कविताएँ ::
लक्ष्मण गुप्त

lakshman gupta hindi poet
लक्ष्मण गुप्त

चले गए लोग

चले गए वे लोग
अपने जीवन से थककर नहीं
हमारी बासी होती ज़िंदगी से ऊबकर
उन्हें ईर्ष्या थी ठंडेपन से
वे सिर्फ़ चीज़ों में ही नहीं चाहते थे गर्मी
संबधों में भी ताप बनाए रखना चाहते थे
वे दिन भर की गर्मी को दबोच लेते थे—
खुरदरी लकीरों वाली मुट्ठियों में
ओढ़ लेते थे फटे हुए तलवों के चारों ओर
अगली सुबह तक के लिए पर्याप्त गर्मी
वे सर्दीली रातों में आग से नहीं
इसकी-उसकी चिंताओं से गर्म होते थे

चले गए वे लोग
जो दुपहर में आए अतिथि को
रोक लेते थे यह कहकर
कि ठहर जाओ अभी रात होने वाली है
यक़ीनन वे लोग रात को आसमान से नहीं
ज़मीन से जानते थे
उन्हें पता था कि रात की चादर
हवा में नहीं बुनती
वह हमारे ज़ेहन में रच-बुन जाती है!

चले गए वे लोग
जिनके लिए घर का ख़ालीपन
जीवन में ख़ालीपन होता था
दरवाज़े का सन्नाटा होता था
आँखों में गहरे तक समा जाने वाला सूनापन
वे लोग हमेशा ही आँखों से बुझते
अंतरात्मा से कभी नहीं बुझते थे
उनकी आत्माएँ
सिर्फ़ उन्हीं में नहीं बसती थीं
वे जग के सारे चर-अचर में विराजती थीं
तभी तो वे अपने पुरखों-पुरनियों को
मरने के बाद भी
देख लेते थे
किसी फूल में
किसी सर्प में
किसी चिड़िया में
किसी पशु में
या फिर घर के आस-पास
अभी-अभी जन्मे
किसी बच्चे में…!

जिसे वे बचा देखना चाहते हैं

घर पहुँचते ही
मेरी बेटी निकाल लेती है डायरी
चुनती है कुछ नई
और कुछ पुरानी भी
कई बार अक्षर न चीन्हने की वजह से
ठोकती है अपना माथा
झल्लाती है मेरी लिखावट पर
और सुनने की ज़िद लिए
आ जाती है मेरे बिस्तर पर
उसकी ज़िद को हवा देता मेरा बेटा
जो अक्षर चीन्हने की प्रक्रिया में है
सुनाता है ‘तानपूरा पे चिड़िया’ की कुछ पंक्तियाँ
कुछ और कविताओं की दो-चार कड़ियाँ

दोनों समझते हैं मेरी भाषा
पाते हैं अपना अर्थ
मेरे साथ प्रवेश करते हैं उस दुनिया में
जिसे मैं बचाना चाहता हूँ
जिसे वे बचा देखना चाहते हैं

वे बचा देखना चाहते हैं
नदी को काग़ज़ पर नहीं
ज़मीन पर
चिड़िया को चिड़ियाघर में नहीं
पौधों की शाखाओं
या कि घर के रोशनदान में

वे रंगों को
पेंसिल की शक्ल में नहीं
फूलों और तितलियों में
बचा देखना चाहते हैं

वे बचा देखना चाहते हैं
दरवाज़े पर खड़ा अमरूद का पेड़
और किसी सुग्गे के लिए
छोड़ा गया एक पका फल

वे अपनी बढ़ती हुई उम्र के साथ
जोड़-घटाकर
कुछ और दिन, महीने, वर्ष
बचा देखना चाहते हैं
दादा-दादी को

वे बचा देखना चाहते हैं
गाँव के खेतों में लहलहाती फ़सल
घासों को ओढ़े हुए
इठलाती पगडंडी
वे नहीं चाहते
कि गिद्धों की तरह
ग़ायब हो जाएँ कौव्वे भी
घर में पाला गया कुत्ता
भूल जाए बिल्लियों को दौड़ाना
ख़त्म हो जाए
चूहे-बिल्लियों की आँख-मिचौली

वे बचा देखना चाहते हैं
साँप और नेवले का खेल
मदारी का तमाशा
बहरूपियों की बिरादरी
तालाब का पानी
और पानी में तैरती हुई मछलियाँ

वे चाहते हैं
कि हमेशा के लिए बची रहे
वह कोयल
जिसके स्वर में स्वर मिलाकर
समझते हैं वे संगीत का स…

वे नहीं चाहते
कि बाँसों के झुरमुट में
लगा दी जाए आग
ख़त्म हो जाए
मुहर्रम और दशहरे के मेले
राजा-रानी की कहानी
भूत-प्रेत के क़िस्से

वे बचा देखना चाहते हैं
अपने बचपन को
विज्ञान की बेहद गतिशील सवारी पर
ताकि उन्हें मंगल की ऊँचाई से
धरती पत्थर नहीं
एक दुनिया की तरह दिखे

वे चाहते हैं
मैं जब भी कहीं से लौटूँ
मेरे पास बची रहे
कविता की डायरी
और उसमें कुछ कविताएँ…!

रुख़साना

उसके दोनों कंधों पर
बेहद ख़ुशी-ख़ुशी बैठते हैं वे
बोलते-बतियाते हैं
सुनते हैं वह गीत
और समझते भी हैं
जिसे वह एकांत में गुनगुनाती है
थके पहाड़ों के लिए
और साथ ही अभी-अभी जन्मे
नन्हे पौधों के लिए
वैसे तो कुल ग्यारह बरस की है वह
लेकिन उसकी थकान पहाड़ों की तरह
करोड़ों-करोड़ों बरस पुरानी है
वह उतनी ही सुंदर है हमारे लिए
जितना कि कश्मीर
हम उतने कष्टदायी हैं उसके लिए
जितना कि उसका नशेड़ी बाप
यही वजह है कि हमें देखते ही
उसके कंधों के दोनों कबूतर
माप लेते हैं हमारी ऊँचाई
और दुनिया की सबसे निरीह कही जाने वाली आँखों से
मालूम कर लेते हैं हमारे दाँतों का पैनापन
वह एकटक देखती है हमें
जैसे बता रही हो कि
उसकी माँ ने उसे पहला अक्षर
अ से अब्बा नहीं,
अ से अज़ान सिखाया
दूसरा अक्षर
आ से आदमी नहीं,
आ से आज़ादी सिखाया
कुछ अक्षर जो कहीं-कहीं गिरे थे
उसने उनको उठा लिया
और कुछ बदलते हुए कहा—
क से कलम नहीं,
क से कबूतर
न से नल नहीं,
न से नदी
प से पढ़ाई नहीं,
प से पहाड़
इस तरह कबूतर, नदी, पहाड़
उसकी साँसों में उतरते चले गए
और वह अज़ान की ख़ुशबू की तरह
आज़ाद होती चली गई

हम सुनते हैं सब कुछ
घोड़े की नाल पर बैठे हुए
जो लगाम से नहीं
आरिफ़ की आवाज़ से संचालित होता है
रुख़साना तब्बसुम चबाती हुई
ओझल हो जाती है
कबूतर, नदी, पहाड़ के बीच…!

***

लक्ष्मण गुप्त (जन्म : 3 जनवरी 1983) पूर्वी चंपारण (बिहार) से हैं। साल 2015 में उनकी कविताओं की एक किताब ‘जिसे वे बचा देखना चाहते हैं’ शीर्षक से शाया हो चुकी है। उनकी यहाँ प्रस्तुत कविताएँ ‘सदानीरा’ को रंग-आलोचक अमितेश कुमार के सौजन्य से प्राप्त हुई हैं, इस परिचय के साथ—‘‘जीवन के संघर्ष में अपने पास कुछ बचा पाने में लक्ष्मण अगर कामयाब हुए हैं तो वह है कविता। इन कविताओं में वह ख़ुद भी बचे रहेंगे ऐसा इन कविताओं को देखकर लगता है। लक्ष्मण का जीवन एक ऐसे त्रासद नाटक की याद दिलाता है जिसमें मुख्य नायक के क़रीबी किरदार एक-एक कर बिछड़ते रहते हैं, लेकिन नायक का जीवन में डटे रहना उसकी नियति है। लक्ष्मण ने जीवित रहने के लिए जो काम किए हैं, उनकी सूची लंबी है : मिसाल के तौर पर पोस्टर चिपकाना, पैम्फ़लेट्स बाँटना और ट्यूशन पढ़ाना। कविताओं में और जीवन में भी वह इस स्थिति को आत्मदया का विषय नहीं बनाते, बल्कि वह इसके असर से एक स्वप्न रचते हैं। ऐसा कवि एक लंबे अरसे से कविताएँ लिखने और एक कविता-संग्रह के बावजूद हिंदी-परिदृश्य से बाहर क्यों है, इसे स्पष्ट करने की ज़रूरत नहीं है। हिंदी की इस दुनिया में नकार तब तक ही है, जब तक आप मठ-गढ़ नहीं चुनते। आश्रय और प्रशंसा के अतिरिक्त कवि को कई बार ऐसी नज़रों की भी ज़रूरत होती है, जिनसे देखकर कोई उसे बताए कि उसकी अब तक की यात्रा कैसी है, उसकी सीमाएँ क्या हैं और उसमें विस्तार की संभावना कहाँ है? इस उद्देश्य से ये कविताएँ ‘सदानीरा’ को भेजी जा रही हैं। लक्ष्मण की उच्च शिक्षा काशी हिंदू विश्वविद्यालय से हुई है और वह आजकल इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्राध्यापक हैं। उनसे lakshman.ahasas@gmail.com पर बात की जा सकती है।’’

6 Comments

  1. Dr. Sameer Shekhar जनवरी 16, 2019 at 2:31 अपराह्न

    बहुत अच्छी कविताएँ ! 💐💐

    Reply
  2. प्रखर शर्मा जनवरी 16, 2019 at 4:41 अपराह्न

    जिसे वे बचा देखना चाहते हैं, यह कविता सर की उत्कृष्ट कविताओं में से एक है और ये कविता मेरी पसंदीदा कविताओं में से एक है।
    इस में आधुनिकता के दौर में भी अपने बच्चों के माध्यम से प्रकृति के सौन्दर्य को जीवित रखने बात कविता को अधिक रोचक बनाती है।
    यह कविता अपनी सजीवता को लिए अपने आखिरी मुकाम तक जाती है और यही बताती है कि हमें इस आधुनिकता के दौर भी अपने शुद्ध वातावरण, गांव और वास्तविक सत्य को नहीं भूलना चाहिए।

    Reply
  3. प्रखर शर्मा जनवरी 17, 2019 at 5:57 अपराह्न

    “जिसे वे बचा देखना चाहते हैं”,सर की कविताओं में ये कविता मुझे बेहद पसंद है।
    🙏🏻🙏🏻🙏🙏

    Reply
  4. प्रखर शर्मा जनवरी 17, 2019 at 6:06 अपराह्न

    “जिसे वे बचा देखना चाहते हैं”, सर की सारी कविताओं में मुझे यह कविता बेहद पसंद है।🌸
    इस कविता में अपने बच्चों के माध्यम से प्रकृति को जिंदा रखने की बात मुझे बहुत प्रभावित करती है।
    प्रणाम
    🙏🏻🙏🙏🙏🏻

    Reply
    1. अंजली वर्मा अक्टूबर 17, 2020 at 5:17 अपराह्न

      “चले गये लोग “कविता वास्तव में उन भावों और भावनाओं को अत्यन्त गहराई से समेटे हुए हैं जो आज शायद लोगों की ज़िन्दगी में कहीं बहुत कोने में, सिमट गई है जो आधुनिकता पूर्ण स्वार्थी दुनिया में बहुत नींचे दब गई है……

      “दिन भर की गर्मी को दबोच लेते थे खुरदरी मुट्ठी में ”
      यह कविता वास्तव में हमारे बदलने की गवाही है हमने आज जीने के पैमानों को किस तरह किस हद तक बदल दिया है संदेश देती है यह कविता हमें फिर से लौट आने के लिए उसी दुनिया में “चले गए लोग ” जिसे बना कर……

      Reply
  5. अंजली वर्मा अक्टूबर 17, 2020 at 5:32 अपराह्न

    जिसे वो बचा देखना चाहते हैं कविता में आपने उन तमाम चीजों के बचाने के साथ बचाया है उस बेहद प्यारी बोली को *चीन्हने* जिसकी आवश्यकता है बचाने की उन सभी चीजों के साथ जो हम आधुनिक होती दुनियां में पीछे छोड़ते आ रहे हैं

    “जो अक्षर चीन्हने की प्रक्रिया में हैं ”

    “कुछ और दिन महीने बर्ष
    बचा देखना चाहते हैं
    दादा दादी को ”
    बहुत प्रिय लगी और जो हमें हमारे खुद के बचाने का एक अनुरोध रूप में है..

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