कविताएँ ::
सुघोष मिश्र

सुघोष मिश्र

चुम्बन

एक

वह नहीं है
लेकिन उसकी जगह है
एक मीठी-सी याद
जो होंठों पर जब-तब
झूठ-मूठ
चूम-चूम
जाती है

दो

चाय, मय और प्रेयसी का चुम्बन—
दुनिया में तीन ही जादू हैं
जिनके लिए ख़याल आता है कि
देह में होंठों की भी हिस्सेदारी है

उन्हें बाहोश सँभाल कर छूना पड़ता है
और पीने के बाद जब होश नहीं रहता
वे ख़ुद-ब-ख़ुद सँभल जाते हैं

स्वाद की स्मृति
पहले-पहल होंठों पर दर्ज होती है
जिह्वा तक बाद में पहुँचती है

तीन

हमारे उच्छ्वास भटकते हैं
रंग-बिरंगे गुब्बारों-से
जिन्हें नुकीली चीज़ें मुक्त कर देंगी

हमारे स्पर्श चित्रवत् हैं
किनारों पर स्याह काइयों-से जमे हुए
जिन्हें तेज़ लहरें मिटा देंगी

तुमने मुझे चूमा था
जैसे स्वाति-बूँद चूमती है चातक को
तुम्हारे चुम्बन की स्मृति
चूमती है मुझे
जैसे फूल को चूमती है मधुमक्खी

हमारा साथ नहीं रहा अक्षुण्ण
पर प्रेम कहाँ ख़त्म होगा
सागर पर बरसता है जो मेह धारासार
वह उसी में चमकता रहेगा

गुलाब

एक

वह इतना भी सुंदर नहीं
कि उसे देखते ही खिल उठें
सभी प्रेमियों के दिल
इतना चित्ताकर्षक नहीं
कि लिख सकें कविगण
उस पर हरदम
गमकती पंक्तियाँ

प्रकृति की देह पर
कभी-कभी
लाल फोड़े की तरह
फूट आती है उसकी कली
और उसके परिदल
जैसे केकड़े के पंजे

उसे जब भी छूता हूँ
एक पंखुड़ी टूटती है
उजली स्मृतियों के अँधेरे में चुप
एक काँटा भीतर चुभता है घुप
और काँपता रहता है
एक विरक्त गुलाब
थोड़ी देर तक

दो

कितने ही रूप हैं उसके—
विविधवर्णी
काँटे उसमें एक समान
सुख के रंग कितने हैं
जीवन में
दुःख का रंग एक समान

दुनिया अस्वीकार करती है
जिन युगलों को
उन्हें गुलाब के पौधे देते हैं शरण
वे उनकी डालियों पर होते हैं
साथ-साथ
बारिश में भीगते
ओस में सिहरते
धूप में झुलसते
खिलते और मुरझाते
मुरझाते और खिलते

बच्चे

माँओं के सच्चे मददगार हैं बच्चे
सब्ज़ी और आइसक्रीम वालों के पक्के संगतकार
मौसमों के मासूम संवदिए

बारिश आती है तो
वे बूँदों से बाद में खेलते हैं
पहले समवेत चिल्लाते हैं :

ओए! बारिश शुरू हो गई
मम्मी! बारिश शुरू हो गई
कपड़े हटा लो सब
बारिश शुरू हो गई

नहीं है जो चाहिए

हवा के स्तनों से तुहिन झर रहा है
आकाश का हृदय भीग रहा है

जेबकतरे दु:खों ने
भोले सुखों की गठरी में
चीरा लगा दिया है
अविरत उपेक्षाओं ने
संकोची आत्माओं को
जकड़ लिया है
अजन्मे फूल व्याकुल हैं
उदास चिड़िया स्वप्न में
तड़फड़ा रही है
नींद एक निष्प्राण धुंध में
खो गई है
हर साँस
एक चौकन्नी जाग है

सियारों का झुंड
वर्षों से घात लगाए दौड़ रहा है
और मैं निर्भय हूँ
जंगल में शेर की तरह

मायावी मकड़ियाँ सत्याग्रही तितलियों को
अहिंसक हत्या का अभ्यास करा रही हैं
आध्यात्मिक केकड़े भौतिकवादी बगुलों को
ब्रह्म-जीव का सरस भेद बता रहे हैं

रक्तसरोवर शुभ्र कुमुदिनी खिली हुई है
निविड तमस में दिन की आभा मिली हुई है

कुछ कमीनों के कारण
कुछ शहरों को छोड़ दिया मैंने
पर यह धरती तो नहीं छोड़ दूँगा
जो मेरी सच्ची परछाईं है

उनका झूठा शोर थमेगा आईने में चेहरों से
यहीं लडूँगा यहीं मरूँगा प्यार करूँगा अपनों से

सूखी हुई नदी की देह पर
खरोंचों के निशान हैं
और मैं डूब रहा हूँ
टूटी हुई नाव की तरह

मुझे लापरवाह साँस चाहिए
नींद की राह बताने वाला राग चाहिए

आज़ाद चिड़िया वाला स्वप्न चाहिए
गाती हुई नदी और
सुनती हुई नाव चाहिए
कोमलता और करुणा के लिए
दृढ़ अनंत आधार चाहिए
ठिठुरती हुई रूहों के लिए
थोड़ी-थोड़ी आग चाहिए
मैंने पर्याप्त फूल खिला लिए हैं
मुझे तुम्हारा हाथ चाहिए

मैं वहाँ मिलूँगा तुम्हें

अंतरिक्ष की काली स्लेट पर
बिखरी आकाशगंगाओं में ऐसी कोई पाँत नहीं
जिसे कहीं से जोड़कर कहीं तक पढ़ें
तो मेरा छोटा-सा नाम नज़र आ जाए
वह दिखेगा धंसी हुई सड़कों के ऊबड़-खाबड़ में
या सूखे बरगद पर बैठे पाखियों के अनुक्रम में
या बढ़ियाई आमी की लहरों के आवर्त में
या मधुमालती की फुनगियों के देवनागरी घुमाव में

मैं नहीं रहूँगा तो भी दिखूँगा शायद
दोस्तों के साथ तस्वीरों में
या आत्मीय जन की स्मृतियों में

जब कभी सचमुच न दिखूँ तो
मुझे किनारों पर मत खोजना
मैं थककर डूब मरा हूँगा किसी समुद्र को मथते हुए
या अपरिचित नदियों में किसी एक के ठीक बीचोबीच
भँवरों से टकराते हुए
या मिलूँगा पस्त अपने खेतों के बीच
जेठ की दुपहर को कुदाल से कोड़ डालने के बाद
रक्त से सींचते हुए खीरे-ख़रबूजे को
या अपने लोगों के बीच
उन पर बरसती गोलियों को अपने सीने पर झेलते हुए

मुझे मंचों पर मत खोजना
नेपथ्य मेरी जगह नहीं
मैं तुम्हें मिलूँगा दर्शक-दीर्घाओं में
मुस्कुराता या खीजता हुआ
मुझे संग्रहों में मत खोजना
मैं तुम्हें मिलूँगा पंक्तियों के बीच
जहाँ अशब्दों में भी नहीं होगा कोई गूढ़ार्थ
उन चमकीले तारों की टिमटिम में
मुझे ठीक उस पल खोजना
जब उजला बुत जाता है
और अँधेरे की झलक भी नहीं मिलती

मेरी आख़िरी इच्छा है कि एक दिन मैं ख़ुद से मिल जाऊँ
दिन और रात को जोड़ने वाले
उस लाल धागे में पिरोया हुआ
जिसे खोजते हुए मैं कहाँ नहीं भटका पागलों की तरह

मेरे दोस्तो!
मुझे भूल से भी अमरता की सूची में मत खोजना
मैं सिर्फ़ और सिर्फ़ मरूँगा
अलक्षित और संपूर्ण
मार भी दिया गया तो
किसी को दोष नहीं दूँगा
मैं वापस आऊँगा तूफ़ानों के बीच
और धूल बनकर बिखर जाऊँगा
मुझे किनारों पर मत खोजना
मैं बीच रास्ते में मिलूँगा तुम्हें

सुघोष मिश्र हिंदी की नई पीढ़ी के सुपरिचित कवि-लेखक और अनुवादक हैं। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इससे पूर्व प्रकाशित उनके काम-काज के लिए यहाँ देखें : क्रूर शासक के अपकीर्ति-स्तंभ-सा उपेक्षितकविता थीं वे पंक्तियाँ जो लिखी नहीं गईंपानी की स्मृति भी प्यास बुझाती हैमुझे कोई आईना नहीं मिला

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