कविताएँ ::
गार्गी मिश्र

गार्गी मिश्र

मुझे नहीं मालूम

बाल से भी महीन और धार वाली किसी चीज़ से
मन के किसी प्रिय हिस्से को काट कर दो भागों में किया जा सकता था

गिरने वाली हर चीज़ में पत्ते के गिरने से भी पहले
गिरने की आवाज़ कान में पड़ सकती थी

टूटे हुए नाख़ून के जुड़ने जैसा ही स्वप्न था
संसार की तमाम टूटी हुई चीज़ों का जुड़ना

सोई हुई चीज़ों से ज़्यादा पवित्र कुछ भी नहीं था

हँसना कोई विचित्र खेल था जिसका कोई नियम नहीं था

भाषा के आने में उसका न आना होता रहा

भाषा हमारे पास आई भी तो क्यूँ आई?
मुझे नहीं मालूम!

पोस्टमार्टम रिपोर्ट

जिन हाथों से तुमने गोश्त काटा
जिन होंठों से तुमने किन्हीं स्तनों की इच्छा की

तुम्हारी वफ़ादार आतें जिन्होंने मांस को पचाया
तुम्हारे फेफड़े जो छानते रहे हवा की कालिख

तुम्हारा दिल जो धड़कता रहा बेतरह
और तुम्हारा दिमाग़ जिसे तुमने गन्ने की तरह पेरा

ये सब अपनी जगहों से उठा कर कहीं भी विस्थापित किए जा चुके हैं

कितने क़रीने से सिला गया है तुम्हारा यह शरीर

एक सिलाई में तुम्हारी पूरी हस्ती सिमट गई
जिसकी तुमने जीवन रहते बड़ी खोज की

कौन जानता है?
मौत ने तुम्हारे लिए कौन-सा रास्ता चुना है

तुम्हारे भीतर की किसी भी संभावना की कोई जगह तय नहीं

खोला सिला और रफ़ा-दफ़ा
ज़िंदगी का यही उसूल है
और मेरा भी।

कोई जगह

किसी भी जगह को एक जगह तब माना गया जब कोई चीज़ वहाँ रख दी गई

किसी भी चीज़ को किसी जगह रख देने से उसकी जगह तय नहीं हो गई

याद की जगह और किसी चीज़ की जगह में काग़ज़ और रंग का-सा रिश्ता है

मुझे नहीं मालूम मेरी याद की जगह क्या है
मुझे बहुत-सी चीज़ों की जगह याद है

कभी-कभी ही ऐसा होता है
कि मुझे याद की जगह और किसी चीज़ की जगह
एक साथ याद आ जाए

याद की कई जगहें हैं
चीज़ों की कई जगहें हैं

इन जगहों का मैं क्या करूँगी?
इसको जानने लिए मुझे एक जगह अभी बनानी है।

आम खाते हुए रोना

आम खाते हुए रोना
सबसे सहज है
सबके सामने रोने से मैं कमज़ोर साबित हुई और स्वाद से वंचित
दोनों हाथों से हथेली में भर कर आम
मुँह को ढाँपती आम खाती हूँ
जैसे कि अपना ही हृदय खाती हूँ
कितना रस भरा
कभी मीठा कभी खट्टा हल्का नमकीन और गूदेदार
जैसे
इच्छाओं से भरा रेशेदार
पिलछऊँर फल।

पीठ

एक अदृश्य मेरी पीठ पर रेंगता है
मुझे नहीं मालूम मैं अपनी पीठ से क्या झाड़ती रहती हूँ

पीठ और हाथ में चुप और सुनने का-सा रिश्ता है
कल रात मुझे लगा कि मेरी पीठ मुझसे बिछड़ गई है

उजालों में मेरी पीठ पर समय लदा रहता है
समय और पीठ एक दूसरे अलविदा कहना चाहते हैं

मैंने अभी-अभी अपनी पीठ से न मालूम क्या झाड़ कर हटा दिया
और अब मुड़ कर पीठ को बार-बार देखने की कोशिश करती हूँ

दीवारों का पीठ से क्या रिश्ता है
मुझे नहीं मालूम

क्या दीवारों की भी पीठ होती है ?
इसका जवाब दर्द से पूछो।

मेरे पास अकेलेपन के संस्मरण नहीं हैं

मेरे पास अकेलेपन के संस्मरण नहीं हैं
मैं नहीं जानती कैसा होता है एक ही कमरे में बरसों सूरज न देखना

मेरे पास संसार के चेहरे हैं
उन चेहरों में मेरा चेहरा है

मुझे याद है शराबघर से हकबका कर रोते हुए बाहर भागने वाली लड़की का चेहरा

मेरी स्मृति में एक अपरिचित वृद्धा का आशीर्वाद देता हुआ हाथ है

चेन्नई रेलवे स्टेशन पर भाई-बहन के बिछुड़े हुए हाथों की स्मृति है

हवाई अड्डे पर विदा में हाथ हिलाते और फिर धुँधलाते एक पिता का चेहरा है

उमस भरी दुपहरों में बम्बई की ठस्समठस लोकल में
मोगरे बेचने वाली बाई के कंठ से निकली टेर है

उसी लोकल में तीन अंधों की बातों के चित्र हैं

मेरे पास भीड़ के इतने संस्मरण हैं कि उनके बारे में बोलते-बोलते
मेरा गला रुँध आता है

अकेलेपन को मैं गंगा के किनारे
घाट की सीढ़ियों पर कहीं रख
भूल आई हूँ।

सीखना

कोयले से मैंने शुद्धता सीखी
मिट्टी से इत्र बनाना सीखा
हेयरपिन से संकोच सीखा
रोटी से जाना एक दिन सब कुछ लौट आता है
गुड़ से सीखा बाँधना
वृद्धाश्रमों से सीखा खुल कर बेख़ौफ़ हँसना
नदी से गीत गाना सीखा
चंद्रमा से सीखा माँगना
फूल से सीखा विदा लेना
प्यार करना दूध पिलाती माँ से सीखा और
मणिकर्णिका से सीखा सब कुछ भूल कर मुस्कुराना।

मैं किसी पुकार के लिए

मैं अजनबी की पीठ से धोखा खा कर उसे आवाज़ देती हूँ

अजनबी मेरी पुकार को एक टुकड़ा धुँधला आकाश देता है

मैं उस धुँधले आकाश के टुकड़े में अपनी जान-पहचान की चीज़ें खोजती हूँ

खोजने की जगह पर मुझे न खोजे जाने वाली जगहों के संकेत मिलते हैं

मैं अजनबी से माफ़ी माँगते हुए उसे धुँधले आकाश का टुकड़ा सौंपती हूँ

बिछुड़ते वक़्त अजनबी ने मुझसे कुछ भी नहीं कहा था

मैं किसी पुकार के लिए एक अजनबी की पीठ हूँ।

बहनों का कमरा

ग्रीष्म के दिनों में वे ऐसे रहतीं
जैसे काले गहरे और अँधेरे से भरे बिल में रहते हैं जानवर

भोजन से भरे पेट वे सोतीं और हवाई सपनों से उड़ते उनके बाल
किसी महल की तीसरी छत पर लगी पताका को हवा देते

किसी के हँसने की आवाज़ आती
कोई इशारे से खिड़कियों पर लगे पर्दे को हटाने को कहती

कोई अपने पाँव के नाख़ून से पर्दे का धागा खींच देती
कोई ज़ोर की उबासी ले कर एक गिलास पानी माँगती

और पानी का गिलास थमाते हुए
सबसे कम उम्र अपने बाल पीछे की ओर उड़ा देती

एक बार फिर हवा का रुख़ तेज़ हो जाता
जो महल की पताका को उड़ा कर समंदर में बहा ले जाता

इस तरह शाम हो जाती
और वे शाम की सैर पर बाहर निकल जातीं

वे हँसतीं और हँसतीं ही जातीं
एक दूसरे से जानवरों का-सा प्यार करने वाली वे बहनें जानी जातीं।

चुप की जगह

स्मृतियों का अप्रासंगिक हो जाना आश्चर्य की सबसे बड़ी घटना यदि होती

तो उस हृदय के लिए क्या कहें
जो हर आश्चर्य को महसूस करने के बाद भी उतना ही कोमल रह जाता है
जितना वह तब था
जब उसने पहली बार जाना था
कि बिछुड़ा दिए जाने से
भुला दिए जाने से
या पहचानने से इनकार कर देने से धमनियों में रक्त नहीं जमता
न मृत्यु गले लगा लेती है

हम धीरे-धीरे जानते हैं कि मौत का कुआँ एक खेल है जो कि अभ्यास से सधता है

हम धीरे-धीरे जानते हैं कि मृत्यु ने हमें कितनी ही बार अपनाया है

उसने थामा है हमें वर्षा के किसी दिन
पानी पीते हुए चुपचाप
किसी से बेमतलब ही कुछ पूछते हुए
रोज़ ख़ुश होते हुए कि शाम को साढ़े पाँच पर चाय बनाएँगे और ख़ुशी ढूँढ़ेंगे
किसी को पूछते हुए
तुमने चाय पी?
और ‘हाँ’ सुन कर यह सोचते हुए कि हाँ में कितना कुछ मिल जाता है

हम धीरे-धीरे जानते हैं कि इस संसार में सब कुछ प्रासंगिक है

हम धीरे-धीरे जानते हैं कि मृत फूल और दीवार की घड़ी हमारे सभी रहस्य जानती हैं

हम धीरे-धीरे जान जाते हैं
कि रात हमसे कहीं ज़्यादा उदास
और दिन हमसे कहीं ज़्यादा थका हुआ है

हम धीरे-धीरे जान ही जाते हैं
कि इस दुनिया में कहीं भी
कोई भी आश्चर्य नहीं है

बस कुछ जगहें हैं
उन जगहों पर कुछ चिह्न हैं
वे जगहें हमेशा चुप रहेंगी
और हमें बीत जाना होगा!

इसके बाद

रास्ते पर चलते हुए
आँखों से धूल पोंछना
भूल जाऊँगी क्या?

उमस बढ़ने पर भी
जो न बरसे बादल
छत की ओर भाग कर जाना
भूल जाऊँगी क्या?

उदास होने पर कोई गीत गाना
और ख़ुश होने पर बर्तनों को टटोलना
भूल जाऊँगी क्या?

इत्र की ख़ाली शीशी
उपहारों के रंगीन काग़ज़
टूटा चश्मा बंद घड़ी सँजोना
रेस्त्राँ की टेबल पर रखे काग़ज़ पर तारीख़ लिखना
फूल बनाना
भूल जाऊँगी क्या?

जन्मदिनों पर ख़ुश हो जाना
फ़ोन लगा कर गा कर कहना
भूले जो उसको याद दिलाना
भूल जाऊँगी क्या?

लिखना-पढ़ना-रोना-गाना-हँसना-चलना-मुड़ना-देखना
भूल जाऊँगी क्या?

पानी का गिलास

उसे जहाँ भी रख दो वह उस जगह को सोख लेता है

उसके होने में कोई अन्य नहीं

अभी-अभी उसने मेरी टेबल को सोख लिया

एक रात उसने मेरी डायरी का एक पन्ना सोख लिया था
जिस पर शोक के बाद की स्थिरता अंकित थी

उसकी आत्मा का रंग स्लेटी है
और स्वभाव से वह एक अच्छा श्रोता है

उसकी दृष्टि में कोई भी दृश्य नहीं
वह नित प्रतीक्षा में है
उस जैसा वैरागी कोई नहीं

मेरी उँगलियों ने जब भी उसका स्पर्श पाया
वे निर-आकार के संसार की ओर खुल गईं

वह कोई वस्तु मात्र नहीं
विश्वास और विस्मय की सूक्ष्मतम इकाई है

चाहो तो उसे प्रार्थना का घर कह लो
चाहो तो…

लगभग डेढ़ बरस हुए जब ‘सदानीरा’ ने गार्गी मिश्र की कुछ कविताएँ उनकी खींची कुछ तस्वीरों के साथ प्रकाशित की थीं। इसके बाद से ‘सदानीरा’ पर उनकी मेधा के आयाम समय-समय पर प्रकट होते रहे। उनके सोचने-समझने-करने और बने रहने में जो वैविध्य है, वह उनकी गहन और संवेदनक्षम दृष्टि का पता है। यहाँ प्रस्तुत कविताएँ भी इसी दिशा में हैं, इसे यों भी कह सकते हैं कि विविधता का जोखिम गार्गी के यहाँ कविता को पाने का रास्ता है। ‘मुझे नहीं मालूम’ इस मार्ग की विनम्र टेक है और इसलिए बिल्कुल भीतर से शुरू होकर बग़ल से गुज़रता हुआ सामने सारा संसार खुला हुआ है—उपस्थित-अनुपस्थित। समय, वस्तुओं और व्यक्तियों को गार्गी तर्क, गहराई और उन्मुक्तता से देख रही हैं। उनकी व्याकुलताएँ विचलित कर सकती हैं। वह बनारस में रहती हैं। उनसे gargigautam07@gmail.com पर बात की जा सकती है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : ईब आले ऊ या यूँ कहूँ कि कविता में हूँ

2 Comments

  1. डॉ .महेश शुक्ला जुलाई 18, 2020 at 5:18 अपराह्न

    गार्गी की कविता में जीवन की ध्वनि सुनाई देती है। पाठक का इन ध्वनियों में आत्म विभोर हो जाना, शायद इन कविताओं की सामर्थ्यता को प्रकट करती है और इन कविताओं के साथ पाठक भी जिंदा बने रहने की सार्थकता को महसूस करता है। गार्गी के चिंतन में गहराई है। इस गहराई में अंतर्मन को छूने वाली निस्तब्धता बेचैन खामोशी भी है। ्््््््््््््््््््््््््््््््््

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  2. आशुतोष कुमार जुलाई 19, 2020 at 8:06 पूर्वाह्न

    पोस्टमार्टम रिपोर्ट लाजवाब है!

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