कविताएँ ::
अभिजीत

अभिजीत

कारण में मुँह जितना

लिखना
प्रेम करने में दर्ज हो चुका था
जैसे बैठ जाना आँख मूँद लेने में होता है

मैं बैठा हुआ था
और लिख रहा था हाथों से बहुत कम
बल्कि हाथों को मूँद कर

तुम्हारे गहरे नीले आसमान में खुलना
जैसे तारों को मूँद कर अँधेरा खुलता है
यह आश्चर्य नहीं है

आलिंगन है

मुझे तुम्हारे बालों में
अपना डूबता चेहरा नहीं
उगती हुई उँगलियाँ देखनी हैं

तुम्हारे पैरों में
महकता है
मेरे देस का इतिहास

मैं उन्हें किताब की तरह पकड़े हूँ

बैठे हुए पढ़ रहा हूँ इन्हें
यही शब्द

जिन्हें देखा कहीं नहीं
और वर्तनी भी ग़लत है

ऊष्मा मूँद चुके उल्कापिंड की तरह
किसी पहाड़ से टकराऊँगा

जल रहे टुकड़े सालों साल तक
इन शब्दों की तरह
ठंडे होने को पड़े होंगे

इन्हें बरसों तक देखा नहीं गया होगा

ये क्यों आए थे यहाँ
इन्हें अब आगे कहाँ जाना है

कोई ढूँढ़ेगा नहीं

इनके होने के कई कारण होंगे
मगर सारे शाब्दिक

तुम जो यह कविता पढ़ते हुए
यहाँ तक आई हो
ऊष्मा हो

और मैं शाब्दिक

मैंने चाहा हाथ

मैंने चाहा हाथ हो
ज़मीन पर टिका हुआ
भीगे हुए छाते की तरह
था नहीं

सिर पकड़े हुए दिन बीत रहे थे
देश युद्ध जीत रहे थे

मैं तुम्हें देर तक नहीं देखता

मैं तुम्हें देर तक नहीं
दूर तक देखता हूँ
जैसे टूट कर देखता हूँ
जैसे पानी किश्तों में स्थानों को देखता है
कभी बाराबंकी पहुँच जाता है
कभी चौक
कभी-कभी सड़क के इस पार से देखता हूँ
सड़क के इज़राइल वाले छोर पर बरसात होती है
दूसरे देशों की बारिश में अपना प्रेम
बहुत देर तक देखते रहने में परिश्रम का बोध है
दूर देखने का काम अचूक जिज्ञासा है
गैलीलियो की याद दिलाता है
गोया तुम्हें देख रहा हूँ या दूरबीन से गैनामीड
बात का सिरा किसी इशारे में
छूट जाता है
तारा टूट जाता है
आकाश में गर्जन की तरह नहीं
तुम्हारे सधे हुए हाथ जिस तरह लगाते हों टाँके
बिना किसी ध्वनि के
यह चमत्कार
घंटों इस काग़ज़ के भूगोल में
यहाँ-यहाँ करते हुए
कई दृश्य कई चित्र कई कविताएँ
यहाँ-यहाँ जैसे और यहाँ
और यहाँ
इस तरह बनाता चला जाता हूँ
तुम्हारे अलग-अलग रूप
देश, नदियाँ, पहाड़, झीलें, पेड़, बच्चे, फूल, कोयलें
एक पृथ्वी है प्रेम करने वाले व्यक्ति का खुला हुआ मुँह
अंधकार से सराबोर ऐसी कि बहुत ठिठुरती हुई
हर तरफ़ युद्ध होते रहते हैं
प्रेम करना इसलिए भी कठिन है कि आप
एक पूरी पृथ्वी की अकेले करने में लगे हैं देख-भाल
पूरी पृथ्वी के साथ किए जाने वाला प्रेम है इस काग़ज़ पर
दूर-दूर तक तुम
दूर-दूर तक तुम

कविता अपने जर्जरीभूत रूप में

कबीर के निर्भय निर्गुण से मेल खाती एक और
समकालीन कविता
कविता के ऊपर लिखी जा रही अद्भुत
विश्लेषणात्मक पंक्तियों की शृंखला में
एक और समकालीन कविता
इस तरह से रोटी तोड़ने के विषय में
दाल-चावल कविता
महँगे ब्याह पंडाल में पनीर टोफ़ू कुकुरमुत्ते के
विरोध में खड़े हुए
प्रत्याशी-कवियों-कवयित्रियों की परवल-कविता
करेला-कविता नारियल-कविता
गोभी-कविता जैसे कई प्रयासों को देखते बनती
नमक-घी कविता
पिता जी के बचपने में गर्भ है इस कविता का
पापा का फूला हुआ
ग़ुस्से में लाल-पीला होता मुँह
मेरे इतना कहने पर कि ‘ये नहीं खाना’ कविता को
उपमा-तिल उपमा-मस्सा दे गया
पीठ पर एक भद्दी गाँठ
डॉक्टरों की राय में अहिंसक
जैसे माँ का हर बार ठहाके लगाते हुए छाप देना
पंजे से पृथ्वी-अंक
भूरे रंग पर भूरा-लाल
कविता पर कविता लिखे जाने की समकालीन कविता
निर्भय निर्गुण कविता के ऊपर
किम-जॉन्ग-उन कविता
प्यूटिन-ट्रम्प इन कविता ऑफ़ द सब-आल्टर्न
लिप्यंतरण में ध्वस्त हो रहे
आलोचक-घटोत्कच-चेकोस्लोवाकिया-चेक
युद्ध-बास अथवा युद्ध-रास
पे डोरे डालती कविताओं की सूची में गिनती
बढ़ाने हेतु यह गिनती-कविता
विनती-कविता! क्षमा करना पाठक-देव-देवी-देवो!
मगर युग का चरित्र निर्माण उठाओ
और देखो कि हर दिशा में ‘कविता पे कविता पेले रहो’
‘झेले रहो’
बमबारी-गनबारी-टिकटबारी बारियों पर नज़र फेरो
यही है तुम्हारा साहित्यिक विमर्श
जीवन-विमर्श डीमन-विमर्श या कहो भाषा-मल्टीवर्स
गाली-गलौज-मौज-हौज-फ़ौज
(प्रधानमंत्री जी! डॉज!) से भरा हुआ गद्य
गद्य से भरा हुआ समाज-मूल्यांकन
[कविता कहने में क्रोध पहले कह जाना―पन] अपनापन? कहीं नहीं
अपनापन सपना-बन गंगा-मल कल्ला-ज़न
सब एक तरफ़
दुःख की दो-एक झालरों के बीच
(भाषाविद् होने का प्रमाण-पत्र―कविता)
नियमबद्ध कविता
प्रोफ़ेसरबद्ध कविता
पियरबद्ध कविता
क्रिटिकबद्ध कविता अथवा कविताबद्ध कविता
अर्थ तो हइये है बाबू!
बिना अर्थ के कविगण निवाला नहीं उतारेंगे!
मुझे व्यर्थ में चिंता लगी रहेगी
अर्थ है! अर्थ है! (थोड़ी मोहलत दे दो) बस आ रहा
स्ट्रेचर पर लेटा है अर्थ
बेटी जैसा बेटा है अर्थ
जिसके बारे में शेखी बघारने में
कहीं कोई और बात न निकल जाए का अर्थ
(छुपाए रखने पर समलैंगिकता समतल
हो जाती है—अर्बन स्वामीज़) गुरु जी ने
पुड़िया वाले हकीम ने
वज़ीर-ए-आज़म और अज़ीम-ओ-शान-शहंशाह
(सब एक ही हैं) ने किसी भी टिप्पणी से
मुँह फेरा जैसे बात उनके स्तर से
कुछ नीचे की हो
हेटरो-मेट्रो-पेड्रो कविगण ने समलैंगिक प्रेम पर
कथाओं का अंबार चीर-फाड़ कर
अपना कर्तव्य-व्यवहार-व्यवसाय निष्ठा से
निभाया (शार्ट में, चुना लगाया! हाँ, सच में, मैं कह रहा हूँ ना)
सह रहा हूँ न इसलिए परिचित हूँ
कोई कितना समझ रहा है
मेरे उठ रहे रोंगटे और बढ़
रहे रक्तचाप में मेरी समलैंगिकता का भेद
यह पहले शब्द से भाप लेता हूँ
(स्कूल में सुना था किसी सीनियर के मुँह से—
‘कच्छा देख के, नुन्नु नाप लेता हूँ!’)
ऐसे और इस प्रकार के महानुभावों के उपदेशों से
सुसज्जित-लज्जित-फ़क्ड-इट कविता
ठेस से लैस
यानी आपके पेट में गुड़गुड़ी मचाने पर उतारू—
जुझारू—(अब तुम झुको, मैं मारूँ?) कविता
—अभद्र
सब्र तो हासिल-ए-कुन भी नहीं है
दूर-दूर तक नहीं है इन पंक्तियों में इलास्टिक-समझौता
ज़्यादा खींचातानी बुझाओगे तो
और भी ख़राब लिखूँगा
जी, धमकी भी है
प्रेम भाषा नवरस एस्थेटिक प्रोस्थेटिक पथेटिक
आपका अपना मत
आपका अपना योजन-भोजन-स्लोगन-ट्रोजन-हॉर्स!
मेरा? चल रही समकालीन कविता का कोड-मोर्स
आज नहीं
आने वाले सौ? हज़ार? शायद लाख वर्षों में
कोई और बौड़म-गाय-गे-स्ट्रीट-स्मार्ट कवि जब
पढ़ेगा ना ये कविता तब
अनुगूँज में―अर्थ-नून में―मई-जून में―
काव्य-लून में कटेगा बाल उस कविता का जिस में बहुते
होगा पाखंड-डैंड्रफ़
आज ही थोड़े सर चकराया जो आज ही तुम भी
समझ पाओगे
समकालीन कविता निर्गुण निर्भय इतनी कि आसन-राशन—
आनन-फानन सभी में घुस रहा होगा
यह काव्य-गान यह काव्य-स्नान यह काव्य-बाण यह
काव्य-दान
कविता में समकालीनता का प्रभाव नहीं
देखिए, कविता चलते हुए प्रवेश कर रही है हर एक
ध्वस्त हो चुके मापदंड के
हरे अभाव में
कविता-गाँव में
कविता-छांव में
(देखो कुत्ता! कुत्ते जी के भाँव-भाँव में)

समय

एक बूढ़ा ग़रीब व्यक्ति
चप्पल नहीं पहने हुए है जितना ग़रीब
कैरी के रंग का कुर्ता पहने है
कैरी के रंग की ही पुतलियाँ हैं उसकी
कैरी के रंग की फुंसी है नाक पर
बहुत बूढ़ा ग़रीब कच्ची कैरी की तरह कठोर होता है
वह मेरे पास समय पूछने के मन से
रुकता हुआ मेरे पास आता है
मैं डरता हुआ झेंप जाता हूँ
इतना ग़रीब व्यक्ति
मैं उसके व्यक्ति होने की विवशता से
बहुत डरता हूँ कि यह विवशता
मेरे शब्दकोश में गंदगी है
बहुत डरा हुआ नौजवान कवि हूँ
इतना ग़रीब मैं भी हूँ
मेरी तरह वह भी मेरे झेंप जाने से डरता है
उसकी तरह मैं भी मौन को अपनी
श्रेष्ठतम पूँजी समझता हूँ
वह बहुत थका हुआ दिखता है
दिखाई देने में वह चलती-फिरती थकान के अंदर
पतली-खोखली हड्डियाँ हैं
सूख रहे ख़ून में थोड़ा बहुत मांस
थकान चलती हुई मेरे पास आई तो डर गया था
नौजवान कवि होने की हैसियत से
अपने डर को नाना प्रकार से सही क़रार दूँगा
अपने डर को अपने सामने नहीं रख सकता
इतनी बड़ी थाली नहीं है मेरे घर में
इतना ग़रीब मैं भी हूँ
यही दोहराता रहूँगा
अपने मन में अपने विरुद्ध नौजवान कवि
हर एक को एक बूढ़ा ग़रीब व्यक्ति ही समझते हैं
झेंप जाते हैं
डरते हैं
विचलित होते हैं
कवि लिखते हैं विचलन पर कविता
और मैं लिखता हूँ विचलन से कोसों दूर वह स्थान
जहाँ तक की यात्रा विचलन से न हुई
वहाँ कोई व्यक्ति विचलित नहीं होता
वहाँ बह रहे ख़ून से किसी को ऐतराज़ नहीं
वहाँ की सरकार मनुष्यों को
दिन-रात अपने मल से नहलाती है
वहाँ के लोग आपस में विवाद के अतिरिक्त
आपस में बने रहने का कोई और कारण
नहीं खोज पाए हैं
वहाँ हमारे कवि चले गए
तो विचलन का दौरा पड़ जाएगा
वहाँ के लोग तो आदी हैं
और आदिवासी हैं उन लोगों से भी कोसों दूर
वह स्थान मैंने इस कविता में दिखाया
तो हमारे पाठकों को
झेंप का लकवा मार जाएगा
जैसे मुझे मार गया था
उस बहुत बूढ़े ग़रीब व्यक्ति के
समय पूछने पर
समय अच्छा तो बिल्कुल भी नहीं है
मुझे और यात्राओं पर जाने की आवश्यकता है
हम सब एक ही स्थान से
दूसरे स्थानों पर लिखते हुए निर्दयी लगते हैं
निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं
पाठक और उनके प्रिय कवि
सबसे उदास कविता लिखने का
सबसे उदास कविता पढ़ने का
यह ओछा जीवन व्यतीत करने की उदासी से अनभिज्ञ
दूसरे स्थानों के लोग मूँछ रखने से डर रहे हैं
एक व्यक्ति आवेश में आता है
नालंदा को आग लगा देता है
इतिहास नहीं जलाया जाता
कलाएँ नहीं ध्वस्त होती हैं
केवल मनुष्य कमज़ोर होता है
केवल भुखमरी को बल मिलता है
खाड़ी देशों की लड़कियाँ टेलीविज़न पर चीखती हैं
एक देश अपने नागरिकों को
खाने में सिर्फ़ नमक देता है
नमक खा-खा कर औरतें भी नमक हो गई हैं
एक अतिरिक्त खाने की प्लेट पर
एक अतिरिक्त किसी की चुटकी में
एक अतिरिक्त किसी के शर्बत में
एक बहुत ही खारा देश हैं औरतें
और अपने उस देश से
हम नमक चुराते रहे अपने खाने के लिए
अपना झूठा दुःख रोते रहे
व्यर्थ रहा वह देश और उसके सच्चे नागरिकों का
टेलीविज़न पर आ-आकर बिलखना
टेलीविज़न बंद होने पर दिखता है
कमरे से निकलता हुआ
एक व्यक्ति जो स्कूल के बच्चों को भून देता है
एक व्यक्ति जो हर दूसरे से घृणा करता है
एक व्यक्ति जो अपने धर्म का पक्ष लेते हुए
लड़कियों को रंडी कहता है और गौरवान्वित है
एक व्यक्ति जो हर रविवार को चर्च की परंपरा अनुसार
रेडियो पर इन दिनों को देश के स्वर्णिम दिनों में गिनता है
देश में कलाकारों से लोग पूछते हैं
कितने में बिकोगी
क्या दाम है तुम्हारा
कितनों से मरवा के आयी हो
और यह सब देखता हुआ देश झेंपा हुआ नहीं है
ख़ुशहाल है और समृद्धि को अग्रसर भी
ख़ुशहाली के इंडेक्स में कोई दम नहीं है
दुनिया के सभी पत्रकार वेश्याओं के बेटी-बेटे हैं
और हम सभी इस कविता को लिखने-पढ़ने के लिए
जासूसी संस्थाओं से भाड़े पर बंधुआ मजदूर हैं गिरवी हैं टट्टू हैं
एक बूढ़ा बहुत ग़रीब व्यक्ति
ટાઈમ શુ થયુ છે
नहीं कहता है
वह इशारा करते हुए क़रीब आता रहता है
जैसे देश के क़रीब आता हुआ दिख रहा है इतिहास
इशारा करते हुए कि मैं और वह एक दूसरे के काम आ सकते हैं
झेंपने वाले कवि अपनी कविता में
इतिहास के विद्यार्थी नहीं बन पाते
बीच वाली उँगली दिखाते हुए फ़क यू कहने के आदी हैं
और इस पृष्ठ के ठीक उलटे भाग पर आदिवासी हैं
पर कवियों के अंदर ग़ुस्सा है
और झुलसा देने वाली धूप में मोर्चा है
(पावर्ड बाय इंस्टाग्राम)
देश जहाँ नहीं हैं
उस स्थान से लिखने वाले
देश पर अच्छा लिख रहे हैं
सब सच्चा-सच्चा लिख रहे हैं दुःख
सब बचा लेंगे देश को
वह जिसका नक़्शा भर पाना भूगोल की कक्षा में कठिन था
उस पर आज न ही मूतने वाले कम हैं
न ही मूता हुआ पोंछने वाले
चाटने वाले तो देश के नौजवान कवियों की फ़ेहरिस्त में
सबसे ऊपर हैं अपनी सबसे उदास कविता काँख में लिए
अपने ट्विटर पर
अपने फ़ेसबुक पर
वर्चुअल काँख में दबाए हुए हैं संविधान की वर्चुअल कॉपी
जिसे रेफ़रेंस के लिए रखा है
पढ़ा नहीं है
आख़िर रेफ़रेंस कौन पढ़ता है
बूढ़ा ग़रीब व्यक्ति केवल समय जानना चाहता है क्या हुआ
नौजवान समय का भरपूर उपयोग करना चाहते हैं
देश इस समय से बच निकलना चाहता है
सरकारें इस समय एक कॉन्फ़्रेंस की तैयारी में जुटी है
बच्चे अपने माता-पिता से समय चाहते हैं
पंखा ऐसी गर्मी के समय में कटी हुई बिजली का शिकार है
बंद पड़ा है इस समय लोगों के दिल तक का रास्ता
पेट से होते हुए क्या जाता
पेट ख़ाली है और इतना सँकरा रास्ता है
कि दूसरी तरफ़ से लौटते हुए
यात्री इस तरफ़ से आने वालों की
हत्या करने में नहीं हिचकिचाते हैं
आज का समय एक ख़ाली पेट है और सँकरा रास्ता है
और टेलीविज़न पर विचलित करने वाले दृश्य
और सड़क पर आते ही किसी को भी न दिखने वाली हिंसा
आज का समय इज़ अ लॉन्ग डे अंडर द सन
उनके लिए जो अपने वातानुकूलित बेडरूम से
कई आंदोलनों का ठेका अपने चौड़े
आठ-सीटर सर पर उठाए हुए हैं
न दिखने वाला एक बहुत ग़रीब बूढ़ा है आज का समय
उसके सरकारी दस्तावेज़ पर उसकी फ़ोटो
सबसे उदास पसीने से साफ़ हो चुकी है
उसका नाम केवल आधा बचा है
वह भी उपनाम है
और सड़क पर चलने वाले दूसरे नौजवान बता रहे हैं
कि चमड़ा सीने का काम है
उसका वह जो चला जाता है तपती धूप में
चप्पल नहीं पहने हुए है जितना ग़रीब बूढ़ा व्यक्ति
देश अपना चमड़ा सीए जा रहा है
पूरे देश को धिक्कार की नज़र से देखता हुआ
आज का नया बन रहा सेवन-स्टार मल्टी-स्टारर मल्टी-बिलिनेयर देश
जैसे देखा जाता है
एक बूढ़ा ग़रीब व्यक्ति
टेलीविज़न पर ग्राउंड ज़ीरो रिपोर्टिंग और
नौजवानों के वर्चुअल ग्राउंड ज़ीरो का मोरल एस्थेटिक
उनके दिल को मुलायम बनाए रखने के लिए
सस्ता टिकाऊ बिना एक्सपायरी वाला सनस्क्रीन
बिना ख़र्च किए दाम नौजवानों का इंस्टेंट रिएलिटी चेक
इंस्टेंट रामेन खाते हुए
इंस्टेंट आंदोलन से ब्रेक लेते हुए एक मार्मिक दृश्य
एक बहुत ग़रीब बूढ़ा व्यक्ति मेरे पास केवल समय पूछने आया

मैंने घड़ी में देखा और सामने खड़ा था
जवाब माँगता हुआ एक बहुत ग़रीब बूढ़ा व्यक्ति।
समय।

सुजाता से—

तुम्हारी ओर बढ़ते हुए की गिरह खुल रही है
जन-मानस कविता को अपना चुका है
मेरी समझ से परे है आज की प्रेम-कविता
आज से पहले की भी और सबसे पहली प्रेम-कविता भी
मेरी समझ का कासा नहीं भर पाती है
उसमें किसी ग़रीब का झाँकना रह जाता है शेष
शेष नहीं रहना चाहिए प्रेम में कुछ भी
चिड़ियों को बैठे नहीं रह जाना है
पेड़ों को भी जगह बदलनी पड़ सकती है
चले जाना होगा पहाड़ों को दूसरे मरुस्थल को नहलाने
किसी खिड़की से देखी गई सड़क में
सड़क को होना पड़ेगा उपस्थित
बच्चों की बस आ-जा सके उस समय पर
इस व्यवहार को आते-जाते रहना पड़ेगा
शेष नहीं रहना चाहिए खिड़की को भी पीछे घर में
उसे दूसरे दीवाल-घर में से देखने चाहिए
एक-दूसरे की सहायता करते वे लोग जिन्हें हमारे समय में
देखा जाना अनिवार्य है जैसे अनिवार्य है
प्रेम-कविता में इस तरह के दृश्यों का लिखे जाना
प्रेम क्या है? त्वचा है :
तुम्हारी उपस्थिति जिस भी वस्तु को
छू रही हो वह त्वचा है तुम्हारी
तुम्हारे मीठे नयनों से देखा जा रहा हो कोई आंदोलन
तो वह भी स्थान है मेरे विषय-वस्तु का
प्रेम में पीछे जैसा कोई स्थान नहीं है—
मेरी कल्पना में
प्रेम में रहते हुए मेरी दुनिया आगे बढ़ती
लोग हाथ मिलाते हुए साथ भले ही चल रहे हों पर पीछे नहीं
कोई भी घर पीछे छूटा हो यह नहीं लगता
बच्चों का स्कूल जाता रिक्शा
मेरे बचपन से आगे निकल जाता है
मैं भी उस रिक्शे के साथ आगे हो लेता हूँ
पीछे नहीं रह जाता
बारिश मेरे आगे पड़ रही होती है उन खेतों पर
जिन पर मैं सूखे की, अकाल की कविताएँ लिखता उदास होता
उदास होता हूँ पर चलते रहते हुए
मेरे आगे लोग कुचले जाते हैं—
सरकार और न्यायपालिका से
हत्यारे आगे आ-आकर रेत जाते हैं
कॉलेजों के आगे बैठे
सामने से बात करने वाले सीधी-साधी माँओं के
पढ़े-लिखे बेटी-बेटों को उनके पढ़े-लिखे होने का मर जाने से
पहले कोई उपयोग नहीं रह जाता है
यह सब भी होता रहता है मेरे आगे ही
यह भी देखता हूँ प्रेम-कविता ही में तुम्हारे साथ-साथ
तुम्हारे हाथ को पकड़े हुए
हर बात पर ग़ौर किया जा सकता है
(किया जाना चाहिए)
तुम्हारा हाथ है, कोई वातानुकूलित पत्रकारिता तो है नहीं
कि जब चाहा स्वाद-अनुसार तापमान घटा-बढ़ा लिया
यह टुच्चई है, कविताई नहीं
कविताई है हरे का वसंत में फैलना नगर की भुजाओं पर
नगर की क्रियाओं में हर-भर जाना
दिसंबर जैसे प्रेम में अप्रैल का आना, कविताई है
आता ही है अप्रैल, आता ही है और भी आने वाला महीना
गिरता है जिस पत्ते को धूप जकड़ती है अपनी बाँह में
सेंकता हो जिसे प्रेम वह घड़ा गर्म हो-हो टूटता है
टूटना क्यों बुरा है? टूटना ही घड़ा है
पानी तो पहुँच चुका होगा सूखे गले तक यह आशा
टूटे घड़े के टूटने में रहनी चाहिए
मेरे आगे नहीं रह जाना चाहिए
कोई प्यासा इतना लिखा हुआ
तो साकार हो ही सकता है मान के नहीं
जान के चलता हूँ
तुम्हारे साथ रहते हुए प्रेम में हर एक आकांक्षा
दूसरे सभी के स्वाभिमान उनके मत उनके निर्णय अपने आगे
मेरे शेष रहे अनिवार्य कार्यों की तरह देखता हूँ
तुम्हारी देह-प्रेरित अपनी स्मृति-क्रीड़ा में खेल-खेल में
दुनिया को अपनी जगह भर जितना बदलने का प्रयास निभाता हूँ
यह प्रयास खेल नहीं,
बल्कि गहन चिंतन-सा दिल में
रह जाता है बचपन के मेरे अनुभव पर
सफ़ेद कपड़े पर दूसरे रंग के
कपड़ों का छूटा हुआ धुलाई में कूटा हुआ रंग
बचपन के अनुभव में जैसे लगता था कि
जब सोचूँगा तब जेब में अनिवार्य रुपये-पैसे आ जाएँगे
नहीं आए यह भी सत्य है
पर सोचने में कोई ख़र्चा हुआ हो यह याद नहीं आता
मेरे आगे बल्कि दिखाई दिए और भी सुखद अवसर
मन हुआ और भी सोचने का दूसरे के हित में
घरवालों के भाई-बहनों के नानी के अध्यापिकाओं के हित में
सोचने के द्वार खुले जब इतना भी नहीं आता था
कि किस तरह बाँधते हैं जूतों के तस्मे
बताते हैं कैसे घड़ी के दो काँटे में फँसा समय का आसान हल
नहीं आता था जब थोड़ा-बहुत भी मुझे
संसार के आगे पड़ा हुआ वह काम जो था बच्चों की तरह का
तब संसार में न हो सकने वाले काम अपने मन में
संभव पाता था
आज यह बात प्रेम-कविता में होना अनिवार्य पाता हूँ
आज जब तुम नहीं हो यह लिखते हुए
मेरे बग़ल में बैठी किसी किताब में डाले हुए अपना मुँह
अपने मन अंदर संभव पाता हूँ तुम्हारे साथ होने के साथ-साथ
संसार में अपने दायित्व का साकार होना भी
प्रेम-कविता में ही मिलता है
शेष सभी कविताओं का उपहार
उन्हें नहीं रहने देता हूँ शेष
भेज देता हूँ उन्हें अपने-अपने काम पर उनके पास
जिन्हें लगता होगा कि कविताओं का काम बहुत कम है
उनके सारे काम करने का प्रयत्न स्वयं करता हूँ
कविता में लिखता हूँ, आशा करता हूँ
मेरे अंदर किसी बच्चे को
अभी दौड़ता देखूँगा वह दूरी जो वास्तविकता में
दौड़ी न जा सकी है मनुष्यों से
कार से फ़ोन से ट्रेन से भी नहीं तय कर पाए मनुष्य वह जो
दो क़दम आगे रखने पर मिल जाता, पुष्प खिल जाता
खिलेगा, पर थोड़ी देर है सुजाता
तुम किताब पढ़ो, दुनिया अभी किताबें खोल रही है
काग़ज़ टटोल रही है
यह कहना मुश्किल है आज दुनिया में किसी से—
आपका देश भी अच्छा है
क्योंकि अपना ही देश असल मायनों में अच्छाई के कासे में
देखा नहीं, और देश में वर्तमान समाज का परिवेश
फ़िट बैठा नहीं
मुँह से निकले तो किस मुँह से कि आपका सम्मान करता हूँ
अपना ही सम्मान करने में चूक होती रही
अपने आगे हर एक को धिक्कार दिया, नकार दिया
अपने अंदर इतना भी प्रेम पाया नहीं कि कान उधार दिया हो
काँधे पर धर के हाथ छूटा हो कोई वाक्य जिसमें
अपने प्रति पहले सम्मानसूचक कोई बात अपना परिचय दे
नहीं कहा, नहीं दिया सम्मान अपने आप को
दूसरे के लिए दिया जाने वाला प्रेम
पहले अपने साथ किया जाता है, यह नहीं समझा गया
इस तरह की प्रेम-कविताओं के अभाव में पीछे रह गया देश
देस में जन-मानस अपना चुका है पुर-टुच्चई
और कविताई बाहर खिड़की से न दिखने वाली सड़क पर
न होने वाले बच्चों के संग उस रिक्शा के इंतज़ार में
इस कविता में है सभी एक साथ लेकिन सभी एक हाथ आगे
निकाले ड्रॉइंग वाली कॉपी में होमवर्क में बनाना था
घरवालों के साथ घर का जो चित्र उसमें बनाये
चले जा रहे हैं खिड़की पे खिड़की पे खिड़की पे खिड़की और
सभी साथ लगी खिड़कियों से एक साथ एक-एक हाथ
निकाले माएँ कह रही हैं टाटा बच्चों: जिन्हें शब्द नहीं ज्ञात
वे दिल में अर्थ की पुड़िया दबाए हुए हिलाती हैं हाथ
दिखती है सड़क, आती है बस या कि रिक्शा, जाते हैं बच्चे
तुम मेरे साथ बैठी हो सुजाता, मैं लिखते-मुस्काते
देखता हूँ तुम्हारी तरफ़, तुम्हें पता होगा कविता के
आज के अनुभव में क्या घटा होगा, बादल छँटा होगा तुम्हारे मन
संसार के ऊपर से थोड़ा भी तो सूरज भी अपने आगे
पड़े हुए संसार के ऊपर आग नहीं, आँच भर आता है
मैं खुले प्रांगण में, खुले आँगन में, धुले फागन में देखता हूँ कैसे
-कैसे दृश्य! हाय के मेरे मन में कितना प्रेम
और तुम पास भी हो यही है इतना प्रेम जितना भी होता हो
कुल मिला कर देखा जाए तो हो तुम, और? और तुम
यह सब मेरे आगे यह सब और प्रेम का हसब और मुझे तो
शग़फ़ रखना आया दुःख से भी, तुम्हारे साथ
तुम्हारे दुनिया को देखने के बारीक पर्दे पर मेरा सिनेमा-दर्शन हुआ
ऐसा लगता है प्रेम में कि शेष नहीं है
‘स्पेस’ या ‘अंतरिक्ष’ शब्दों के अंतर्गत आ सकने वाली अनुभूतियों
अनुगूँजें सब यही सुनी जा सकती हैं, देखी जा सकती हैं
निभा पाया अगर किसी से मेट्रो-मैत्री में हुआ वादा
कि कल भी इसी स्टेशन पर इसी समय मिलूँगा दफ़्तर जाते वक़्त
तो दफ़्तर से घर और घर से अंतरिक्ष अथवा स्पेस कहलाने
वाले सभी अनुभव थोड़ा बहुत निभ जाएँगे हर किसी के हिस्से में
हर किसी के हिस्से से थोड़ा बहुत युद्ध शांति-प्रस्ताव
की ओर बढ़ेगा और हर किसी के हिस्से का कुछ बक़ाया चुकेगा
मेरे कविता में चुकाने से प्रेम-कविता में बित्ते भर की
ईमानदारी का बित्ता भर उच्चारण
प्रेम में कोई पीछे नहीं छूटा रहेगा, यही रट नहीं लगाई
ये नारा नहीं लगाया, ये ऐसा नहीं था कि कोई अध्यादेश हो
न्यायालय में पेश हो के कविता का क्या काम
बाहर बेंच पर साक्षात प्रजातंत्र बैठे-बैठे घिसा हुआ
साबुन होता रहा, धोता रहा मानवाधिकार का हाथ-रूमाल
और वह भी बराबर गंदे माथे पर से पसीने धूल थकान को
पोंछता रहा, सरकारी क्यू यानी न ख़त्म होती क़तार में शून्य जैसा
यानी सबसे पहले, सबसे आगे, आर्यों के पहले रही
संस्कृति का पहला बूढ़ा नागरिक जिसे वेदों उपनिषदों पुराणों
स्मृतियों संहिताओं की आवश्यकता नहीं रही
आज न ही सरकार के दस्तावेज़ में जगह पाता है और न ही
प्रेम-कविता में। आगे खड़ा है। सबसे पहले। आर्यों के पहले से।
वोल्गा जब नहीं जन्मी थी। प्रेम था, बीहड़ में
काले महाद्वीप पर भी। अश्वेत प्रेम। राक्षस प्रेम। असुर प्रेम।
हर तरह का प्रेम बेंच पर बैठा है। सबसे आगे।
बुद्ध के नाम पर लिखी जा रही नए पुष्पों की कविताओं का बुद्ध!
बेचारे अनभिज्ञ बैठे घिस रहे हैं अपनी मॉडर्न क़लम का
स्टील टिप, या पेंसिल का ग्रेफ़ाइट, या लहू से लिखने वाले
‘सीरियस आर्टिस्ट’ हर एक है सीरियस आज की दुनिया में और
बुद्ध की चर्चा है। अच्छा है
प्रेम-कविता के आगे जो भी गुज़रा,
मैंने प्रेम का ही समझते हुए
स्वीकारा, और शब्द के सिल पर दे मारा
अनुभव का बट्टा―मुझे यह प्रेम-चटनी दाल-भात के आगे
मेरे-तुम्हारे आगे खेलते बच्चों की तरह लगती है
दुनिया के आगे बच्चों के खेलने का प्रोग्राम चलवा देना चाहिए
हर एक में दशमलव भर भी माँ का होना आवश्यक है आज
मेरे बचपन में, माँ मेरी तरफ़ देखते हुए, आगे-आगे भागती और
इशारा करती कि आगे भागो बस कुछ ही दूरी पर स्कूल आएगा
मुझे विश्वास है कि आज भी अगर माँ बुलाए
तो कहीं कोई तो देश होगा जो युद्ध भूल जाएगा, प्रेम-कविता में
इस तरह का भी दृश्य होना अनिवार्य है
मुझे तुम्हारी अनुपस्थिति में नहीं दिखते हैं इस तरह के कोण बनते
तुम्हारी अनुपस्थिति में हर कोण केवल गणित होता है
तुम्हारे पास खुलता है मुझ पर यह भेद कि हर कोण बनाता है
अवसर, आगे यह तय करने का कि हमारा जीवन
क्या आकार लेगा
प्रेम-कविता में तानाशाह भी डकार लेगा
यह भी लिखना होगा कि तानाशाही अपने चरम पर थी
हमारी प्रेम-कविताओं के अंश मक़बरों के दरार पड़े पत्थरों के
बीच जगह बना लेने वाले प्रेमी युगल के प्रेम में ही नहीं
मक़बरों के बगीचे में गोला बनाए बैठे जोशीले विद्यार्थियों में
मक़बरों के अंदरूनी ठंडे फ़र्श से सर लगाए लेटे मज़दूरों की फटी
हुई शर्ट के फटे हुए जेब के कुछ नहीं में
मक़बरों को साफ़ करती औरतों के जेठानी-जेठ गीत में
पाये जाएँ इन प्रेम-कविताओं के अंश
गुज़र जाए किसी व्याकुल मन के आगे से जब ये प्रेम-कविता
तो वह अछूता न हो प्रेम से फिर कभी
प्रेम में पड़े, पढ़ते ही यह कविता
जो भी अगली चीज़ दिखे, दिखे जो भी आगे जाकर अगले
मोड़ पर, या इसी छोर पर, या दिखे डोर पर बैठी चिड़िया
जो अभी उड़ेगी, जो कभी उड़ेगी
जो अभी प्रेम है, बस वही प्रेम है
यह दृश्य भी हो प्रेम-कविता में।
हमारे आगे अभी दुनिया उस पागल आदमी सी है जो शहर के
सबसे व्यस्त चौक पर नंगा खड़ा अपनी पिंडलियाँ खुजाता हो
उसे क्या चाहिए? न ही उसे ज्ञात है, न देखने वालों को
पुलिस लाठी मार भगाती है और रात उसे निगल जाती है
जैसे दुनिया को निगल जाने वाली है थोड़ी-सी कटुता
थोड़ी-सी रात की तरह जो देखते-देखते खाए जाती है सहिष्णुता
धुआँ-धुआँ हो वह पागल आदमी शहर भर पे सवार होता है
धुंध चढ़ती है, कूचे खुजाते हैं अपनी दुम
कुत्ते रोते हुए हवा के पीछे भागते हैं! ‘पीछे’ देखा! ‘पीछे’
कुत्ते प्रेम में नहीं हैं। कटुता सवार है
प्रेम में कोई पीछे नहीं छूटता।
कितने कम लोग प्रेम कर पा रहे हैं आज
यह प्रश्न नादानी का है
या प्रश्न पूछने की फ़ेहरिस्त में जगह भरी जा रही है
मेरे सामने यह भी एक पंक्ति है
जिसे मैं लिखे लेता हूँ ज्यूँ का त्यूँ
तुम्हारे प्रेम में रहते हुए
मैं अपने साथ अपनी माँ की तरह बैठा हूँ
माँ वह नहीं जो मेरे निकल आने की पीड़ा से निकल आई हो
माँ वह जो मेरे आने की प्रतीक्षा के साथ-साथ है
मैं पेट की जगह पर अपने चेहरे पर हाथ फेरता हूँ
देखने वाला मुसलमान हूँ के संशय में कुछ घूरता है
मैं शहर भर में जगह-जगह इस तरह के चटके हुए काँच वाला प्रेम
अनुभव करता हूँ
बहुत चुभता है
लिखता हूँ
मैं अपने साथ अपनी माँ की तरह बैठा हूँ लिख रहा हूँ
तुम्हारे प्रेम में आने वाली अनेक पंक्तियों की ट्रेन
धूप के प्लेटफ़ॉर्म पर है
कि जम्हाई के प्लेटफ़ॉर्म पर आना है यह अभी कुछ साफ़ नहीं
पीछे नहीं छूटना है यह साफ़ है यह तय है
यह भय है
कवियों ने घोषित किया हुआ है कि प्रेम में भय नहीं होता
किंतु कविगण किस प्रेम-कविता में निर्भीक हुए फिरते हैं
उसमें जो दरवाज़े के पीछे लिखी जाती है?
प्रेम में पीछे जैसा कोई स्थान नहीं होता मान्यवर मोहे! (उर्फ़
कुर्ता फ़ैब इंडिया!)
क्या नहीं है प्रेम में वे बहस चलाते हैं दिन रात और प्रश्न जैसा
प्रश्न नहीं। ना ही बात जैसी बात।
मुझे बीत रहे हर पत्ते में अथवा ढल रहे हर पहर पर
प्रेम का अनोखा साया पड़ता दिखा
प्रेम में घटित हो रहा है जैसे ब्रह्मांड, जैसे शीतकाल में
स्थगित यम ग्रह विरह में है
जैसे बृहस्पति के सारे चाँद उस पर टूट पड़ने का
कामुक षड्यंत्र रचते हों! बृहस्पति की नदियाँ तो देखो!
कैसी उतावली होती हैं। जैसे किसी स्त्री ने लिख दिया हो अपनी
इच्छाओं पर मात्र एक लेख और पुरुष आलोचकों के मुँह पर
हाथी ने हग दिया हो! मेरे आगे यह है प्रेम-कविता।
सुजाता, तुम किताब पढ़ो। अभी दुनिया का पाचनतंत्र
बिगड़ा हुआ है
और प्रत्येक मनुष्य अपना-अपना भगवान बचाने निकला हुआ है!
आज की प्रेम-कविता, प्रेम का कासा बहुत विशाल पाती है
तो कामचलाऊ, चाटुकारिता से काम लेती है
और सारा कार्यभार उपमाओं पर डाल देती है
मेरी समझ से परे है क्योंकि मैं तुम्हें अपने इतना पास बिठाए
लिखता हूँ ये कविताएँ कि और कुछ भी अपनी
चिंताओं से दूर नहीं पाता। हर एक की फ़िक्र लगी रहती है, एक
तुम्हारे पास रहने से, हर एक में प्रेम दिखता है। फूल
खिलता है। या तो खिलेगा। पर, सुनो सुजाता, अभी नहीं मिलेगा
वह वाक्य जो कहा जाना चाहिये था मनुष्यों के मिलने-जुलने में
सबसे अधिक, सबसे पहले, सबसे आगे होना चाहिए था जिसे
बात-चीत में। प्रेम-प्रीत में। लोक-गीत में।
वह एक वाक्य कहीं नहीं मिला मुझे पर ज्ञात था प्रेम में होगा
प्रेम में था, है
मगर तय यही किया है कि सुबह होने जैसा खुला-खुला
नहीं लिख दूँगा कविता में। धूप की तरह तुम्हारे कानों में कहूँगा
बहुत धीमी आवाज़ करती पत्तियों से होता हुआ
और ऐसा मान के नहीं, जान के आगे बढ़ता हूँ
कि हर बार की तरह दुनिया सब सुन लेगी…


अभिजीत की कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। ये कविताएँ ‘सदानीरा’ पर एक अचरज की तरह खुली हैं। इनमें व्यक्त-व्याप्त आवेग, क्रोध और समकालीनता-विरोध; इनके नवाचार पर हावी नहीं है। इसके बावजूद ये कविताएँ भरपूर समकालीन और सर्जनात्मक हैं। अभिजीत की उम्र अभी 22 की है। वह लखनऊ विश्वविद्यालय से अँग्रेज़ी साहित्य में एमए कर चुके हैं। उन्होंने फ़्रेंच और उर्दू भाषा सीखी है। वह हिंदी, उर्दू और अँग्रेज़ी तीनों ही भाषाओं का साहित्य बचपन से पढ़ते आए हैं और तीनों में ही कविताएँ भी लिखते रहे हैं। उनसे hailhumans@gmail.com पर बात की जा सकती है।

2 Comments

  1. अखिलेश अगस्त 5, 2023 at 12:05 अपराह्न

    अभिजीत की ये सारी कविताएं एक साथ नहीं पढ़ी जा सकतीं। जैसे जवानी फूटती है तो व्यक्ति बहुत संश्लिष्ट होता है, नवीनताओं का एक पुंज सा। वैसे ही कवि की पहली आयद होती है। पंकज प्रखर को पढ़ने के बाद अभिजीत को पढ़कर आश्चर्यवत और उल्लसित हूँ। ये कवि अपनी आँखों की भीतरी चाल से अपने सीने को सम्हालें रहें और लिखते रहें। स्वागत और शुभकामनाएं।

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  2. Poonam Arora अगस्त 5, 2023 at 6:24 अपराह्न

    बहुत सुन्दर और अपने दिल के गहरे तक की यात्रा करके आईं कविताएं हैं।

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