कविताएँ ::
महेश वर्मा
सड़ना
सड़ने के साथ-साथ वस्तु की गंध और आकार में कुछ बदलाव आते हैं। जैसे अगर वह सेव ही है तो उसका अपने वास्तविक केंद्र की ओर सिकुड़ना और काला होने से पहले वाले गहरे भूरे की ओर नींद में लुढ़कना। उदाहरण में व्यर्थता पैदा करने को कुछ बीज हैं और उनके कायांतरण की उम्मीद भरी कहानियाँ। बाक़ सब अपने व्युत्क्रम में मिट्टी में मिल जाने वाले हैं, जैसे अपने शिल्प के बोझ से थका मनुष्य इतना औपचारिक है कि मुस्कुराते दर्द का स्थायी विज्ञापन हो गया है। वह अपने आत्मघाती शिल्प समेत मिट्टी में मिलेगा। क्षरण इतना उजागर है कि जैसे धूप दिखाने को रखी उसकी किताबों के सुंदर कवर।
कमरे में आया तो कुछ सड़ने की बू आ रही थी। कह नहीं सकता कि वह अमरूद सड़ने की गंध से मिलती-जुलती थी, सिरके जैसी थी या किसी जीव के मरकर सड़ने जैसी। यह इस गद्य से काफ़ी पहले की बात है, तब मेरे पास यह सांत्वना हुआ करती थी की गंध पहले ही से कमरे में थी कि सुगंधित अगरबत्ती जला लेना और कोई पसंदीदा इत्र देह पर मल लेना।
छुपना
होने और दिख जाने के भ्रम के बीच अनेक सतहें बुन लेना। अपनी आवाज़ बदल लेना। धूप को रंगीन चश्मे की तरह पहने रहना, भले ही बाहर अंधकार हो जाए।
पहले भी कहा कि अनेक सतहें। वे अगणितीय ढंग से अनेक आयामों में विन्यास रचती हों जैसे चुप्पियों की अनेक सतहें, विदा में उठे हाथ के दृश्य की अनेक सतहों में ऐसे मिल जाएँ कि न कोई रंगोली बन सके न कोई सुसंगत चित्र।
कहीं कोई चीज़ थी जैसे आवाज़, फूल या सुबह तो वह जैसे दिखना ही न चाहे। फूल सूर्यास्त की ओर मुँह कर ले, आवाज़ को रेत सोख ले और सुबह को सबसे छोटी चिड़िया भूल जाए। ऐसे छुपना।
एक बार अपनी ही पीठ के पीछे छुप गया। मुड़कर देखने से नहीं दिखने की कठिन परिधि और कोण को थामे रहता। बहुत समय तक ऐसे ही छुपा रहा और अप्रकाशित आत्मकथा हो गया।
चुप
चुप ऐसी चीज़ है जो वर्णन से रोकती है और किसी दूर के सिरे पर बैठे शख़्स के शब्दों को ख़ामोश कर देती है। इसकी अनेक क़िस्में हैं। ये एक चुंबन की तरह उजली और मौत जैसी सर्द हो सकती है। आख़िर एक फूल, एक पत्थर और एक सितारे की चुप के अलग-अलग मायने हैं कि नहीं?
एक बार वह त्वचा की जगह देह की सबसे स्पष्ट संवेदना बनकर चिपक गई तो ज़ चुप ही से अपनी बात कहने लगा। दरअस्ल, यह एक मिमिक्री की तरह था इसलिए तरल क्षणों में हमेशा विफल हो जाता था। इन असफल पूर्वाभ्यासों के इतर दुष्प्रभावों से ज़ अपनी पुकार को शब्द देना ही भूल गया। धन्यवाद और आभार की चुप, ऊब और सिर दर्द की चुप से उसने बिना कुछ कहे सब कुछ बताना सीखा और मर गया।
अभी तो यहीं वह बाहर चुपचाप खड़ा था की हैरानी जताने वाला परिचित यह संस्मरण सबके ऊबने तक सुनाएगा।
ज़ संस्मरणों से डरता था इसलिए चुपचाप मरा तो रविवार की दुपहर उसने कुछ उबासियों ही को जन्म दिया।
नीला
देर से बाहर खड़ा खड़ा ज़ यह समझ ही नहीं पाया कि कब उसके पाँव, उसकी पलकें और सुंदर उँगलियाँ लोक-कथा के पात्र की तरह पत्थर हो गईं। इससे एक लाभ हुआ कि वह ऋतुओं से निरपेक्ष रहने लगा जैसे वायरल फ़ीवर का न होना और बग़ैर स्वेटर ही चौक घूम आना आदि के बाहरी लक्षण।
एक अन्य शाप से देह के पत्थर के भीतर, उसका ट्रंकुलाइजर से नीला मस्तिष्क, निरंतर बड़बड़ाता रहता। इस बड़बड़ाहट से खुद ही विकल होकर ज़ ने इस पर ध्यान देना, इस पर ध्यान देकर सुनना शुरू किया। ये असंभव काल्पनिक बातचीतों की अप्रकाशित पांडुलिपियाँ थीं गोया। ज़ ने जब बार-बार यह होता देखा कि इन काल्पनिक संवादों में भी ख़ुद उसकी ओर से कल्पित वाक्य कमज़ोर हैं और अपूर्ण तो उसे इससे हैरत हुई और अंततः दुख भी हुआ। इन संवादों में वह अक्सर सफ़ाई देता होता और बीच में ही उसके वाक्य रुँध जाते। इसी कारण मैं अंतःकरण वग़ैरह को छेड़ता नहीं हूँ ऐसा बड़बड़ाते हुए शरद ऋतु के अंत-अंत में उसके मस्तिष्क ने कामना की कि वह भी पत्थर हो जाए।
महेश वर्मा सुपरिचित कवि-कलाकार हैं। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : कुछ चित्र बाएँ हाथ से | न नज़्म में आँसू मिलाना है न पानी में
बहुत सुंदर 🌸