कविताएँ ::
हेमंत देवलेकर

हेमंत देवलेकर

गौरा देवी : पेड़ों का एकालाप
चिपको आंदोलन से प्रेरित

कभी यह सोचा नहीं था
कि मनुष्य हमें प्रकृति की तरह नहीं
रास्तों की रुकावट की तरह देखेगा

एक दिन अचानक
हमारी मौत का फ़रमान लिए
सरकार के कारिंदों का क़ाफ़िला
घुस आया था हमारे विजन में
और थर्रा गई थी रेणी गाँव की वादी

एक बवंडर-सा उठा था
जिसमें बुरी तरह घिरे थे हम
यह विकास का तेज़ अंधड़ था
वास्तव में ‘विकास’ से बड़ा भ्रामक शब्द नहीं कोई
उसे आईना दिखाओ तो ‘विनाश’ दीखता

पेड़ों से बड़ा जीवन मूल्य
जिनके लिए सड़क है
वे कुल्हाड़ियाँ लहराते
जंगल को दहलाते आए

क्रूरता के अट्टहास में चमक उठे थे
कुल्हाड़ियों के पैने दाँत
जो चीथ डालने को व्यग्र थे
जीवन का संगीत

हम घिर चुके थे
हम मृत्यु से कुछ क़दम पीछे थे
अगर पूछी जाती हमारी अंतिम इच्छा :
इस एक पल में अनंतकाल की छाया बरसा जाते
लेकिन समय का आख़िरी पत्ता भी झरने को था

हम घिर चुके थे
हम भाग नहीं सकते थे
हमारी जड़ें न सिर्फ़ मिट्टी में
बल्कि पहाड़ों के स्वप्न में धँसी थीं
यहाँ की हर एक आवाज़ में धँसी थीं हमारी जड़ें

हम घिर चुके थे
कुल्हाड़ियाँ काल की जीभों-सी लपलपाई थीं
तभी… हाँ तभी
बिजली की गति से
कुछ स्त्रियाँ दौड़ती आईं
और लिपट गईं हमसे

हम अवाक्
हम चकित
हम स्तब्ध
हम रोमांचित

वे चिपक गई थीं हमसे
हम पेड़
—धरती और आकाश के बीच पुल बनाने वाले—
स्त्रियों की बाँहों में
अबोध शिशु से ज़्यादा कुछ नहीं थे

हमारे रेशे-रेशे की थरथराहट को
उनकी भुजाओं में बहता आवेशित रक्त
थपकियाँ देता रहा
ठंड से अकड़ती हमारी कामनाएँ
उनके वक्षों की गर्मी से संज्ञाशून्य होने से बच गईं

वे चिपक गई थीं हमसे
जैसे शब्द चिपक जाते हैं पन्नों से
और उन्हें चिरजीवी बना देते हैं

हमने देखा कि राखी
केवल बाँधती भर नहीं है स्त्री
वक़्त आने पर राखी की तरह बँध भी जाती
और मृत्यु को टलना पड़ता
पूजा-अनुष्ठानों पर मन्नतों का रंगीन कलावा
बाँधने वाली स्त्रियाँ
स्वयं कलावे की तरह लिपट गई थीं हमसे

हमारा कर्म, हमारा स्वभाव है—उत्सर्ग
कोई हमारे लिए उत्सर्ग करे
यह आकांक्षा पेड़ नहीं पालते
हमने चिपकी हुई स्त्रियों को देखा :
स्त्री वृक्ष की तरह दिखी
हमसे भी विशाल वृक्ष
जीवन और कविता के बीच पुल बनाता
एक अनंत वृक्ष

हमने देखा
उन्हें धारदार कुल्हाड़ियों का तनिक भी डर नहीं था
उनके पास हथियार के नाम पर कंकर भी नहीं था
जिसके मन में हो संकल्प
उसे न कवच चाहिए
न ही खड्ग

वे चिपकी हुई थीं हमसे
वे हर वार सहने को तैयार थीं
वे बस मरने को
सिर्फ़ मरने को तैयार थीं

और कैसी करुण दशा थी हमारी
जड़ों तक फैली हुई थी लाचारी
हम चाहते थे झुककर उठा लें उनको
हमारी वजह से उनका रक्त क्यों बहे
जिनके रक्त को हमने अपने रक्त से सींचा था

वे चिपकी हुई थीं हमारे इर्द-गिर्द
कभी कुल्हाड़ियों से विनती करतीं
कभी उन्हें सख़्त चेतावनी देतीं—
‘‘ये पेड़ नहीं, मायका है हमारा
हमारे जीवन की सीवन उधेड़कर देखो
पेड़ों के अलावा कुछ नहीं मिलेगा
यहाँ के हर एक बाशिंदे में उतर गई हैं पेड़ों की जड़ें
हम पेड़ों में बदल गए हैं
आओ, चलाओ अपनी कुल्हाड़ी
और काट डालो हमें
ये जितनी औरतें, बच्चे, आदमी
पेड़ों से चिपके खड़े हैं
ये सभी पेड़ हैं
आओ, चलाओ अपनी कुल्हाड़ी
और काट डालो इन्हें…”

जंगल ने पहली बार सुनी थी
सत्याग्रह की आवाज़
और पिघल गई थीं कुल्हाड़ियाँ…

•••

अब जब हर कहीं आधुनिकता की कलई की जा रही
पुराना जो कुछ भी
उसे किया जा रहा ध्वस्त
ऐसे विचारहीन समय में
हमारा अगला पल अनिश्चित है
ऐसे में कहीं सुनाई देता है—‘चिपको’
हममें वसंत भर उठता है

हमें उम्मीद है एक दिन लोग
चिपक जाएँगे हवा से,
अपनी नदियों से,
समूची पृथ्वी से चिपक जाएँगे
वे बसंत को बचा लेंगे हमेशा के लिए।

खिलौनों की थैली
डम्फा के लिए

कृपया उसे ढचरा गाड़ी के अस्थि-पंजर जैसी मत समझिए
कहिए कि झुनझुने जैसी बजती है
तेरे खिलौनों की थैली

जी हाँ, उसमें अब सिर्फ़ पुर्ज़े रहते हैं
उसके संग खेलते-खेलते
खिलौने कब पुर्ज़ों में बदल गए
उनको भी नहीं पता

क्या कोई टुकड़े-टुकड़े बिखरकर भी
मस्त और पूर्ण दीख सकता है?
वह जादू यहाँ है—
उसकी थैली में

जब वह दुनिया के सबसे बड़े अजूबे को दिखाने
कौतूहल से आपकी ओर बढ़ती है
उस थैली में कंगारू के बच्चे
छलाँग मार देने को बेसब्र दीखते हैं

दुनिया में हवा जैसे बची ही नहीं
ऐसा मुँह हो गया हवाई जहाज़ का—
पंख उड़ गए हैं
पहिए खुद ही लुढ़क रहे हैं
और गाड़ियाँ अपाहिज खड़ी हैं

हाथी की सूँड़
चिड़िया की चोंच में फँसी हुई

पिचकी गेंदें : चाँद के गड्ढों की मानिंद
गुड़िया का सिर एक गड्ढे में सोया हुआ

ढोल फटा हुआ
गुफा समझकर उसमें रहने लगा है डायनासौर

हाथविहीन सुपरमैन
उसके हाथ रेलगाड़ी को धकाने चले गए हैं
उसकी छाती पर गुदे ‘S’ को
बंदर की झाँझ ने ढाँप रखा है

कितना चकित कर देती है
यह साझेदारी
ये नए मेल-मिलाप
कि इस तरह भी कोई बिखर सकता है?

प्रूफ़रीडर

मैं भाषा का कारीगर हूँ
आप मुझे लिपि का आलोचक भी कह सकते हैं
कुछ तो चुंबकीय ताक़त है मेरी आँखों में
कि वर्तनी की तमाम ग़लतियाँ
उड़-उड़कर खिंची चली आतीं
पांडुलिपि पर चील की तरह मँडराते सोचता हूँ
कि पैनी निगाह सिर्फ़ शिकार के लिए नहीं
उपचार के लिए भी होती है।

लिपि
जो मनुष्य की आवाज़ जितनी प्राचीन
बहती रही लगातार
हज़ारों वर्षों की उथल-पुथल के बीच
बदलते और निखरते हुए
लिपि मुझे भाषा में बहते हुए रक्त की तरह लगी

कितना रोमांचित करता है यह विचार
कि उस प्रागैतिहासिक धरोहर को
एक प्रूफ़रीडर ने पाला-पोसा है
फिर भी वह दुनिया का सबसे गुमनाम आदमी है

पांडुलिपियाँ मेरे सामने ऐसे आती हैं
जैसे स्ट्रेचर पर मरणासन्न मरीज़
मेरा टेबल तत्काल ऑपरेशन थिएटर में बदल जाता है
मैं : शल्य चिकित्सक और
मेरी क़लम : धारदार छुरी, चिमटा, कैंची, सुई-धागा सब कुछ
मेरी क़लम की स्याही में उस वक़्त ख़ून भी उपलब्ध होता है
और दवाएँ भी
क़लम से चिकित्सा का यह कितना वास्तविक बिम्ब है

पांडुलिपियाँ मेरे सामने इस तरह भी आती हैं
जैसे कोई ख़राब हो चुकी इलेक्ट्रॉनिक मशीन
मेरी क़लम एक सुलगता सोल्डरिंग आयरन बन जाती है
अंगार वाली एक निब उचेटनी लगती है
अशुद्धियाँ : ख़राब पार्ट्स की तरह

अपना काम करते वक़्त कभी मेहतर होता हूँ
कभी बग़ीचे का माली
कभी प्रसव कराने वाली दाई भी

अगर मैं कहूँ
कि मेरा पूरा वजूद ही भाषा बन चुका है
तो इसे मेरी विक्षिप्तता मत समझिएगा
मुझे लगता है कि वह सिर्फ़ मेरे लिए बनी है
पर यह भी जानता हूँ कि
भाषा के सपनों का राजकुमार लेखक है, मैं नहीं
लेकिन आप प्रेम का आदर्श उदाहरण ढूँढ़ेंगे
तो वह प्रूफ़रीडर ही होगा

जहाँ भाषा के लिए कोई संवेदना नहीं
उन जगहों पर मैं अपमानित ही नहीं
अपराधी भी होता हूँ
मुझे लगता है कि हर लिखावट और छपावट की ज़िम्मेदारी मेरी है
किसी ग़लत लिखे शब्द की यातना
जब सबकी पीड़ा बनेगी
तब समझूँगा कि मेरा काम एक आंदोलन भी है

कभी सोचता हूँ कि कुछ दिनों की छुट्टी लेकर
एक ऊँची निसैनी और कुछ रंग-ब्रश के साथ निकल पड़ूँ
आख़िर किसी को तो यह प्रदूषण भी दूर करना होगा

मेरी गुज़ारिश है कि साइन बोर्ड, बैनर, पोस्टर बनाने वालों के लिए
भाषा की ट्रेनिंग अनिवार्य हो
क्योंकि उन्हीं जगहों से भाषा समाज में दाख़िल होती है

इस मूल्यविहीन होते समाज में
अगर मैं चिल्लाता हूँ
कि भाषा भी एक नैतिक मूल्य है
…किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता

स्मार्ट होते समय ने
क्या कुछ नहीं ध्वस्त किया
तकनीकें सुविधाएँ उगलती हैं
लेकिन क्षमताएँ निगल जाती हैं
प्रणाम—लिखना पुरानी बात हुई
जुड़े हाथों का चित्र भेजना ही आधुनिक भाषा
लिखने का कष्ट कोई अब क्यों उठाए
हर भाव-परिस्थिति के लिए असंख्य चित्र बने हैं
चित्रकोश में
मैं कई सहस्त्राब्दियों पीछे लौटता हूँ
जब मनुष्य गुफाओं की चट्टानों पर ऐसे ही चित्र बनाता था
आज हर आदमी की अपनी गुफा है
और उसके हाथ में एक चट्टान
लेकिन भाषा कहाँ है
कौन-सी है भाषा?
वह धाड़-धाड़-लगातार चित्र बना रहा है—
आशीर्वाद का चित्र
पीड़ा का चित्र
विरोध का चित्र
सहमति का चित्र
दया का और सहानुभूति का चित्र
भूख और संभोग का चित्र
यहाँ तक कि
भयंकर आपदा में राहत पहुँचाने का भी चित्र

और मैं ये सब देखने के लिए विवश हूँ
यह देखकर भी कितना चुप हूँ
कि मेरी भाषा परतंत्रता की गुंजलक में फँसती जा रही :
‘‘अगर देवनागरी में लिखना चाहते हो
तो रोमन में टाइप करना होगा’’
चाबुक बरसाते हुए कोई कहता है
मेरा वजूद इस नए तरह के कर से दहलता है।

जूता

मंदिर के बाहर उसे उतार आया था मैं
जैसे कोई ताँगा उतार देता है सवारियाँ
लेकिन उतारने और छोड़ने में फ़र्क़ है बहुत
मैं उसे छोड़ नहीं पाया

जूता स्टैंड वाले ने उसकी पावती के बरअक्स
पतरे का एक टुकड़ा मेरी ओर उछाल दिया
मैंने देखा—एक संख्या थी उस पर
पतरे का वह मामूली टुकड़ा
एक बेशक़ीमती धातु में बदल गया था
और संख्या एक अलौकिक पासवर्ड में

मैंने मुड़कर जूते को देखा
फिर हाथ के उस टुकड़े को आश्चर्य से
कितना जादुई है ये रूपांतरण
किसी निषिद्ध चीज़ को इतनी आसानी से ‘स्वीकृति’ में बदला जा सकता है (?)
उसे जेब मे डालते हुए लगा कि मैंने कुछ बो दिया है

यकायक होश आया कि कितने दिन बीत गए
यहीं जूता-स्टैंड पर खड़े-खड़े
मैं भूल ही गया कि ये जगह मंदिर नहीं
और ईश्वर जूता नहीं

बहुत लंबी क़तार मंदिर के भीतर
घंटियाँ हिल रही थीं
भीड़ लगातार कुछ बुदबुदा रही
मगर मुझे कुछ सुनाई नहीं दिया
कुछ भी नहीं

मेरे कानों में गूँज रही थी जूते की संख्या
मैंने भीड़ के हिलते हुए होंठ देखे
क्या सब अपने-अपने जूते की संख्या जप रहे हैं?
मैंने अपनी जेब को देखा जहाँ वह प्रतीक रूप में मौजूद था
मैंने गहरी साँस ली
पहली बार मुझे अंतरात्मा शब्द पर भरोसा हुआ
मैंने उसे हथेली में भर लिया
और मेरी आत्मा से एक ही आवाज़ निकली—जूता
यह कोई पवित्र मंत्र था
जो मेरे मुँह से निकला था

मेरे एक हाथ मे फूल थे दूसरे हाथ में जूता
कभी-कभी मैं भूल जाता कि किस हाथ में क्या था
फूल और जूते का फ़र्क़ मिट जाना—
‘ध्यान’ की शुरुआत यहीं से होती होगी
यही सोचते क़तार में आगे बढ़ते रहा
जूता सिर्फ़ ज़मीन पर नहीं चलता
उसके बारे में सोचो तो विचारों में भी चलता है
कल्पनाओं में भी
इस वक़्त मेरी हर धमनी में चल रहा है
मेरी सारी प्रार्थनाओं में चल रहा है जूता
और अब कोई मेरी कामना बाक़ी नहीं

जैसे-जैसे गर्भगृह नज़दीक आ रहा था
वह संख्या और मंत्र ज़ोर-शोर से पूरे शरीर मे बजने लगे
और वह क्षण—!!
मैं ठीक पिंडी के सामने था
भीतर बवंडर मचा हुआ
लगा पृथ्वी लट्टू की तरह घूम रही है
इसके पहले कि मैं फूल वाले हाथ को चुनता
मैंने पतरे का वह टुकड़ा पिंडी की ओर उछाल दिया
और भागा
भागा बाहर की ओर
किधर होता है—बाहर?
भागना बाहर की ओर ही क्यों होता है?
ये सब सोचते हुए भागा

भागा जैसे कोई अंधड़ हो
छोटी-बड़ी कितनी ही घंटियों का शोर मेरे पीछे
फूल हाथ से छूटकर उड़ने लगे थे
मैं पसीने का एक बादल था
धूल का एक रथ
मेरे वेग को देखते दिशाएँ परे हट गईं
और मुझे रास्ता दिया

मेरे स्तन दूध से भरने लगे थे
और मुझे लगातार ये ख़याल आ रहा था
कि मेरे ईश्वर को भूख लगी होगी।

धूल

धीरे-धीरे साथ छोड़ने लगते हैं लोग
तब उन बेसहारा और यतीम होती चीज़ों को
धूल अपनी पनाह में लेती है

धूल से ज़्यादा करुण और कोई नहीं
संसार का सबसे संजीदा अनाथालय धूल चलाती है

काश हम कभी धूल बन पाते

यूँ तो मिट्टी के छिलके से ज़्यादा हस्ती उसकी क्या
पर उसके छूने से चीज़ें इतिहास होने लगती हैं

समय के साथ गाढ़ी होते जाना
धूल को प्रेम से ज़्यादा महान बनाता है
ओह! हम हमेशा उसे झाड़ देते रहे
बिना उसका शुक्रिया अदा किए।

भैंस का बच्चा

उपेक्षा उसका दूसरा नाम
पहला तो किसी ने दिया ही नहीं

माँ के पीछे-पीछे गर्दन झुकाए
नगर के वैभवशाली मोहल्लों से
चमचमाते बाज़ार से जब वह गुज़रता है
एक शर्म उठती देखी है उसके भीतर
जो दुर्गंध बनकर घेर लेती है उसे

छटपटाते हुए वह लगभग भागने लगता है
कि ये अपमान भरे रास्ते कट जाएँ पलक झपकते
और आ जाए आदिम देहात…
खेतों का सीमांत… और राबड़े वाले तालाब
उन सबमें कितना अपनापन है

उसके मन मे जो ‘कचोट’ है
उसे माँ भूसे के साथ कब का चबा चुकी
पर उसके गले मे हड्डी की तरह अटकी हुई

भूख से ज़्यादा विकट है
संकट पहचान का
इसी त्रासदी के खूँटे से बँधे हुए
इसी त्रासदी की सड़क से गुज़रते हुए

कितना दुखद है
कोई दरवाज़ा खुलता नहीं उसके लिए
किसी खिड़की से आती नही आवाज़—
‘‘ले, आ!! आ!! आ!!’’

किसी डिब्बे के तलहट की रोटी
नहीं होती किसी भैंस के बच्चे के वास्ते
तो पकवानों भरी नैवेद्य की थाली का
सपना वह क्या देखे?

उसके भी गलथन
गाय के बछडे सरीखे मुलायम और झालरदार
तो इन्हें सहलाने के लिए
हाथ आगे क्यों नहीं आते?

उसे लगा वह किसी युद्ध में शामिल है
प्रश्न उसे छलनी करने लगे—
‘‘हमारे लिए कोई आंदोलन क्यों नहीं?’’

माँ की आँखों मे बिजली की एक कौंध चमकी
आवाज़ कुछ देर तक आई नहीं
माँ का चेहरा उस वक़्त
चलती रेल से फेंक दिए गांधी की तरह लगा

वह सोचने लगा—
इस देश की आज़ादी का हासिल क्या है?
मुझे लगा सलाख़ों में क़ैद मंडेला चिड़िया को ढूँढ़ रहे हों

फिर कुछ देर चुप्पी छाई रही
आकाश पर बहुत घनी स्याह रात फैल गई
अचानक मुझे लगा-चतुर्दिक पसरा यह गहरा काला रंग
भैंस और उसके बच्चे का है
और जैसे वे दुनिया से पूछ रहे हों—
‘‘क्या इस रंग की कोई अहमियत नहीं?’’

शाम

धधकता हुआ सूर्य
किसी उल्का-पिंड की तरह
टकराता है क्षितिज से
और हो जाता चूर-चूर

युद्ध समान एक और दिवस का समापन

तमाम क़िस्म के कार्यस्थलों के दरवाज़े
खुल जाते हैं अंततः
और आँधी की रफ़्तार से भागते हैं रास्ते
अपने अपने घरों की तरफ़

चाँद मुक्ति के परचम-सा लहरा रहा

सड़कें गाड़ियों की टेल लाइट की
लाल रोशनियों से भरी हुई
जैसे चूर-चूर हो चुके सूरज के ढेर से
दुनिया ने एक-एक अंगारा उठा लिया हो

और घर का चूल्हा उसकी राह देखता हो।

प्रेम सबको

प्रेम सबको बहा ले जाता है—
नदी को भी

सिर्फ़ एक शब्द है नदी के जीवन में—
‘समर्पण’

प्रेम से ज़्यादा श्रमसाध्य कोई काम नहीं

जब हमें नदी के पानी में
नदी का पसीना दिखाई देगा
समुद्र के खारेपन के बारे में
बदल जाएगी हमारी धारणा

हम उसे भी एक शीशी में भरकर ले आएँगे।


हेमंत देवलेकर (जन्म : 1972) हिंदी के सुपरिचित कवि-लेखक और कलाकार हैं। उनकी कविताओं की दो किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनसे hemantdeolekar11@gmail.com पर बात की जा सकती है।

1 Comment

  1. Srishti जनवरी 18, 2022 at 1:25 पूर्वाह्न

    हेमंत सर, आपकी हर पंक्ति में एक अनोखी बात है और हर कविता एक अलग दुनिया है। आपको बहुत-बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएँ।

    Reply

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