कविताएँ ::
रुस्तम

एक
कितनी सदियाँ बीत गईं।
मैंने तुम्हारी प्रतीक्षा की।
तुम आईं।
तुम कितना बदल गई थीं!
तुमने मुझे देखा
जैसे मैं कोई अजनबी था।
एक ठंडी लहर
तुम्हारी ओर से
मेरी ओर आई।
मैं सिहर गया।
दो
पत्थरों
और चट्टानों में से होते हुए
हम पहाड़ से उतरेंगे
वहाँ जहाँ तीखी धार वाली नदी बहती है।
पीछे मुड़ेंगे,
हाथ जोड़कर पहाड़ के आगे झुकेंगे।
नदी के किनारे बैठे रहेंगे बहुत देर तक,
उसे बहते हुए देखेंगे,
अंतिम बार उसका पानी चखेंगे।
फिर सारे दृश्य को
आँखों में समेटकर
उतर पड़ेंगे पानी में।
तीन
भूल जाना अच्छा है।
विस्मृति सुंदर है।
प्रार्थना करो कि तुम मुझे भूल जाओगी
और मैं तुम्हें याद नहीं कर पाऊँगा।
प्रार्थना करो
कि किसी दिन
हम अपनी ही स्मृति से चले जाएँ—
जैसे कोई
घर से निकलता है
और फिर सदा के लिए
अदृश्य हो जाता है।
चार
उस दिन जब हम आए
यहाँ कुछ वृक्ष थे।
कुछ पत्ते ज़मीन पर पड़े थे
और कुछ छोटे-छोटे फूल।
तुमने एक फूल उठाया
और उसे ख़ला में उछाल दिया।
उसके वक्र को मैं देखता रहा।
आज यहाँ बस हवा है।
पाँच
तुमने मुझे चूमा।
मेरे होंठ काले पड़ गए।
तुम्हारा चुम्बन
मेरी मृत्यु का दंश था।
छह
अँधेरे में बैठी हो,
पत्थर की बेंच पर।
कितनी स्याह लग रही हो।
पर आँखें दमक रही हैं।
तुम किसी और ख़ला से आई हो।
कितनी अकेली हो!
सात
तुम्हारी प्रतीक्षा में
मैं वहाँ घूम रहा था
वीरान उस जगह पर।
मैंने एक पत्थर को हिलाया :
एक साँप उसके नीचे से निकल कर भागा।
मैंने देखा अकेला एक पेड़
वहाँ खड़ा सूख रहा था।
एक घोड़ा भी मेरी कल्पना में
वहीं कहीं था : वह भटक गया था।
मैं बंजर एक पहाड़ी पर चढ़ गया।
सिकुड़ा हुआ भूरा एक फूल उस पर पड़ा था।
सूरज ढलने तक मैंने तुम्हारी प्रतीक्षा की।
तुम नहीं आईं।
उस वीराने में
मैं और भी आगे बढ़ गया।
आठ
जब मैं ख़ुद ही को भूल जाऊँगा,
तो तुम्हें कैसे याद रखूँगा?
विभिन्न रंगों वाले अद्भुत तुम्हारे बाल,
हल्की नीली तुम्हारी आँखें,
साँवले तुम्हारे गाल।
तुम मिलने आओगी
और मैं तुम्हें पहचान नहीं पाऊँगा।
नौ
मैं आऊँ या न आऊँ,
तुम मेरा इंतज़ार करना।
संभव है मैं आ पाऊँ।
संभव है मैं आ न पाऊँ।
पर तुम मेरा इंतज़ार करना।
कितनी चीज़ें हैं
जो मुझे रोक सकती हैं!
एक तिनके से अधिक
मैं क्या हूँ?
आँधी आए तो कहीं और उड़ जाऊँ।
बारिश आए तो डूब जाऊँ।
क्या पता मैं सड़क तक पार नहीं कर पाऊँ।
पर तुम मेरा इंतज़ार करना।
दस
समय था ही नहीं।
हम चलते चले गए
सूनी उस राह पर।
फिर उसी पर गिर पड़े।
हमारी
श्वेत हड्डियाँ
अब भी वहाँ पड़ी हैं।
सूर्य की रोशनी में
वे चमक रही हैं।
ग्यारह
पूरे शहर में मैंने देखा।
वह कहीं नहीं थी।
एक भी चेहरा उस जैसा नहीं था,
न काठी, न चाल।
मैं शहर से निकला।
रस्ते में एक लाल कंकड़ पड़ा था।
उसे उठाने के लिए मैं झुक पड़ा।
बारह
मैं झुका और मैंने
पृथ्वी से क्षमा माँग ली।
मैं एक पत्थर के आगे झुका,
एक पेड़ के आगे।
हवा में एक पौधा हिल रहा था।
एक जानवर मेरे पास से गुज़रा।
एक पर्वत लहरा रहा था।
समुद्र उफनता हुआ
भूमि की तरफ़ आ रहा था।
मैं झुका और मैंने
उन सबसे क्षमा माँग ली।
तेरह
सभी औरतों का सौंदर्य
तुममें आ भरा है!
तुम चलती हो तो हज़ार औरतें चलती हैं!
तुम हँसती हो तो हज़ार औरतें हँसती हैं!
घाघरा उठा
तुम सीढ़ियाँ उतरती हो
दो हज़ार टखने
मेरी आँखों में चमकते हैं!
तुम्हारे माथे से बिजली कड़कती है!
तुम क्रोध में अचानक मुड़ती हो
पूरी पृथ्वी की आग
तुम्हारी आँखों से बरसने लगती है!
चौदह
उसने मुझे देखा तो मैं डर गया।
रोशनी सिर्फ़ उसी पर पड़ रही थी।
उसके होंठ लाल थे,
आँखें चमक रही थीं,
और वे दया से मुझे देख रही थीं।
लंबी उस गली में हम अकेले थे।
मैं उसके पीछे-पीछे चल रहा था
जब वह मुड़ी।
पंद्रह
आज फिर मैंने उसे देखा।
दूर उस सुनसान में
उस पहाड़ी से वह उतरी,
रेत पर चलने लगी।
एक दमक उसमें से फूट रही थी।
यूँ था जैसे जादुई एक सौंदर्य
ख़ुद ही चला जा रहा था।
उसकी रोशनी में
मैं नहाना चाहता था।
सोलह
तुम इतना पास थीं
मैं तुम्हें देख भी नहीं पाया।
बस एक गंध
मेरे नथुनों में चढ़ रही थी।
सत्रह
मरु में
जिस राह पर
मैं चल रहा था,
मैं उस पर पैर रखता था,
फिर उठाता था।
मेरे पीछे उसका चिह्न
मिटता जाता था।
अठारह
उस द्वार तक मैं गया।
भीतर वह थी।
मैंने उसे खटकाया नहीं,
यूँ ही लौट आया।
उन्नीस
वहाँ दूर मैंने ख़ुद ही को देखा।
कैसे मैं खड़ा था
जैसे कुछ ढूँढ़ रहा था।
बीस
कैफ़े में
बैठे हुए
मैंने तुम्हें गढ़ा।
काँच के
द्वार को
धकेलकर
तुम अंदर आईं।
कुछ सोचते हुए तुम मुस्कुरा रही थीं।
तुमने कॉफ़ी के लिए कहा।
हम बतियाने लगे।
कितनी तरह की बातें हमने कीं!
हम हँसे।
फिर गंभीर थे।
बीच-बीच में कुछ-कुछ देर तक
हम चुप भी रहे—
हम कुछ कह नहीं पा रहे थे।
अंतत: हम उठे और चल पड़े
दो उलटी दिशाओं में।
पीछे से
तुम्हें देखते हुए
मुझे पता था
कि अब भी तुम मुस्कुरा रही थीं।
मैंने एक और कॉफ़ी के लिए कहा।
एक बार फिर तुम्हें गढ़ा।
काँच के
द्वार को
धकेलकर
तुम अंदर आईं।
इक्कीस
उस दिन
एक पत्थर ने मुझसे बातें कीं।
एक दीवार ने मुझे सुना।
एक चट्टान ने झुककर
मुझे अपने ऊपर खींच लिया।
दूर तक फैली रेत थी।
उसके भीतर से एक सोता फूट पड़ा।
उस पानी को मैंने पिया
और एक पेड़ के नीचे लेट गया।
बाईस
मैं उस जगह पर था
जहाँ और कोई नहीं था।
मुझे लग नहीं रहा था
कि मैं अकेला हूँ।
बहुत देर तक मैं वहाँ बैठा रहा।
फिर मैं उठा
और थोड़ा और आगे चला गया।
तेईस
तुम्हारी छवि तुमसे भिन्न थी।
वह मुझे रोज़ मिलने आती थी।
दूर से
मैं उसे आते हुए देखता था।
हम बग़ीचों में घूमते थे।
लकड़ी की पुरानी किसी बेंच पर
हम बैठ जाते थे।
एक दिन हम कैफ़े में थे।
वह मेरी ओर झुकी और उसने
लगभग फुसफुसाते हुए मुझे
एक राज़ बताया।
चौबीस
मूर्ति
पार्क में तुम मिलती हो,
रोज़ यहीं,
इस कोने में,
इसी मुद्रा में निर्वस्त्र।
टाँगें, जाँघें भरी हुई हैं।
वक्ष, कूल्हों,
नितम्बों का उभार।
मैं रोज़ यहाँ आता हूँ,
तुम्हें देखता हूँ,
फिर चला जाता हूँ।
हम दो समयों में रहते हैं।
मेरा समय चल रहा है,
तुम्हारा अचल,
निराकार।
रुस्तम की कविताएँ ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित होने का यह तीसरा अवसर है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखिए—
कविताएँ और तस्वीरें : राजस्थान | कुछ अजब दृश्य इधर मैंने देखे हैं
गद्य-डायरी : संस्कृति के संकट
अनुवाद : अविचल छितराया हुआ मौन | मैं यहाँ खड़ा हूँ, क्या तुम समझते हो | फूल के मौन की तरह पवित्र और सुंदर
बहुत सुंदर कविताएं। बहुत कम आवाज़ करती, लेकिन बहुत कुछ कहती