कविताएँ ::
पंकज प्रखर

पंकज प्रखर

लगभग ख़ारिज

एक लंबी ख़ाली रात
जिसमें हम एक दूसरे को चूम सकते थे
या बिखरे हुए कमरे में चीज़ों को एकत्र कर
वही पुराना आदर्श स्थापित किया जा सकता था―
मैंने सिगरेट और बीड़ी के बीच की बहस में
फूँके गए वक़्त का
अनुमान लगाने पर उसे ख़र्च दिया।

जीवन अब एक धुँधले से शब्द का
औसत अनुवाद भर रह गया है
जिसे लेकर कभी मैं दुनिया की हर बहस में
शामिल हो जाना चाहता था।

हर दुत्कार पर आहत
अपने होने न होने के तमाम तर्क गढ़ते हुए
मुझे अपने अस्ल से चिढ़ हो गई।

वे तमाम लोग जिनके पास
मेरे होने के बहुतायत तर्क थे
जो हर बात को अपने तर्क से
सही और ग़लत की शक़्ल में स्थापित कर देते थे―
मुझे दोग़ले लगे।

उनकी भाषा का व्याकरण बहुत चयनशील था
उनकी आँखों में एक झूठ पसरा था
जो वे दूसरे की आँखों में उड़ेल देना चाहते थे।

मेरी आख़िरी उम्मीद
जिसमें मैं अपनी दुनिया
ढूँढ़ लेने की ज़िद में था
वह दम तोड़ चुकी थी।

एक अजीब दुःख शामिल हुआ
कि दिल यहाँ लग नहीं रहा है
इस तर्क के साथ कि किसी सय्यारे पर
हमारे वास्ते और कोई दुनिया भी नहीं।

मैं हर रोज़ लगभग आहत,
लगभग कुंठित में तब्दील
अपने होने न होने को ख़ारिज करता
दुनिया की हर बहस से निकाला जा रहा हूँ।

जीवन एक पूरक परीक्षा के प्रमाणपत्र की तरह
किसी ताक में रखा गया है
जिसे देखने भर की इच्छा मात्र से
कुंठा पनप उठती है।

विपथगा

एक दिन वे अचानक बड़ी हो गईं
और देखते-देखते उन्होंने पूरा सिवान नाप लिया
धान रोपते हुए उन्हें पहली बार मासिक धर्म का आभास हुआ
और वे दर्द से मचल उठीं
एक दूसरे से पेट का मरोड़ बताती हुईं
उन्हें मालूम हुआ कि
उन्होंने स्त्री बनने की अनिवार्यता को
लगभग पा लिया है।

फेरीवाले से
छुपकर अंतर्वस्त्र ख़रीदते वक़्त तक
उन्हें अपने उभारों का समुचित ज्ञान नहीं था
आईने के सामने पहली बार
उन्हें महसूस हुआ कि
यह सबसे निर्णायक वक़्त है
और शायद सुंदर भी।

जेठ की निचाट दुपहरी में
विसारता की दुकान में घंटों डूबकर
किसी ख़ास मौक़े के लिए
वे लाह के कंगन चुनती रहीं
जो उन्हें कभी मयस्सर नहीं हुए।

किसी पुरानी नायिका की तरह उन्होंने
गन्ने के खेत को अभिसार के लिए चुना
और बहुत साहस के साथ किसी स्याह रात में
बँसवारी तले आलिंगन में पकड़ी जाती रहीं

―उन्होंने देह पर नीला रंग जमा लिया था।

उनके प्रेमियों के पास भविष्य के सपने नहीं थे
वे किसी जनसाधारण एक्सप्रेस या सरकारी बस में बैठकर
भाग नहीं सकती थीं
इसलिए कपड़े की तरह प्रेमी बदलने लगीं
उनके लिए सिर्फ़ देह ही बची थी
जिसे उन्होंने ख़र्च करना ठीक समझा।

स्त्रियों के समवेत स्वर में उन्हें एक भद्दी गाली रसीद हुई
और वे टाट में दुबक गईं।

कम उम्र में उन्होंने ब्याह रचा
और गौने के इंतिज़ार में दू-सूत्ती पर
गुलाब काढ़ते―लगभग अधेड़ में तब्दील होते
उस भद्दी गाली के साथ
वे एक रोज़ ग़ायब हो गईं।

शराब की नींद

बहुत समय तक साथ नहीं देती
शराब से ली गई उधार की नींद

अभाव और अनिष्ट के गुज़रने की उम्मीद में
जहाँ तक पलटा गया है कैलेंडर
ठीक वहीं पीछे दर्ज होना चाहिए
कब-कब ली गई उधार―
बेकार के स्वप्नों पर ख़र्च की गई नींद।

हालाँकि यह बहुत बेतुका बयान भी हो सकता है!
पर वह उपस्थित रही―उत्सवों के निचाट अकेलेपन में,
उसने मनुष्यता की तरह साथ निभाया
किसी सर्द और उमस भरी चिपचिपाती―
दुःखों के अत्यंत में
स्याह रातों में,
बेहद अभाव के दिनों में भी
उसने
साथ
नहीं
छोड़ा।

जब-जब याद आया अधूरा प्रेम,
सुखद सहवास की स्मृति ने जब-जब अधीर किया―
उसकी उपस्थिति स्वीकृत हुई
कुंठाओं की प्रबलता में
सूक्तियाँ मंत्र की तरह उच्चरित हुईं
समय से दफ़्तर पहुँचाने में
उसने हमेशा साथ दिया,
और अव्यस्थित, अप्रत्याशित, बदबूदार बिस्तरों में भी
वह मौजूद रही―
उदारता के साथ।

लेकिन तमाम रातों के बाद―अफ़सोस!
एक बेहद बुरे स्वप्न की तरह
उसे उतारकर फेंक दिया गया―
जल्दबाजी भरे दफ़्तर की सुबह में।

दुपहरी में स्त्रियाँ

किसी कुसमय बारिश की तरह
वह उनकी ज़िंदगी में दाख़िल हुआ और
उनमें लगातार फैलता गया।
जब सब कुछ खिलने का वक़्त था―
मसलन गुलाब, गेंदा और दसबजिया
सब एक साथ खिल रहे थे
तब तमाम औरतें स्वेटर पर गुलाब उगा रही थीं।

किसी दुपहरी चिरई-चकवा बनाते उन्होंने
यह तय कर लिया कि वे
दुनिया भर के रद्दी कपड़ों को सुंदर-सी शक्ल देंगी
वे चद्दरों पर सिंधी की कढ़ाई उतारने लगीं।

टिटिहरी के गीत का शोक मनातीं
दीवारों पर चिहिहरी खाँचती रहीं।
रेडियो पर ‘हेलो फ़रमाइश’ में
अपनी पसंद के गाने सुनते हुए उन्होंने
किसी अनाम प्रेमी के लिए
फ़िल्मी गीतों से डायरियाँ भर ली थीं।
उन्होंने बिल्ली की आँखों से इंतज़ार सीख लिया था―
वे अभ्यस्त हो रही थीं।

यह किसी बड़ी घटना के जैसा ही था
जब वे आटे से सने हाथ से
टीवी का रिमोट चलाना सीख रही थीं।

वे न्यूज़ नहीं देखती थीं
किसी बहस में शामिल नहीं हो सकती थीं
उनकी कोई राजनीतिक पक्षधरता नहीं थी।

वे दुपहर को किसी आरी से काट देना चाहती थीं
चक्की में पीस देना चाहती थीं
चलनी से चाल देना चाहती थीं।

खिड़कियों पर बैठकर वे दूर तक देखती थीं
जहाँ उन्हें देखने वाला कोई नहीं था
ठीक इन्हीं दुपहरियों में किसी फ़िल्मी नायक को
वे अपनी बाँहों में भींच लेना चाहती थीं
या किसी के साथ भाग जाना चाहती थीं
किसी फ़िल्मी नायिका की तरह साड़ी में भीगकर
बीमार हो जाना चाहती थीं

लेकिन वे अभ्यस्त हैं―शताब्दियों से।

वे दुपहर को किसी आरी से नहीं काट सकतीं
किसी चक्की में नहीं पीस सकतीं
किसी चलनी से नहीं चाल सकतीं
दुपहर उनमें बराबर बह रही है…

उनकी दुनिया में

तेल से सने जिउतिया में
चाबी लटकाकर घूमती हैं वे
रसोई से दलान छत और
पिछुआर के नाबदान तक
पहसुल की तरह पड़ी रहती हैं
फाटक के पीछे
लालटेन की बत्ती सरकाते
पीडिया का गीत गाते
आँधी वाली रातों में हहराते पेड़ों के नीचे से
टिकोरे की शक़्ल में जमा करती हैं
जीभ का चटख स्वाद।

रात जब होती है बीच में
भरभरा के उड़ेलता है कोई
उनपर बाल्टी भर पानी
वे उठती हैं और पेट से निकालती हैं
एक मांस का लोथड़ा और
नाबदान के बग़ल में गाड़ देती हैं।

उनकी जाँघों पर लोटे छपे हैं
जहाँ से ख़ून की शक्ल में एक काला दाग़ झाँकता है
जिसे वे रोटी में परथन के साथ लगाकर
सेंक देना चाहती हैं
उनकी दालों में नमक के साथ
उनका ख़ून मिला हुआ है।

अभी बिल्कुल अभी
बटुली पोतियाते हुए
उनकी साँस यकायक चढ़ेगी और
वे पाव भर कफ़ उगल देंगी।

अब रात हुई है
एक लालटेन आकर
उनके उल्टे पल्ले से झूल गई है

रात भर जागकर कोई हज़ार बत्ती बनाई है उन्होंने
उनकी दुनिया में शायद कोई ईश्वर भी था
जो उन्हें अब भूल गया है।

किसने सोचा था

भीड़ हो जाने की क़वायद में
दुनिया सिकुड़कर इतनी हो छोटी जाएगी
कि हम अपना एक कोना तक नहीं ढूँढ़ पाएँगे।

इस शहर या किसी भी शहर के बाहर
‘अपनी दुनिया जैसी जगह है’―
यह वाक्य संदेह में बदल जाएगा।

हम अपनी दैनिक मूर्खताओं में घिरकर
सुखी होने का स्वाँग रचते हुए
एक आदर्श वाक्य रच लेंगे
जो जीवन का पर्याय होगा।

इस घनघोर षड्यंत्र में जीते हुए
एक रोज़ लोग जान ही जाएँगे
कि जिसने दुनिया बनाई
वह हमारे हाथों में
एक लालटेन थमाकर हमें भूल गया है।

ग्राम देवता

वे बहुत कुलीन थे
इतने कुलीन कि
उन्हें दिशाएँ तक अमंगल लगती थीं।

अपने जैसे ही कुलीनों के घर-संसार
भरते थे वे धन-धान्य से
उनके प्रताप से ही
कुलीनों कि स्त्रियाँ गर्भवती होती थीं।

वे इतने कुलीन थे कि किसी धोबी की
छाया भी उन्हें अपवित्र कर सकती थी
किसी चमार का मुँह देखते ही
उन्हें भयानक ज्वर हो उठता था।

वे साँप बनकर भाग जाते थे
और प्रायश्चित के बाद बड़े
मान-मनौउवल से लौटते थे
किसी बड़े भोज में

वे छमाही पूजा वसूलते थे
और मासिक चक्र की तरह
समय-समय पर कोपते थे।

वे देशी गाय का दूध पीते थे
और उल्टी कर देते थे।

किसी तेली के छूने से उनकी डाल
अररा के टूट जाती थी।

वे इतने कुलीन थे, बावजूद इसके
दुबे बाबा, ब्रह्म बाबा बनकर
कुकुरमुत्ते की तरह किसी धोबी और चमार के
भू-दान वाले ज़मीन में उग जाते थे
और खूँटा ठोक बैठ जाते थे।

वे इतने कुलीन थे
कि उनकी कुलीनता जब-जब डगमगाई
कुलीनों ने बरक़रार रखी!

घर अचानक

घर से घर अचानक ग़ायब होने लगा
घर से बाहर की दुनिया में घर जैसी जगह न थी
लौटकर यहीं आना था
लेकिन वह धीरे-धीरे ग़ायब होता रहा।

पहले वह दीवारों से ग़ायब होना शुरू हुआ
फिर धीरे-धीरे अमरूद, आम, नल की ओर से
फिर एक दिन बाईं ओर के शीशम की ओर से।

दीवारों पर एक अनिश्चित ख़ामोशी पसर गई
फूल अपनी बात नहीं कह सकते थे
इसलिए वे चुपचाप सूख गए
छत उत्तर दिशा की ओर थोड़ी लटक गई
रौशनदान में किसी ने अख़बार चिपका दिया।

इस बदलती अर्थव्यवस्था के दौर में
घर मुझे अब चीनी-आटा-दाल के बीच
बहस की जगह लगता है।

घर कभी-कभार
मुझे भंडारे के दृश्य जैसा लगता है
जिसमें सब अपना हिस्सा लेकर
एक-एक कोना पकड़ लेते हैं।

ड्योढ़ी जिसके प्रारब्ध में प्रतीक्षा लिखी है
वह अब भी प्रतीक्षा में है।

बाहर की दुनिया में घर की जगह
याद करने के लिए कोई और जगह नहीं है।

मैं इस भंडारे जैसे दृश्य को देखता हूँ और
सोचता हूँ इसमें मेरा कोना कहाँ है!
जहाँ मैं अपना हिस्सा लेकर चला जाऊँ।

जीवन-वृत्त

कुछ भी निश्चित नहीं यहाँ
अनिश्चित भी नहीं!

गर्दन पर जमी हैं कामनाएँ।

यहाँ सब कुछ भीख की तरह
माँगना पड़ता है।

क्षमाप्रार्थी होता हूँ
दिव्यता से छले जाने पर भी।

समर्पण का भाव नितांत आवश्यक है।

यह कामनाओं के कुचलने का दौर है…

मेरे पास

तुम्हारे वरण पर कोई संशय नहीं
कोई प्रश्न नहीं
वरन् तुम्हारे इस साहसिक क़दम के लिए
प्रसंशा का कोई वाक्य फूट पड़ना चाहता है।

मेरी आँखों में एक अधूरे स्वप्न का स्वाँग
रात भर मचलता रहा है
एक समूचा काइयाँपन
जो मेरी आँखों से छिटककर
खिड़की की काँच में
उभरकर आ गया है
उसे नंगी आँखों से देख रहा हूँ
जिसे मैं किसी अवसर की तरह
अभी तक इस्तेमाल करता आ रहा था
कोई सुखी होने का संदेश,
मुबारकबाद, एक बेमन की औपचारिकता―
उसे बकने में असर्मथ हूँ
और इस पर फिदा भी कि
मेरे पास विदा का कोई समुचित वाक्य नहीं।


पंकज प्रखर की पंद्रह कविताएँ गत वर्ष ‘सदानीरा’ पर प्रमुखता से प्रकाशित हुई थीं। प्रमुखता से इसलिए कि उनके साथ उनके अब तक के काव्य-व्यवहार और व्यक्तित्व पर एक संपादकीय टिप्पणी भी थी। यहाँ प्रस्तुत उनकी दस नई कविताएँ कवि के और बेबाक़ होने की पुष्टि की तरह हैं। इनमें आई स्त्रियाँ सचमुच कविता में आती हुई हैं—जाती, भागती या लौटती हुई नहीं। कवि से pankaj.prakhar24@gmail.com पर बात की जा सकती है।

3 Comments

  1. अखिलेश अगस्त 3, 2023 at 11:08 पूर्वाह्न

    इधर के कवियों में सबसे प्रखर कवि। बहुत शुभकामनाएं।

    Reply
  2. सत्यम कुमार सत्यार्थी सितम्बर 18, 2023 at 5:36 अपराह्न

    “किसने सोचा था ” शीर्षक से लिखी गयी कविता में कुछ टाइपिंग मिस्टेक है , कृपया उसे ठीक कर दे ।

    Reply
    1. सदानीरा सितम्बर 19, 2023 at 12:28 पूर्वाह्न

      कृपया चूक इंगित करें, सुधार करके ख़ुशी होगी. शुक्रिया.

      Reply

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