कविताएँ ::
विपिन चौधरी

विपिन चौधरी

बचे रहना अंत तक मेरा

बची रही मैं
आख़िर तक

एक वक़्त के प्यारे लोग
अपनी-अपनी पैठ छोड़ते गए

अब वे
फफूँदियों की अनेक प्रजातियाँ थे
अपने वर्गीकरण की कठिन शब्दावलियों के साथ

भूले से उनसे सामना होता जब
उनका लिजलिजापन उनसे पहले
हाथ मिलाता

सही ही था
छोड़ दिया था एक-एक कर
सबने साथ मेरा

बची रही तभी मैं
अंत तक
साबुत बचाया मुझे
मेरे एकांत ने

झूठी नींद

यह भी कोई नींद है

दूर तक फैला, चहचहाता हुआ
हरा-भरा बाग़ीचा
नींद में ठहरा है

सीलन भरी
एक अँधेरी गुफा की याद है नींद में
सोने की तैयारी में है जहाँ एक बूढ़ा-बीमार शेर

सलोनी परी जो जागते भी क़रीब रहती है और नींद में भी
अरसे से वे नटखट दोस्त भी नींद का अहम हिस्सा हो गए हैं
जिनके लिए कभी उठ कर फाटक नहीं खोलना पड़ा

नींद के क्षेत्रफल में
तीखी, मुड़ी नाकवाली कुटिल चुड़ैल की आवाजाही भी है
बहुत बचपन में जिसका परिचय दोस्त की चुराई हुई कॉमिक्स ने करवाया था

यह भी कोई नींद है
जहाँ सपनों के नाम
पर कोई न कोई
देखा, पहचाना या बहुत जाना-पहचाना
या कभी-कभार परिचित देह पर अजनबी चेहरा लगा कर कोई बाशिंदा
आ धमकता है
बेखटके

अब यह नींद भी नींद-
सी नहीं रही

बस नींद में नाम पर
जागरण के समय में आने वाली
एक झूठी उबासी
बची हुई है
दिखाती है जो सबको
ले चुकी हूँ मैं भरपूर नींद
और फिर एक अंगड़ाई भी गवाह बन सामने आती है
गुज़री रात की झूठी नींद की

डर

एक बार
काग़ज़ के एक टुकड़े में
बैठ गया था डर
लंबे समय तक जिसे छुपाती रही थी मैं
इस कोने उस कोने
इस दराज़ उस दराज़

वह शीशी का ढक्कन भी तो डर का ही एक नाम था
जो ख़ुशबू को किसी तरह से रोके हुए था

सपने में डर,
पानी की शक्ल में आया
न जाने कहाँ-कहाँ का रास्ता पकड़ते हुए
मेरी चारपाई के
पायों तक आ पहुँचता था हरदम जो

दुनिया के ख़त्म होने का डर
तो मेरे भीतर का एक
अटूट हिस्सा बन गया है

यह डर तो रोज़ का है
कि टी.वी. स्क्रीन पर आ कर कोई कहेगा,
‘चलो चलो निकलो यहाँ से
कि अब यह दुनिया ख़त्म हुई’

इतना होने पर भी उस एक डर को मैं अंत तक
बचा कर रखना चाहूँगी
वही डर जो
छुपाया था मैंने लंबे अरसे तक
काग़ज़ के एक पुरज़े में
वही मेरा एकमात्र डर है जो सार्वजानिक होने से बचा हुआ
आज तलक भी

पसंद

हमारी पसंद
सोती हुई
ढेरों रंग-बिरंगी तितलियों जैसी

ज़रा अपनी उँगली टिका भर दो
पंख फैला इतना उड़ेंगी वे
कि आपका छोटा-सा आकाश लगने लगेगा छोटा-सा

पर अपनी पसंद की इन तितलियों को इतनी छूट भी न दो
जान ले हर कोई कि
भाता है तुम्हें रंग आसमानी
और लोग चाहे करते हों बारिश का बेसब्री से इंतज़ार
तुम्हें पसंद है साफ़ चमकता आसमान
कि नींद से अटूट प्रेम है तुम्हें
कि तुम्हें सुहाता है पतला तकिया और
चाय के प्याले का सुकूनदेह साथ

कि तुम्हें भविष्य में नहीं तनिक भी रुचि
भूतकाल प्रिय है तुम्हारा
कि तुम्हें कहानियों में पसंद आते हैं सिनिकल किरदार
और आत्मा तक के आँसू टपका देने वाले गीत
श्वेत-श्याम फ़िल्में
और नायक वे जिनके हाथों में सुलगती रहती हो हमेशा सिगरेट

सार्वजनिक होते ही
मुरझा जाएगी तुम्हारी पसंद
जानते भी नहीं तुम फिर कोई काला-जादू
बना दें जो तुम्हारी पसंद को
सोती हुई तितलियाँ
और बचा ले जा सको तुम
अपनी पसंद को कितनी ही तिरछी निगाहों से

अब देखो इस कविता में
कई बार ज़रूर बहकी मैं
फिर भी छुपा ले गई अपनी कई पसंद
ख़ासतौर पर वे
जिस पर मुझे ख़ामोश रहना ही है अधिक
पसंद

आवाज़

हरकत करती चीज़ें
ध्वनि को ले आती हैं अपने साथ

आसमान में राह खोजता जहाज़
सड़कों पर पाँवों की क़दम-ताल
जितनी हरकतें
उतना ही शोर

गिलहरी टहनी से फुदक कर
बिना आहट के कर लेती है सड़क पार
नर्म-नाज़ुक डैनों वाली तितली
हवा का जिस्म चीरते हुए निकल जाती है
कहीं दूर

ऐसे ही बे-आवाज़ जीवन में प्रविष्टि के लिए
लौटती हूँ मैं
घास के मैदानों में
दूर तक फैले हुए रंग-बिरंगे फूलों के क़रीब

तब सड़क पार करने वालों के मनों
तक पहुँच पाती हूँ
चुपचाप
बिना किसी हरकत के
बिना किसी आवाज़ के

विपिन चौधरी सुपरिचित हिंदी कवयित्री और अनुवादक हैं । उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : कोई मर रहा है तुम्हारी नींद से दूर

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