कविताएँ ::
विजया सिंह

विजया सिंह

हरी मिर्च का अचार

परे देखते
गर्व से कहा उन्होंने :
मेरे हाथ के अचार नहीं होते ख़राब
कुछ लोगों के हाथों में नहीं है
अचार का हुनर

अचार को चाहिए
साफ़-सफ़ाई
नमी की नहीं होनी चाहिए गुंजाइश
सब मसालों को सेंको एक-एक कर
सिर्फ़ इतना कि निकल जाए नमी

पहले राई
फिर मेथी, जीरा,
कलौंजी, अजवाइन, धनिया…

होने दो ठंडा

फिर पीसो
इतना कि रहे दरदरा
नहीं, आटा नहीं बनाना है

थोड़ी लाल मिर्च
हल्दी पाउडर
आमचूर
और नमक स्वादानुसार

इस बीच चीरो मोटी हरी मिर्चों को बीच से

करो तेल गरम—सरसों का

होने दो ठंडा

उँड़ेलो मसालों पर

नहीं, हाथ से नहीं
चम्मच से मिलाओ हौले-हौले
भरो मसाला मिर्चों में

डालो एक-एक मिर्च
साफ़ और सूखे काँच के मर्तबान में
ऊपर से थोड़ा-सा तेल

तीन दिन करो इंतज़ार

फिर करो तेल गरम
होने दो ठंडा
डालो इतना
कि मिर्चें डूब जाएँ पूरी

तौलिए पर हाथ पोंछते
शीशे में देखते
लट सुलझाते
फिर कहा उन्होंने :
देह भी एक मिर्च है
हरी नहीं तो लाल
सब्ज़ी नहीं तो अचार
किसी में तो पड़ेगी ही

बचके चलने वाली औरतें

अपर्णा, संगीता, मधु, गुरिंदर…
ये उन औरतों के नाम हैं
नामों का क्या है
कुछ भी हो सकते हैं—
विजया, दीपिका, भावना, वर्तिका…
ये उन औरतों के नाम हैं
जो बहुत बचके चलीं
टिन्नी, मिनी, रिधु…
ये उन लड़कियों के नाम हैं
जिन्हें बचके चलने वाली औरतें
बचके चलना सिखा रही हैं

वे उन्हें सिखा रही हैं
अपने आपसे जंग के क़ायदे
जब आए ग़ुस्सा
तो होने न दो ज़ाहिर
पी जाओ
बन जाओ नीलकंठ
जज़्ब करो
भावनाओं को
जो मचाती हैं कोलाहल
तन में
मन में
पीओ ठंडा पानी
नहाओ
शीतल हो जाओ
पार्क में घूम आओ
बैठो—लगाओ ध्यान
ब्रह्म का
बन जाओ राधा
अमूर्त की
शरीर में उठती हैं तरंगें
तो उठने दो
देखो उनका वेग
चढ़ते और उतरते
पाँव धरो बस किनारे
गुज़र जाने दो समंदर
सारा का सारा
एड़ी के नीचे से
सरकती है जैसे रेत

विटामिन

न जताओ
कि मैं भली हूँ, भोली हूँ, भरोसेमंद हूँ
सीधे-सीधे कहो
जैसे कहता है डॉक्टर—
विटामिन D, B12 और E की कमी है :

धूप में बैठो
11 से 2 बजे तक
नहीं सुबह नहीं
तब धूप होती है कच्ची
दुपहर में जब सबसे तेज़ होती है धूप
और पराबैंगनी किरणों का होता है ज़ोर

त्वचा को बचाना नहीं है
खुले बदन बैठो
काली पड़ने दो यह गोरी रंगत
झुलसो खुले आकाश के नीचे

पीले, लाल फल
कलेजी, गुर्दा, जिगर
खाओ लाल मांस
शाकाहारी लोगों में होती है ख़ास कमी विटामिन B12 की

विटामिन E के लिए
खाओ मछली
भटको नदी
नालों, तालों में
समुद्र का रुख़ करो

थापे हाथों के

एक

सीढ़ियों से नीचे उतरते
पड़ोसी के दरवाज़े से सटी
दीवार पर पाँच थापे
हल्दी लगे हाथों के

ठिठक गई

ऐसे ही हाथ
छोड़ आई थी पीछे
जब विदा हुई

क्या छूट रहा था पीछे
इतने अंतिम रूप से

कौन-सी जातीय स्मृति
आ मिली थी आँसुओं में

कहाँ?
कहाँ?
देखे थे
ये छापे हाथों के?

स्मृति के किस तल से
उठता धुआँ
जला रहा था
आँखों को

धुआँ
हर जगह धुआँ
नाक में
कानों में, मुँह में

साँस

धुआँ

साँस

धुआँ

…धुआँ सब धुआँ

पैर बँधे
धड़ बँधा
किसका सिर है
गोद में मेरी?

निस्पृह
निस्तेज
यह चेहरा
इतना ठंडा
इसका स्पर्श

झुलसाती अग्न में भी

छोड़ो
उठने दो
जाने दो

साँस… साँस…
…आने दो

जल, पानी
बारिश
कोई है
इंद्र
बरस जाओ

दो

हल्दी मली थी हाथों में
गहने उतारने से पहले
कोई था नशा
बँध जाने से पहले
थापे थे हाथ
किन दीवारों पर?
कितनी थीं हम?
दस
नहीं बीस
कहीं, कहीं सौ भी
इन सौ थापों में कौन-सा मेरा हाथ
क्या वो जिसके बीचों-बीच
गोलाकार-सा कुछ छूटा
या वे
सपाट हाथ
आलते से रँगे गए पूरे
या वे जो
पहुँच नहीं पाए ऊपर तक
दूसरे हाथों के ऊपर पड़े
थपाक से
कितनी गीली
रिस रही
किस हाथ से
विदाई से ठीक पहले
हाथों में मली
किसने
ननद, भौजाई, सास
हाथ खुले
छपाक से धरे दीवार पे
बस यही प्रमाण
वह नहीं
जिसमें मुस्कुराती
एक औरत
कूदती अग्निकुंड में

हम स्त्रियाँ थीं

हम निम्न जाति की थीं
हमारे पास देने को कुछ नहीं था
सिर्फ़ दोस्ती थी
जिससे हम दुनिया का हिस्सा बन जाना चाहती थीं
उन-उन जगहों पर जाना चाहती थीं
जहाँ जाने के लिए हमारे पास पासपोर्ट, वीज़ा नहीं थे
भाषा नहीं थी, सही कपड़े भी नहीं थे
सिर्फ़ हथेलियों की गरमाहट थी
हम नारियल के तेल की तरह थीं
ज़रा-सी गरमी से पिघल जातीं
और थोड़ी ठंड से जम जातीं
हमारी दोस्ती तेल के उबाल की तरह
तेज़ी से पनपती
जिसमें हर खाद्य पदार्थ को तला जा सकता
ऐसा कुछ नहीं था
जिसे स्वादानुसार नमक डालकर
खाया न जा सकता हो
अपनी पीड़ा और दमन को हमने
सबसे अधिक स्वाद से खाया
ऐसा करते हम अक्सर भूल जातीं
कि खाना खिलाना
हँसना, खिलखिलाना
ख़ुशबू, रंग
हमसे ज़्यादा दुनिया को इनकी ज़रूरत थी

1980 में फ़ुर्सत

1980 के दशक तक फ़ुर्सत ईजाद नहीं हुई थी
थीं तो बस गर्मी की छुट्टियाँ—
लंबी और गहरी
नौशाद के गानों की टापें
—नानी के घर जाते—
ताँगे की लय से सरासर मेल खातीं
सड़कें लंबी और सुनसान
अरावली के पहाड़ लगभग पिघले-से
खेजड़ी के दरख़्त ऊँटों की खुरदरी जीभ और मुलायम होंठों के आगे बेबस
रात में बाघों का इंतज़ार करते
या उस इकलौते हाथी का जो मंदिर से भाग आया था
और आवारा घोषित हो चुका था
ऊँट, काँटों से बचना अपने डीएनए में लिखवाकर लाए थे
जो वे नहीं जानते थे वह था कोलतार की सड़कों पर लंबी टाँगों से चलना
बाघों के लिये कहीं कोई क़ैद नहीं थी
धरती के अपने उल्कापिंड
उनका ठिकाना हमेशा ही से आकाशगंगा का किनारा था
जो नानी के घर के ठीक ऊपर था
अमावस की रात बाघों को वहाँ से उतरते देखा जाता
हालाँकि यह पता नहीं चल पाता कि रात के किस पहर वे लौट जाते
चाँदनी रातों में राजहंस
खसखस की खीर के बदले मोती छोड़ जाया करते
जिन्हें मासी दहेज के लिए सहेज लेती
सुबह जब नींद खुलती दुनिया साधारण होनी शुरू हो जाती
कोई बाघ जो किसी कारण पीछे छूट गया
चिड़ियाघर की सलाख़ों के पीछे मिलता
राजहंस चिड़ियाघर के गंदे ताल में

दुपहर को नानी की पिंडलियाँ दुखतीं
जिन्हें वो हम बच्चों से दबवातीं
कभी पीठ पर हल्के क़दमों से चलने को कहतीं
इनाम में केरोसिन के स्टोव पर बनी सोंठ की मीठी चाय का लालच देतीं
उनकी पीठ पर चलते हुए लगता किसी नक़्शे पर चल रहे हैं
कहीं ढलान, कहीं चढ़ाई, कोई तिल काला, कोई लाल
मन होता उनके जूड़े में विजय-पताका लहरा दें
जब वो सीधी लेटतीं तो उनके उघड़े पेट का मुआयना किया जाता
जो सात बच्चों के जन्म के बाद काफ़ी लचीला और स्वायत्त हो चला था
नानी हँसती बिलकुल नहीं थीं
इसलिए भी उनके पेट को गुदगुदाने की तीव्र इच्छा होती
उनका पेट बेहद संवेदनशील था
जिसे ज़रा-सा छूते ही वो झटके से उठ बैठतीं
और उठते ही कोसने लगतीं

उनकी नाराज़गी के सबब बहुत सारे थे
अव्वल तो वह इसी बात से तंग थीं कि नाना मांस क्यों खाते हैं
और खाते भी हैं तो घर के अहाते में क्यों बनाते हैं
अपनी बेटियों से उन्हें ख़ास कोई लगाव नहीं था
और बेटी की बेटियों से तो और भी कम
इसलिए भी कभी–कभी लगता है
माँ और मासियाँ
उनके सपने इतने ही थे :
चादर से पैर बाहर न जाने पाएँ
सीमोन द बोउवार के नाम से वे पूरी तरह से अनभिज्ञ थीं
और इस बात से कि दुनिया के किसी कोने में औरतें अपनी कंचुकें जला रही हैं
हालाँकि यह उनके समय की ही घटना थी
इन सबके सिलेबस में
औरतों के आंदोलनों का कहीं कोई ज़िक्र नहीं था

माँ और उसकी बहनें एक ऐसे कारख़ाने में पली थीं
जहाँ ईश्वर और पति
खान-पान के वैभव से भरे थे
मेरी माँ, उसकी बहनें, उनकी सहेलियाँ
एक विशाल अनाथालय की शरणार्थी
उन्हें बस घर और प्यार की तलाश थी
अपने आपसे प्यार उन्होंने नहीं जाना
घरों में दुबकीं, सहमी निगाहों से खिड़कियों से बाहर झाँकतीं
अपनी बेटियों के लौट आने की राह अब तक तक रही हैं वे

विजया सिंह सुपरिचित हिंदी कवयित्री हैं। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इस प्रस्तुति से पूर्व प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखें : जहाँ बीहड़ अब भी ज़िंदा हैं

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