फ़ोटो प्रोजेक्ट ::
सुनील गुप्ता और चरण सिंह

सुनील गुप्ता और चरण सिंह

इस दुनिया में जहाँ भारत का अत्यधिक और अतिशय प्रतिनिधित्व हुआ है, कलाकार के तौर पर हम कैसे प्रतिनिधित्व के असार-रिक्त (वोइड) जगहों के साथ संवाद कर सके, यही हमारे समालोचनात्मक कार्य का मूल प्रश्न रहा है।

‘डिस्सेंट और डिजायर’ उसी वोइड (शून्य/रिक्त) के साथ संवाद करने का हमारा एक प्रयास है, जो वोइड निरंतरता से अस्तित्व में है और जो प्रजातंत्र और आज़ादी जैसे बड़े सवालों के लिए विडंबना है। उन समुदायों को रिप्रेजेंट करते हुए (जो भारतीय फ़ोटोग्राफिक परंपरा में क्लिशे से बाहर, और कदाचित् ही शामिल किए गए हैं) उत्पन्न विरोधाभास, हमें अपने नैतिक मूल्यों के बारे में फिर से सोचने पर मजबूर करते हैं, और उन असमानताओं के बारे में सोचने के लिए भी जो केवल शक्ति और विशेषाधिकारों से व्युत्पन्न न होकर ज्ञान/बोध के वितरण पर निर्भर हैं।

इसीलिए, हमारे लिए सवाल यह था कि अपनी फ़ोटोग्राफी प्रोजेक्ट के माध्यम से हम क्यों और क्या ऐसा क्रिएट करना चाहेंगे, जो अपने विषयों को निष्ठा और गरिमा के संग दिखा सके। चमकती हुई दीवारें लंदन और दिल्ली के हमारे लिविंग हॉल की दीवारों से मेल खाती हैं। जहाँ हम सभी बीस सहभागियों को अपनी कहानी साझा करने के लिए बुलाते हैं। यह एक छोटा-सा अंश है उनकी दिनचर्या, उनके काम और विविध नेपथ्यों से सजे उनके घरों के बारे में। एक जगह का निर्माण किया गया; जहाँ वे अपने जीवन, अपनी यात्राओं, अपने क्वियर होने के निजी परिणामों और क्वियर-अभ्यासों को संबद्ध और प्रतिबिंबित कर सके।

एक ऐसी जगह जो वैचारिक तो है ही फिजिकल भी है, जहाँ सहभागी अपनी आकांक्षाएँ और एंग्जायटी साझा करते हैं; जो हमारी आकांक्षाओं और एंग्जायटीज़ का प्रतिबिंब मात्र है, जहाँ उनकी निजी क्लास और भाषा की लड़ाइयाँ हमारे अपने मतभेदों को उजागर करती हैं। उनकी रोज़ाना की ज़िंदगी एक बार में बहुत सादा महसूस हो सकती है, लेकिन वह यह दिखाती है कि लोग कैसे अपने परिवार और समाज के साथ नेगोशिएट कर लेते हैं।

इन सभी संवादों का एक अभिन्न अंग क़ानून की बदलती हुई प्रकृति भी रही है, और कैसे ये बदलाव सबकी ज़िंदगी पर असर डालते हैं। साल 2018 में आए फ़ैसले ने समलैंगिकता की वैधता को पुनर्स्थापित करके आशा तो दी है, मगर प्रेम और सम्मान के संघर्ष अभी भी जारी हैं।

लिली

मैं सड़क पर चलूँ भी तो लोग कहते कि वेश्यावृत्ति करती हूँ। जब हमें कंप्लेन लॉज करानी होती है तो पुलिस हमारा साथ न देकर हमारा यौन-उत्पीडन करती है, हमें अपमानित करती हैं… तो हममें लड़ने की हिम्मत कहाँ से आए?

पवित्र

दस की उम्र से मेरा एक बॉयफ़्रेंड था। यह बिल्कुल महसूस होता था कि था कि “यह किसी के द्वारा स्वीकार्य नहीं है।” काफ़ी हद तक तो ऐसा लगता था मानो यह हमारे साथ ही हो रहा था—केवल हम दोनों के साथ।

गीता

मुझे समलैंगिकता पर क्लूज़ ढूँढ़ने की ज़रूरत नहीं महसूस हुई, क्योंकि संस्कृत और उर्दू पढ़ते हुए मेरे पास वे ख़ूब थे। मेरे लिए क्वियर चीज़ें ढूँढ़ना मेरी रीडिंग का ही हिस्सा रहा। इसका कोई तुक ही नहीं था कि मैं इतिहास से छुपी हुई थी।

कैथ

हाँ, 2009 के जजमेंट ने कुछ अलग किया। यह एक संभावनाओं की खिड़की का खुलना हुआ, जहाँ जीवन में फ़ोर्स्ड सेपरेशन की कोई लगातार एंग्जायटी नहीं थी।

अक्षरा

क्वियरनेस अपनी ज़िंदगी की विभिन्न मित्रताओं, रिश्तों के बारे में सोचने का एक अलग तरीक़ा है। विषमलिंगी या हेट्रोसेक्सुअल रिश्तों को भी विवाह की उन्हीं पुरानी मानकीकृत संरचनाओं का अनुसरण नहीं करना होता।

रंजन

हमारी दुनिया बहुत सीमित है। काम है, जो कम्फ़र्टेबल है। फिर हमारे नज़दीकी मित्र हैं, वे भी कम्फ़र्टेबल, फिर हमारे नज़दीकी परिवार हैं, वे भी बहुत कम्फ़र्टेबल हैं। इस तरह एक तरीक़े से हम काफ़ी निजी जगह में ही चल रहे हैं।

जाहिद

मैंने एक गे डेटिंग साइट पर अपनी प्रोफ़ाइल बनाई। हम ऑनलाइन मिले और ऐसे ही हमारे रिश्ते की शुरुआत हुई। मेरी असली एंग्जायटी तस्वीरों में सुंदर लगने की थी, मतलब फँसा ही रह जाऊँ ऐसी भी नहीं।

पोन्नी

भारत का संविधान इसीलिए स्थापित है, ताकि एक नागरिक के साथ भी हो रहे भेदभाव के ख़िलाफ़ पूरा देश और क़ानून साथ खड़े हो सकें। वे जो यह कहते हैं कि क़ानून मायने नहीं रखता, वे विशेषाधिकारों को निर्विवाद छोड़ देते हैं।

इंदु

मैं किसी भारतीय के साथ रिश्ते में हूँ, और हम दोनों के पास किसी भी देश में समान अधिकार नहीं हैं। जब भी कोई मसला उठता है, सभी विदेशियों को वापस भेज दिया जाता है और वे लौटकर नहीं आ पाते।

राहुल

मेरे लिए यह क्वियर परिवार जो मैंने कई सालों में बनाया है, ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है। एक क्वियर परिवार बना पाना इतना आसान नहीं है। ज़्यादातर लोग बायोलॉजिकल परिवारों में ही फँसे रह जाते हैं।

ऋतुपर्णा

मेरी माँ ने मुझे कॉल किया और बताया कि उन्होंने टी.वी. पर कुछ देखा और ‘पूरा देश इसके बारे में बात कर रहा है…’ उन्होंने पूछा कि क्या मैं भी उनमें से एक हूँ और मैंने हाँ कहा। उन्होंने फ़ोन काट दिया और एक लंबे समय तक फिर दुबारा कॉल नहीं की।

सलीम

मैं ग्रे और गे होकर ख़ुश हूँ। मुझे इस बात की परवाह नहीं कि मैं एकाकी छूटा हूँ। मैं सिंगल हूँ और अकेला नहीं हूँ।

दीप्ति

इस इत्तफ़ाक़ से मेरा जीवन बदल गया। मैंने ख़ुद को एक ऐसी जगह, ऐसे ग्रुप में पाया जहाँ सब यह विमर्श कर रहे थे कि कैसे पितृसत्ता की नींव औरत की सेक्सुअलिटी पर इसके नियंत्रण से स्थापित होती है।


सुनील गुप्ता (जन्म : 1953, नई दिल्ली) वेस्टमिंस्टर विश्वविद्यालय से पीएच.डी. हैं। उनकी तालीम रॉयल कॉलेज ऑफ़ आर्ट से हुई और तब से ही वह स्वतंत्र फ़ोटोग्राफी कर रहे हैं। उनका काम रेस, माइग्रेशन और क्वियर (LGBTQIA+) के आस-पास केंद्रित रहा है। उनका लेटेस्ट शो चरण सिंह के साथ ‘डिस्सेंट और डिज़ायर’ नाम से कोच्ची-मुज़िरिस बिनाले में हुआ। ‘क्रिस्टोफ़र स्ट्रीट 1976’ उनकी नई किताब है। चरण सिंह (जन्म : 1978, नई दिल्ली) दिल्ली और लंदन में रहते और काम करते हैं। वह फ़िलहाल रॉयल कॉलेज ऑफ़ आर्ट, लंदन में पीएच.डी. कैंडिडेट हैं। अपने प्रैक्टिस लेड थीसिस ‘गोइंग साइडवेज़ : एन एक्ट ऑफ़ क्वियर रेजिस्टेंस’ पर कार्य कर रहे हैं। साल 2016 में अपनी सीरीज़ ‘कोठीज़, हिजराज़, गिरियाज़ एंड अदर्स’ के लिए उन्हें मैग्नम फ़ोटो लंदन अवार्ड दिया गया। एड्स और भारत में LGBTQ राजनीति पर भी चरण का शोध-कार्य उल्लेखनीय है। इस प्रस्तुति में प्रस्तुत कथ्य का अँग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद : रिया रागिनी और इस प्रस्तुति की फ़ीचर्ड इमेज : The Guardian 

यह प्रस्तुति ‘सदानीरा’ के क्वियर अंक में पूर्व-प्रकाशित।

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