कविताएँ ::
स्मृति प्रशा

स्मृति प्रशा

कभी-कभी विचार

कभी-कभी विचार आता है
कि कैसे बीतेगा इतना लंबा जीवन
दिनों में
महीनों में
या साल में
इसकी गिनती कैसे होगी
कि कितना जी लिया हमने

या यह इस तरह से बीतेगा
कि हम कितने वक़्त तक जीवित रहे
हमने क्या-क्या खो दिया
क्या हासिल किया

महसूस होता है
कितना आसान है मर जाना
और कितना मुश्किल है जीना

जीवन
जितनी निष्ठुरता से
हमें स्वयं के बारे में सिखा रहा है
उम्मीद है कि बच जाएँगे

सब कुछ में जीवन है
और जीवन ही सब कुछ है

सब कुछ को जीने वाला ही
जान सकेगा
कि क्या है जीवन
मरते हुए को यह कभी पता नहीं चलेगा।

बदलते रंग

हर बार की तरह
इस बार भी निराशा ही हाथ लगी
तुमको पहचानने में

हमारे बीच दूरियाँ इतनी बढ़ गई हैं
कि आकाश और धरती का अंतर छोटा प्रतीत हो रहा है

मुझे अब नीले और काले में अंतर नज़र नहीं आता
और न ही इंसानों में

फूल से भरी टोकरियों को देखकर लगता है
कोई समूचे संसार का दुःख भरकर ले जा रहा है
किसी पर उड़ेलने के लिए
जबकि तुम्हारे साथ होने पर
ये मुझे चमकते हुए तारे लगते थे

सारे रंग अपना आकार तेज़ी से बदल रहे हैं
इतनी तेज़ी से
कि मौसम को पीछे छोड़ने की होड़ में हैं
इस प्रतिस्पर्धा से याद आया
तुम्हें भी तो सफल बनकर दुनिया को पीछे छोड़ना था
और हर बार अलग होकर मुझे दिलासा देना था
कि मैं हमेशा तुम्हारे पास हूँ

हमेशा रहने वाली चीज़
हमारी होकर भी
हमेशा हमारे साथ नहीं रहती।

मन

मेरे प्यारे मन,
मुझमें ही रहो
मेरे साथ रहो
बाहर रात है
कहाँ जाओगे!

मैं थपकियाँ दूँगी तुम्हें
उकेरूँगी तुम्हारा चित्र
आज किताबों पर
दूँगी झूठा दिलासा भी
सुनाऊँगी तुम्हें कहानियाँ
बनाऊँगी तुम्हारे लिए एक नाव
सैर करना तुम विदेशों की
पर अभी मत भागो इधर-उधर
मेरे प्यारे मन,
मुझमें ही रहो
मेरे साथ रहो
बाहर रात है
कहाँ जाओगे!

तुम्हारे लिए मेरा प्रेम

तुम्हारे लिए मेरा प्रेम
हमेशा एकपक्षीय रहा
मेरे लिए तुम्हारे हिस्से का प्रेम
कुछ ज्ञात नहीं
कुछ स्मरण नहीं
कुछ स्पष्ट नहीं

इस उम्र में
प्रेम में
पहला उरविदारक कष्ट उठाया

मेरा पसंदीदा पाठ अब प्रेम नहीं रहा

इस जीवन से तुम्हारा जाना
मेरे लिए कष्ट या वियोग का
विषय नहीं है

तुम जाने के बावजूद
मेरे पास हो

कभी लगता है
बिल्कुल पास बैठे हो तुम
मेरे तपते सिर को
अपनी गोद में लेकर

हर रोज़
हृदय में गूँजती रहती हैं
तुम्हारी यादें
शायद आजीवन
गूँजती रहेंगी

जीवन में किसी का आना
नियत रहता है
सोचती हूँ तुम्हारे बाद
कौन आएगा?

संबल

केवल दो शहरों में मिल सकते थे हम
एक मेरे शहर से पूर्व
एक मेरे शहर से पश्चिम

तुम्हारा शहर इतना दूर है
उसके आस-पास भी जाने में असमर्थ हूँ मैं
और अपने शहर में
मैं खिड़की या छत से देखकर
तुम्हारी राह ताकने की
कोरी कल्पना भी नहीं कर सकती

यूँ करो
या तो तुम पहाड़ों जितने ऊँचे बन जाओ
या मेरे मन को इतना संबल दो
कि मैं पहाड़ों जितनी ऊँची बन सकूँ

यह प्रतीक्षा
अपने आप
ढह जाएगी
एक दिन

हम दोनों आसानी से एक दूसरे को देख पाएँगे
बादलों के ज़रिए एक दूसरे से मिल पाएँगे।

एक दिन

एक दिन
एक लड़की
ख़ूब उदास हो जाएगी

अपनी बेचैनियों में भी
स्थिर बनी रहेगी
बिना विचलित हुए
शांत गुज़रते समय की भाँति

उसके आँसू
व्यर्थ घोषित की जा चुकीं
किताबों की तरह होंगे
कोई चाहकर भी पढ़ना नहीं चाहेगा

किसी की प्रतीक्षा में
राह ताकते हुए
ख़ुद को चट्टानों जैसा बना लेगी वह
बिल्कुल निष्प्राण
चेतनाशून्य
और फिर
एक दिन ढह जाएगी।

एक दिन
एक लड़की
अपने हृदयहीन होने की
बात पर
ख़ूब हँसेगी…

मर्द की मार

मर्द की मार खाकर भी
घर से नहीं भागती स्त्री
किसी से बताने की धमकी पर
और ज़्यादा मार खाती है
तब तक
जब तक
कि सीख नहीं जाती
अपना मुँह बंद रखना

अच्छी तरह जानता है मर्द
कि कैसे उस उठती आवाज़ को
बढ़ने से रोकना है
कैसे उसके छिले हुए मन को
वापस जोड़ना है

चोट की आग
जो उसकी देह से निकलती है
उसी में धधकती रहती है
रिसती रहती है
मर्द की मार खाकर भी
घर से नहीं भागती स्त्री!

जन्म

मेरा जो रचयिता है
वही मेरा विध्वंसक होगा

भला प्रेम के दुःख से
कौन बच पाया है आज तक

इतनी छोटी उम्र में
कितना संवेदनहीन हो गया है जीवन
न जीने की इच्छा है
न मर जाने का भय

मुझे मेरा जीवन
एक प्रलय के सिवा
कुछ नहीं लगता

पूरी दुनिया छल लगती है
तुम्हारे और कविताओं के सिवा

जब-जब तुम्हें सोचा है
एक नई कविता का जन्म हुआ है

मेरी आवाज़ हैं मेरी कविताएँ
जिनसे मैं पहुँच सकती हूँ
तुम तक…

बदल जाने के बाद

बदलती हुई चीज़ों को समझ पाना
लगभग नामुमकिन रहा मेरे लिए

बहुत सारी चीज़ें
बदल जाने के बाद समझ आईं

सब कुछ
आँखों के सामने प्रत्यक्ष घटता रहा—
पहाड़ों का टूटना
नदियों का गुम होना
जंगलों का ख़त्म होना
शरीर का मिटना
मेरा तुम्हें हमेशा के लिए खो देना

सब कुछ
तब आया समझ
जब पहाड़ की जगह टुकड़े मिले
नदियों की जगह रेगिस्तान
जंगलों की जगह बंजर
शरीर की जगह राख
और तुम्हारी जगह रिक्तता

सब कुछ
तब आया समझ
जब मैंने तुम्हें कहा—
अलविदा।


स्मृति प्रशा की कविताओं के विधिवत् कहीं प्रकाशित होने का यह प्राथमिक अवसर है। वह अभी स्नातक की पढ़ाई कर रही हैं। उनसे smritiprasha01@gmail.com पर बात की जा सकती है।

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