कविताएँ ::
हर्ष भारद्वाज

हर्ष भारद्वाज

चीनी मज़दूर कवि
ज़ू लिज़ही
को समर्पित

मज़दूर कविताएँ

एक

जब-जब उसने चाहा
ख़ून को काग़ज़ से अलग कर देखना
तब-तब उसने
अपने भीतर पाया—
भूख से मरा हुआ
मिट्टी में
औंधे मुँह गड़ा हुआ
एक चेहरा
उसका अपना
या कि पिता का
या कि कोई भी वो
जो एक किसान हो,
अपने खेत को
हो देख रहा जो
किसी युद्धभूमि में बदलते हुए!

उसने जब-जब चाहा
पसीने की गंध से ऊबकर
कुछ भी लिखना
वह तब-तब भूखा सोया
और उसने जाना
कि कविता हमारे पेट में पल रहा
एक घाव होती है
सारी उम्र चुपचाप
जो रिसती रहती है तब तक
जब तक कि हम
पसीने की गंध से ऊबकर
किसी रोज़
मर नहीं जाते।

दो

शहर की सबसे ऊँची मंज़िल से
बिना कुछ भी महसूस किए
नीचे देखते हुए
उसने धीरे-धीरे
अब यह जान लिया है
कि अपनी मृत्यु को उसने
तीन पहरों में
थोड़ा-थोड़ा ही मगर
हर रोज़ जिया है
कई सालों से

धीरे-धीरे
हमें सिर्फ़ तंबाकू ही नहीं मारता
धीरे-धीरे
हमारी आँतों में जट्टा भी लग सकता है
मगर भूख की आदत
कभी नहीं लगती
धीरे-धीरे हमारी कविताएँ
मज़दूर हो जाती हैं
और जब
हम यह बात जान जाते हैं
तब शहर की
सबसे ऊँची मंज़िल से
नीचे झाँकते हुए भी
मुस्कुराते हैं!
एक आवाज़ रह-रह
हमें अपने पास बुलाती है,
हमारी गूँज लौटकर
हमारे पास ही आती है
हर बार।

तीन

यह अक्टूबर का एक
डूबता हुआ दिन था
लेकिन उसके पास
इस शाम को बयाँ करने के लिए
कोई भी सुंदर शब्द नहीं था
इसीलिए
वह ‘सिर्फ़’ एक
शाम ही हुई
कई और शामों-सी
पस्त और थकी हुई
स्थिर।

सिर्फ़!
सिर्फ़!!
सिर्फ़!!!
वह इस शब्द को
जितनी दफ़े दुहराता
अपनी ही भाषा को
कुछ और घिनौना पाता।

और फिर यह शाम
सुंदर होती भी क्यूँ
उसके लिए?
क्या बस इसलिए
कि बीती बरसात
उसके ‘सिर्फ़’ तीन साथी मज़दूर
शहर की सबसे ऊँची इमारतों से
फिसलकर गिर पड़े?
‘सिर्फ़’ तीन!

वह उसी छत से
चीख़कर पूछना चाहता था
हर एक से
‘सिर्फ़’ दो रुपए का मोल।
नहीं! उसे अलपेनलिबे का शौक़ नहीं है
और न ही
उसकी बहनों को था
जो अपनी मजूरी में
सिर्फ़ दो रुपए और चाहती थीं।
वह अपनी उन्हीं बहनों से
पूछना चाहता था
कि सामूहिक बलात्कार की पीड़ा से
गुज़रने के बाद
मृत्यु ‘सिर्फ़’ मृत्यु रहती है
या हो जाती है
मुक्ति?

आपको नहीं मालूम मगर
वह अच्छे से जानता था
कि अख़बारों पर छपी संख्याएँ
ख़ून से कहीं जल्दी धुलती हैं
बरसात में
ऊँची इमारतों से फिसलकर
गिरे हुए मज़दूरों की जेब में
दो रुपए भी नहीं खुसे होते
क्योंकि वे शाम होने से पहले ही
गिरकर मर जाते हैं।

चार

शहर से दूर
किसी निर्जन इलाक़े में जाकर
जब कभी भी वह अपना श्रम बेचता है
देखता है तब
कि शहर किस तरह
उन जैसों के कंधे पर पाँव रख
फैलता है
चारो दिशाओं में
हर नदी
हर खाई को
पार करते हुए

उसके सपनों का खेत मगर
(जिस दिशा भी हो)
उजड़ा नहीं है अभी

वहाँ चारों तरफ़
सरसों की पीली धूप फैली है
जिसके ठीक बीच में खड़ी होती है
एक लड़की
जिसके पैरों की पायल हँस रही होती है;
जिसके आँखों में चमकता हुआ आसमान
हर किसी का आसमान होता है;
जिसके तलवों पर टिकी धरती
एक घर होती है ऐसा
जहाँ तमाम देशों के शरणार्थी
वसंत की तलाश में आते हैं
और अपने-अपने घावों के भरने के इंतज़ार में
धान उगाते हैं
या मधुमक्खियाँ पालते
या मछलियों के बंसी में फँसने तक
चुपचाप बैठे रहते हैं
इस यक़ीन के साथ
कि जब तलक कोई मछली फँसेगी,
जब तलक धान उगेगा…
सभी युद्ध समाप्त हो जाएँगे
(—वे बहुत उत्सुक हैं
सभी ज़ख़्म खाए सैनिकों को
शहद का स्वाद चखाने के लिए)

वह एक लड़की,
जिसके हाथों से अब
गोबर और राख के अलावा
धनिया और घी की सुगंध भी उठती है
मिट्टी और ख़ून की भी!
जहाँ पवित्र-अपवित्र कुछ भी नहीं होता
वहाँ अपनी महबूब को वह
एक संपूर्ण स्त्री-सा देखता है
जिसकी जाँघों से बहता ख़ून
सिर्फ़ ख़ून होता है
(सिर्फ़ ख़ून-सा लाल ख़ून!
सिर्फ़ ख़ून-सा धधकता ख़ून!)

जिसकी नंगी पीठ पर
उसने खींचा था
अपनी शुरुआती कविताओं का आकार,
जिसके सीने में रोप दिया था उसने
आकाश से टूटकर गिरे हुए
सभी सितारों को;
वह
जो पिछली महामारी में
गाड़ दी गई थी
किसी अनजान दिशा में—
वह लड़की उसके सपनों में
आज भी ज़िंदा है—
सरसों की पीली धूप-सी
जो हर दिशा में फैली है!
नहीं! उसके सपनों का खेत
उजड़ नहीं सकता

शहर की निर्जन जगहों में
जब शहर किसी घाव-सा फैलता जाता है,
श्रम बेचता हुआ
वह अकेला मज़दूर नहीं होता
जो किसी शरणार्थी की तरह चाहता है
अपने गाँव की ओर
लौट जाना
वसंत की तलाश में।

पाँच

महामारियों के शोकगीत उसे नहीं आते
और अब
जब कि
भुखमरी जैसे शब्द पर से
ज़्यादातर पत्रकारों का विश्वास उठ चुका है
(क्योंकि भूख
हर किसी की बीमारी नहीं होती)
ऐसे में
अख़बारी संख्याओं पर ऐतबार
सिर्फ़ अपने अंधेपन का सबब बन जाता है,
वह इसे बहुत अच्छे से जान चुका है

यह कोई ईश्वर की कृपा नहीं है
कि हर कोई भूख से नहीं मरता
यह हमारा-आपका रचा हुआ
षड्यंत्र है असल में
कि जब बहुत से लोग
भूख से मरते रहते हैं
तो कुछ अन्य लोग
अपने अपने बंगलों में घुस
खिड़की-किवाड़ बंद कर
ईश्वर से प्रार्थनाएँ करते हैं

महामारियों में सिर्फ़
महामारी नहीं मारती
भूख भी मारती है
और अख़बारी संख्याएँ तब,
ईश्वर से की गई
प्रार्थनाएँ सब
कुछ भी पर्याप्त नहीं रह जाता है
सब प्रोपेगैंडा होता है

वह,
जो इस महामारी में
एक मज़दूर भी नहीं रह गया
उसे सब नामंज़ूर है अब

उसे अब
सब नामंज़ूर है
हमारी दी हुई भूख से लेकर
हमारे हिस्से की चाँदनी तक
संसद से पारित हुई
जन-सुविधाओं की धाँधली तक
वह सबको नकारता है
अपने साथ अपने जैसे
सभी को पुकारता है
और बताता है
उनको
कि भूखे होने के सपने कभी नहीं देखे जाते
भूखा सिर्फ़ हुआ जाता है,
अन्न के सिर्फ़ सपने नहीं देखे जाते
अन्न के लिए लड़ा जाता है;
कि जनक्रांति के सिर्फ़ गीत नहीं गाए जाते,
क्रांति हर ख़ाली मुट्ठी में बंद होती है
जिसे कभी भी ताना जा सकता है
किसी भी शोषक के ख़िलाफ़!

जिन्हें हमने कभी
अपना फ़ुटपाथ भी नहीं दिया सोने के लिए
और आज
जिनके घरों के रास्ते तक सील हैं अब,
वे सब जाग रहे हैं
ख़ूँख़ार सपनों के बीच
और उन्हें सब नामंज़ूर है अब
सरकारी सब खोखले वादे
संवेदनशील दिखने के
हमारे-आपके-सबके छिछले इरादे
वे नकारते हैं!
हर आवाज़ में उस एक की आवाज़ कहती है,
उसकी आवाज़ में हर आवाज़ अब कहती है
कि वे कोई ट्रैजेडी नहीं
इंसान हैं
और हर इंसान का यह हक़ है
कि वह अपने पेट
और छत की लड़ाई लड़े

अब
जब उसे सब नामंज़ूर है
तो वह इस समूचे ढाँचे को
तोड़ देना चाहता है—
जिसमें श्रम की लूट
एक सरल-सामाजिक प्रक्रिया है;
जिसने उसके जैसे हर किसी को
सिर्फ़ भूख दी है!
अब
वह सिर्फ़ अपने हक़ को
साबित करना चाहता है,
भूखे पेट ही सही
मगर भूख से नहीं,
गोली खाकर मरना चाहता है!
अब वह सब कुछ नकारता है
और लड़कर मरना चाहता है…
उसे झूठ-मूठ का कुछ भी नहीं चाहिए अब!

हर्ष भारद्वाज हिंदी की नई पीढ़ी के कवि हैं। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इस प्रस्तुति से पूर्व प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखें : परिवार एक घिनौना शब्द है

1 Comments

  1. Vivek chaturvedi अगस्त 15, 2020 at 7:59 पूर्वाह्न

    मेरी सबसे बड़ी मिल्कियत है बतन मेरा
    मेरी हर सांसे , मेरे बतन का कर्जदार है ।।
    कतरा -कतरा लहू बह जाये मेरा
    मेरे बतन के बास्ते ,मुझे स्वीकार है ।।

    Reply

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