कविताएँ ::
प्रकाश

प्रकाश

गिरता हुआ परदा

धीरे-धीरे एक उठता हुआ परदा था!

सामने से उफनता हुआ एक दरिया आता था
एक गिरती हुई रोशनी एक बहता हुआ बादल आता था
एक स्याह पक्षी की प्यास उड़ती हुई आती थी
शीतल हवा में एक उत्तप्त साँस घूमती फिरती थी
वह आती थी
एक अदृश्य आँख से देखा गया अभिराम दृश्य उतर कर आता था

एक घनी पुकार पुकारकर गूँजती क़रीब आती थी
कोई एक इठलाता हुआ खिलखिला कर हँसता था
उसकी हँसी का साम बहता हुआ आता था

वह साम सुन कर कोई एक करुणा से रोता रहता था
उसका रोना झर-झर दरिया में गिरता था

उठा हुआ एक परदा
धीरे-धीरे एक गिरता हुआ परदा हो जाता था!

रंग

उसके अंक में प्रवेश कर अग्नि लुप्त हो गई थी
उसकी आभा के पास पहुँच कर काला गिर गया था
हरा उसकी सीमा में जाकर विरल हो रहा था
नीला उसके पीछे परदे में रहा करता था
परदा और नीला अब वहाँ नहीं था
पीला उसकी थाह लेना चाहता था
परंतु उसे छूने से पहले काँप जाता था
भूरा उसमें प्रवेश करने से पहले खो गया था
अब वह बेतहाशा ख़ुद को ही ढूँढ़ता फिरता था
सुनहरा ख़ुश था कि वह किसी तरह उसमें शामिल हो गया है
पर ग़फ़लत टूटते ही मायूस हो जाता था
गुलाबी उसमें लगभग घुस-सा गया था
कि अचानक बाहर धकेल दिया जाता था
मटमैला पहले से डरा हुआ था
वह उसके पास जाने से पहले इतना सावधान था
कि अतिरिक्त में फिसल कर किसी गह्वर में जा गिरता था

सबके वजूद के गिरे हुए मलबे पर उठा हुआ वह
सबके बिखरे हुए सौंदर्य पर खिलता हुआ वह

शीतल
सहज
ज्योकित
श्वेत था!

ज्ञ

निर्ध्वनि में केवल ‘ज्ञ’ ध्वनित होता था।

‘ज्ञ’ को सुनने के लिए ‘ज्ञ’ की ध्वनि होती थी
‘ज्ञ’ की ध्वनि को सुनता हुआ एक और ‘ज्ञ’ ध्वनित होता था
दोनों को सुनता हुआ एक तीसरा ‘ज्ञ’ ध्वनित होता था
यूँ ‘ज्ञ’ के समग्र जोड़ में ‘ज्ञ’ का अनंत ‘ज्ञ’ ध्वनित होता था
‘ज्ञ’ का अनंत ‘ज्ञ’ निर्ध्वनि में ध्वनित होकर आकाश होता जाता था
एक समय ‘ज्ञ’ निर्ध्वनि को आपूरित कर देता था

निर्ध्वनि चुपचाप ‘ज्ञ’ का आकाश देखता था

और ‘ज्ञ’ से बाहर चला जाता था
वहाँ एक और ‘ज्ञ’ उसकी प्रतीक्षा करता था!

चिड़िया का गीत

एक हरे वृक्ष पर पीली चिड़िया आती थी
चिड़िया एक जंगल से उड़कर आती थी
नीचे अपनी साँवली परछाई के ऊपर
अपने पीलेपन को
आकाश के नीले में गाती थी

एक पुकार से वृक्ष की मटमैली जड़
सिहर कर उसको देखती थी
अगली बार चिड़िया जड़ के मटमैले को गाती थी

उसे सुनकर एक पकता हुआ फल सुगंधित हो जाता था
पकता हुआ फल लाल और रस को पुकारता था

तुरंत चिड़िया लाल और रस को गाती थी
गाने में सुगंध जो क्षण भर पहले छूटा
तत्क्षण सुगंध को भरपाई में
दो बार गाती थी

एक बेरंग हवा वहाँ से गुज़रती थी
वृक्ष बाहर थोड़ा हिलता था
चिड़िया थोड़ी देर बेरंग, बाहर और हिलने को गाती

चिड़िया का गाना सब सुनते थे
अचानक चिड़िया को लगता था
कि वह ख़ुद का गाना न सुनती थी
फिर चुप होकर वह ख़ुद को सुनने लगती थी
फिर बिन बोले अपने सुनने को गाती थी
वह एक चिड़िया जितने को जितना गाती थी
उसी एक में उतनी चिड़ियाएँ
उतनी और उतर आती थीं
आख़िर में भर कर सब चिड़ियाएँ सब में
एक साथ चुपचाप सुनने का गीत गाती थीं!

नींद

सोई हुई नींद बिस्तर पर चित्त पड़ी मिलती थी
धुँधला जागा हुआ
मैं पीठ की ओर वस्त्र पर गिरकर
धीरे उसकी देह में धँस जाता था

सबसे पहले
बिस्तर पर रखी नींद पर
मेरी पीठ धँसकर ढलती थी
सीने में खिली एक आवाज़
सरक कर भीतर मुँदती थी

फिर दोनों ओर रखे नींद के दो शिथिल हाथों पर
मेरे खुले हाथ उतरते थे
नींद के लंबे पैरों पर
ढलक कर पैर डूबते थे

सबसे आख़िर में
ऊपर पड़ा ऊँचा माथा
नींद के सिर की लहर में घुल जाता था

नींद :
जैसे जल में डूबे जल में हवा की साँस डूबी थी!

‘हूँ’ गीत

एक वृक्ष के नीचे बैठ
मैंने विनय से कहा—‘हूँ’
वृक्ष ने जागकर चिड़ियों को पास बुलाया

वृक्ष और चिड़ियों ने साथ
आकाश की ओर मुख कर गाया—‘हूँ’

तब से आकाश ‘हूँ’ का सुंदर गीत गाता जाता है!

चीकू प्रशांत गया

लौ में मैं पूरा था
विराट अग्नि में पता नहीं
बहुत छोटी एक बूँद में पूरा घुसा था
मैं समुद्र को नहीं जानता था
मैं असमय बूढ़ा हो रहा था
एक दिन चीकू को बड़प्पन से कहा—
तू छोटा है!
चिढ़ कर वह बोला—आप तो कविता करें,
मैं अपनी नाव लेकर प्रशांत महासागर जा रहा हूँ!

व्यतीत

मैं आगे भागता था
पीछे कोई भगाता था
मैं भागता हुआ उसे भगाता था जो पीछे
से मुझे भगाता था
मैं आगे भागता हुआ पीछे वाले को भगाता था
पीछे जो भागता था
वह छूटा हुआ समय था
मैंने हठात् मुड़ कर उसे गहरे देखा
और वह सशरीर भस्म हो गया!

मनुष्य-मुट्ठी

अनेक अनंतों में एक अनंत था
वह एक अनंत, अनंत होता जाता था
एक अनंत
अनेक दिशाओं में अनंत होता हुआ
अनेक अनंत होता था

अनेक अनंतों के एक अनंत विस्तार में
आकाश की ओर यह मनुष्य-मुट्ठी खुलती थी
और एक भविष्य छूटकर अनंत हो जाता था।

मुँह की खाता हूँ

एक समय में समय की कथा लिखने की
इच्छा धारे हूँ

समय का उठा हुआ एक हाथ लिखता हूँ
कि दूसरा अपनी तर्जनी के साथ
एक दूसरी दिशा में उठता है
दूसरा हाथ लपक कर छूता हूँ
तो पहले का दृश्य धुल कर मिट जाता है

समय की थोड़ी त्वचा किसी भाँति लिखी जाती है
तो बहुत कोमल वह आँख की पलक
भीतर मुँद जाती है

समय की लपलप जिह्वा को ताबड़तोड़ पकड़ता हूँ
ओह! अतल-सी गुहा
उसके कंठ के भीतर उतरती है!

पर शर्म नहीं मुझको आती है
समय का पूरा मुख गिद्ध-सा देखना चाहता हूँ!
अपने ही मुँह की खाता हूँ!

हारता हुआ रंग

यह इक्कीसवीं सदी की एक सादी सुबह की
कुछ विस्मय भरी ख़बर थी
कि काला जीत गया

इस ख़बर से पूरी दुनिया हैरत में थी
और अपने यहाँ तो हैरत के साथ अपार हर्ष था
इस अपारता ने अपने ब्रह्म को भी लजा दिया
हालाँकि अपना यह ब्रह्म पहले से मुँह छिपाता फिर रहा था
क्योंकि उसका विराट ब्रह्मांड
कुछ समय पहले ही एक गाँव में तब्दील हो चुका था

अब लाख टके का सवाल यह था
कि जब ब्रह्म लगातार हार रहा था
और अपनी ही विराटता और विविधता से बाहर
खदेड़ा जा रहा था
तो एक काला
जो उसी विराट और विविध में
कहीं थोड़ा भूरा, कहीं थोड़ा कत्थई,
कहीं थोड़ा साँवला,
और कहीं अपने भुच्च कालेपन के साथ
खेतों, जंगलों, पहाड़ों और तीसरी, चौथी, पाँचवीं
न जाने कितनी अनगिन दुनियाओं में रहता था
वह काला जीतने की बात सोचने से पहले हार जाता था
हर सुबह उठने पर दिशा-मैदान जाने की ज़रूरत महसूस करने से पहले
उसे अपना पुराना क़र्ज़ चुकाने की
ख़त्म होती जाती मोहलत का ख़याल आता था
एक काला तो बाहर से आयातित कुछ ज़्यादा सफ़ेद
और सस्ते कपास से परेशान था
जिसके मुक़ाबले उसका अपना कपास हार रहा था
अपने कपास के हारने के साथ-साथ वह भी हार रहा था
और अपनी हार और बढ़ते क़र्ज़ से परेशान
वह हर रोज़ रस्सी पर झूल जाया करता था
काला पहाड़ों और जंगलों में
उनके दोस्त की तरह रहता था
पहले की तरह अपने सुख में सुखी
और दुख में दुखी होने की इजाज़त
अब उसे नहीं थी
उसे उसके जंगलों और पहाड़ों से खदेड़ा जा रहा था
वह या तो मिट रहा था
या भाग कर उस सफ़ेद दुनिया में क्रमशः
विलीन हो रहा था
उसकी आत्मा में अब भी थोड़ा काला जीवित था
वह जब तब सिर उठा लेता था
पर उस सफ़ेद दुनिया में सफ़ेद झक्क और चमचमाते
अनगिनत चैनल और अख़बार थे
जिनमें देह और रूह से गोरे मर्द और बालाएँ
गारंटी के साथ गोरा बनाने का लालच देते
आयातित उत्पादों के साथ
उस बचे हुए काले पर पुरज़ोर टूट रहे थे
और काला दुबक कर
गुह्य दिमाग़ के उन कुछ छोटे तंतुओं में छिप रहा था
जहाँ से सिर्फ़ धुआँधार विचार प्रवाहित होते थे
आचरण का संगीत छोड़कर

यह गोरे की बड़ी सूक्ष्म विजय-यात्रा थी
काले के भौतिक रूप के सामने तो ख़ैर, वह असहाय था
सो उसकी विजय-यात्रा का लक्ष्य
एक काला दिल और दिमाग़ था
नहीं नहीं सुधीजन, काले दिल और दिमाग़ वाले
सनातन मुहावरे में वह काला नहीं था
वह सफ़ेद से कुछ अलग और विशिष्ट होने के अर्थ में
और अपनी स्थानीयता में काला था
वह अपने होने भर में काला था
और उस कालेपन में अलग-अलग फूलों की सुगंध थी

सफ़ेद की विजय-यात्रा के आग़ोश में
तरह-तरह के फूल अपने पौधों से उखड़कर
समाते और मसले जाकर
एकरंगे कीचड़ में तब्दील होते जाने को अभिशप्त थे
जहाँ से उनकी अपनी-अपनी ख़ुशबुओं की जगह
एक भद्दी-सी बदबू आने लगी थी

इसी बीच उस सुबह
सात समुंदर पार कहीं किसी एक
काले के जीतने की ख़बर पाकर
सबसे ज़्यादा ख़ुश वे लग रहे थे
जिनकी रूह में साठ सालों में ही
एक गोरा आल्थी-पाल्थी मार कर बैठ गया था
और वे एक आदर्श मेज़बान की तरह
उसकी थाली में डॉलर और पूँजी का भोग परोस रहे थे
पीने का पानी बोतल बंद प्यूरिफ़ाइड और महँगा था
वस्तुतः काले की विजय की इच्छा में कोई शामिल नहीं था

एक काले के जीतने के
सघन सफ़ेद शोर के बीच
काले की जीत एक रहस्य थी
जो सिर्फ़ कुतूहल और मज़ा देती थी!

फिर कफ़न

शराब के नशे में ‘ठगिनी क्यों नैना झमकावै’ गाते-गाते
जब घीसू और माधव लड़खड़ाकर
शरबख़ाने के बाहर गिर पड़े थे
तो किसी ने घसीटकर दोनों को
एक किनारे लगा दिया था
सुबह शराब और नींद की ख़ुमारी में
उठ कर जम्हाई लेने के बाद
जब बाप और बेटे की नज़र एक दूसरे से मिली
तो एकाएक दोनों को याद आया
कि बुधिया की लाश तो झोपड़ी में ही पड़ी है
और वे पिछली शाम से
कफ़न लेने बाज़ार आए हुए हैं

फिर उन्हें याद आया
कि गाँठ के सारे पैसे जा चुके हैं
दोनों की नई समस्या थी
कि गाँव वालों को क्या कहेंगे
और बिचारी बुधिया भी अपने कफ़न का इंतज़ार कर रही होगी

किसी तरह डरते-हिचकते वे दोनों
जब गाँव के भीतर घुसे, एक लंबा वक़्त गुज़र चुका था
उन्हें कुछ अजीब-सा लगा
एक पक्की-काली सड़क जैसे जबरन गाँव में घुस आई थी
उस पर चलकर अंदर पहुँचे कई ट्रकों से
अजीबो-ग़रीब सामान उतारे जा रहे थे
हैरत से ट्रक को घेरे खड़े गाँववालों को
ट्रक का एक आदमी बता रहा था
यह शहर से आया बढ़िया माल है
और यह सात समुंदर पार से
और यह सत्रह, यह अठारह, नहीं नहीं बीस समुंदर
पार से आया नया सामान है—
सस्ता और बढ़िया!

गाँववालों ने घीसू और माधव को देखा
दोनों झेंपते-से खड़े थे
फिर गाँववालों की नज़र फिरकर
ट्रक से उतारे जाते सामानों पर टिक गई
थोड़ी देर बाद उनमें से कुछ झिझकते हुए बढ़े
और सामानों को छू-छूकर देखना शुरू कर दिया

एक अजीब-सी सिहरन और रोमांच
उनकी देह में दौड़ रहा था
उनकी कल्पना सात और बीस समुंदर पार
जाने के लिए बेचैन हो रही थी

घीसू और माधव को लगा
जैसे शराब पीने के बाद
वे कफ़न के बारे में भूल गए थे
फिर सुबह याद आया था
वैसे ही गाँववाले भी किसी अजाने नशे में
कफ़न की बात भूल गए हैं
और आने वाली किसी सुबह उन्हें
इसकी याद फिर आएगी
तब उन दोनों को तलब किया जाएगा

उपेक्षित से वे दोनों
अपनी झोंपड़ी की ओर लौटे
पिछले दिनों के अलाव की बुझी हुई
राख जमी पड़ी थी
वे झोंपड़ी के अंदर गए
चारपाई पर अस्त-व्यस्त पड़ी बुधिया की
टँगी हुई आँखें देखकर
इस बार उन्हें डर नहीं लगा
दोनों उकड़ूँ ज़मीन पर असहाय बैठ गए
उनकी आँखें सूनी थीं
दोनों को भूख भी लग आई थी
उन्हें रोटी की ज़रूरत थी
और उधर आँख फाड़े
शून्य में एकटक ताकती बुधिया
दानों से अपना न पाया हुआ
कफ़न फिर माँग रही थी!

पूस की रात के बाद

ठंड की उस कठिन रात के बाद
सोकर उठे हल्कू ने
जब नीलगायों द्वारा विनष्ट की गई
अपनी फ़सल को देखा
और उसके चेहरे पर जो निश्चिंतता उग आई थी
यह उसके आगे की कथा है

स्मृति बताती है
उस पूरे दिन वह बहुत ख़ुश था
सबसे पहले तो वह गाँव के पोखर पर जाकर
ख़ूब मल-मलकर नहाया था
जैसे पीढ़ियों से इकट्ठा हुई मैल को
अपने शरीर और आत्मा तक से धो डालना चाहता था
दुपहर उसने मुन्नी के हाथों
मक्के की दो रोटियाँ खाईं
उसे इस मस्त भाव से रोटियाँ चबाते
मुन्नी ने पहले कभी नहीं देखा था
वह मुँह बाए देख रही थी
हल्कू में महाजन का ख़ौफ़ बिल्कुल नहीं था

खाने के बाद हल्कू खटिया पर ढेर हो गया
पिछली रात की अधूरी नींद की ख़ुमारी
उस पार तारी थी
नींद के आख़िरी बिंदु पर भी
आने वाली रात की कड़कती ठंड की कल्पना
उसकी नींद में कंकड़ नहीं डाल पा रही थी

ख़ूब गाढ़ा सो लेने के बाद
वह उठा
चिलम पी और दीए की धीमी रोशनी में
देर तक जबरा के साथ खेलता रहा
जबरा भी थोड़ा भौचक था

कोठरी की दीवार पर
दीए की पीली रोशनी में
दो बची हुई आत्माओं की
क्रीड़ा करती परछाइयाँ
देर रात तक तैरती रहीं

लेकिन अगली सुबह गाँववालों ने
हल्कू को थोड़ा चिंतित देखा
पड़ोस में रहने वाली धनिया ने
खेत से लौटते होरी को बताया
कि मुन्नी कह रही थी—
हल्कू अब शहर जाने की सोच रहा है
उसने अपने गोबर का पता माँगा है

गोबर जब शहर गया
तब भी होरी इतना परेशान नहीं दिखा था
नया लौंडा था
पर हल्कू…
धनिया ने मुन्नी की उदासी में कहा—
बेचारी वह भी चंपा की तरह
काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती
हल्कू के जाने के बाद
वह कलकत्ते को सराप भी नहीं सकती
अब तो कितने कलकत्ते हो गए हैं
और अब तो अपने गाँव में भी
कलकत्ते के आने की ख़बर है
सवेरे चौपाल पर अलगू चौधरी
और जुम्मन मियाँ बतिया रहे थे

होरी असहाय-सा सुनता रहा
फिर थक कर धीमे क़दमों से
कोठरी से बाहर निकल गया

साँझ का सूरज डूब रहा था
धीरे-धीरे गाँव में अँधेरा उतर रहा था
किसान अपने-अपने बैलों सहित
घरों को लौट रहे थे
पूस की एक और बर्फ़ानी रात आ रही थी
और इस तरह सदी की एक महान गाथा का
धुँधला-सा अंत हो रहा था!

प्रकाश (1976–2016) हिंदी के सुपरिचित कवि-आलोचक हैं। वह असमय दिवंगत हुए। उनके दो कविता-संग्रह ‘होने की सुगंध’ (वर्ष : 2009), ‘आवाज़ में झर कर’ (वर्ष : 2018) और एक आलोचना-पुस्तक ‘कविता का अशोक पर्व’ (वर्ष : 2015) शीर्षक से प्रकाशित हैं। उनकी यहाँ प्रस्तुत कविताएँ अब तक असंकलित हैं। ‘सदानीरा’ के लिए इनका चयन सुपरिचित कवि-लेखक निशांत ने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं से किया है। प्रकाश और निशांत से और परिचय के लिए यहाँ देखें : वह जवान होकर बूढ़ों की तरह लिखता था

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