, लेकिन वे इतना आत्मविश्वास महसूस नहीं करते, क्योंकि उनके पास निकलने के साधन नहीं हैं।’’
हमने बाबाजी को कन्फ़्यूज़ होकर देखा। मुझे यह समझने में वक़्त लगा कि वह ‘बाहर निकलने या ‘कमिंग-आउट’1कम आउट [ऑफ़ द क्लॉज़ेट], क्लॉज़ेट से बाहर निकलना, वह प्रक्रिया जिसमें क्वियर पहले ख़ुद को फिर दूसरों को अपनी पहचान के बारे में बताते हैं। का सामान्य अर्थ नहीं लेकर, उल्टा समलैंगिकता की ज़िंदगी से ‘बाहर आने’ की बात कर रहा था। उसका चमकता चेहरा देखकर मुझे असमंजस हो रहा था : वह जो कह रहा था, उससे मुझे विरोध तो हो ही रहा था; लेकिन फिर उसके प्यारे-प्यारे गाल पकड़कर खींचने का भी मन हो रहा था। वह जो इतना उन्मादी और नफ़रती था, वह कार्टूनी तरीक़े से प्यारा भी था। वह कितना ही/भी बुरा हो सकता था?
‘‘आप कह रहे हैं कि आप ये सब ठीक कर देंगे…’’ मैंने पूछा।
बाबाजी ने साँस ली—‘‘प्राणायाम और ध्यान सहायक हो सकता है।’’
तो बाबाजी का ख़तरनाक प्रोग्राम सही से साँस लेने के बारे में था? दुनिया भर में सिखाए जाने वाले योग में साँस लेने वाली तकनीकों का आधार प्राणायाम ही है। हमने ऑस्ट्रेलिया की अपनी योगा क्लास के बारे में सोचा। अधिकतर ये क्लासें गे आदमियों से भरी होती हैं, जिनकी रीढ़ में अगर ऑपरेशन से मेटल रॉड भी डाल दी जाए तो भी वे स्ट्रेट नहीं होंगे।
‘‘क्या आप समलैंगिकता को पश्चिमी आयात के तौर पर देखते हैं?’’
बाबाजी ने कंधे झटकते हुए कहा, ‘‘ये पश्चिमी या पूर्वी चीज़ नहीं है। यह सिर्फ़ एक बुरी आदत है। ये अनुत्पादक सेक्स है! ये बीज को आग में फेंकने जैसा है।’’
‘‘मतलब हस्तमैथुन की तरह।’’
यह शब्द सुनकर सबने सिर हिलाकर मुझे मना किया और नापसंदगी से बुदबुदाए।
‘‘क्या लोग आपके पास सलाह के लिए आए हैं?’’ मैंने पूछा, ‘‘मतलब, मान लीजिए मैं आपके पास आऊँ और कहूँ कि बाबाजी, मैं एक समलैंगिक हूँ; मेरी मदद कीजिए… इस पर आप मुझसे क्या कहेंगे? आप कौन-सी क़दम-दर-क़दम सलाहें देंगे?’’
‘‘बिल्कुल मैं मदद करूँगा…’’ उसने कहा, ‘‘हम लोग प्राणायाम अभ्यास से शुरुआत करेंगे और फिर आगे बढ़ेंगे…’’
‘‘ये इतना आसान है?’’
बाबाजी ने मेरी तरफ़ एक झिड़क भरी नज़र से देखा, जैसे कोई शिक्षक किसी बेवक़ूफ़ बच्चे की तरफ़ देखता हो।
‘‘ये वो चार साँस लेने के अभ्यास हैं, जिनसे अब आप परिचित हैं…’’ उसने कहा।
‘‘अंदर के बदलाव अभ्यास से आते हैं…’’ उसकी टीम के एक आदमी ने अर्जेंटली बुदबुदाया।
‘‘हम्म…’’
बाबाजी अचानक से बिफर गया, ‘‘अगला सवाल!’’ उसने अपना सिर डुलाते हुए कहा। वह आहत हो चुका था।
‘‘बंद करो! बंद!’’
उसकी टीम ने होंठ काटे और अलग कहीं देखने लग गए।
‘‘बंद करो ये!’’
…और इसलिए हमने बंद कर दिया।
बेंजामिन लॉ (जन्म : 1982) ‘द फॅमिली लॉ’ (संस्मरण) ‘गेशिया : एडवेंचर्स इन द क्वियर ईस्ट’ (यात्रा-वृत्तांत) के लेखक हैं। वह ऑस्ट्रेलिया में LGBTQIA+ समुदाय के जीवन से जुड़े संकलन ‘ग्रोविंग अप इन ऑस्ट्रेलिया’ के संपादक हैं। उनके संस्मरण पर बनी टी.वी. सीरीज ‘द फैमिली लॉ’ बेहद मशहूर है। धर्मेश हिंदी की नई पीढ़ी से संबद्ध कवि-लेखक और अनुवादक हैं। यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के क्वियर अंक में पूर्व-प्रकाशित।