कविताएँ ::
वियोगिनी ठाकुर

वियोगिनी ठाकुर

उसने कहा मुड़ो

उसने कहा मुड़ो
और मैं निर्वस्त्र उसकी तरफ़ पीठ कर खड़ी हो गई
ठीक तभी महसूस किया मैंने
अपनी टाँगों का कंपन
जैसे असमर्थ हों
वे मेरा भार सँभाल पाने में
जैसे भारी बोझ से दब रहा हो
सारा शरीर
महसूस यह भी किया
कि मेरी देह पर उभरे मौन विरोध के शब्द
सामने से भले धुँधले दिखते हों
पीठ पर बहुत साफ़-साफ़ स्पष्ट थे
जैसे कह रहे हो चीख़-चीख़कर
कि तुम किसी को जीवन नहीं
मृत्यु की ओर धकेल रहे हो—
मृत्यु जीवन की सबसे हसीन और कोमल भावनाओं की
कि तुम्हारी आसक्ति का रास्ता
किसी की विरक्ति से होकर ही क्यों जाना चाहिए

पुरुष! तुम क्यों नहीं पढ़ सकते कभी मौन की भाषा
और स्त्री, तुम क्यों नहीं कर सकतीं
किसी ऐसी चीज़ से स्पष्ट इनकार
जिसे नहीं स्वीकारता तुम्हारा हृदय

उन क्षणों में लगा
अगर मैं और एक क्षण ऐसे खड़ी रही
तब वह जान लेगा मेरा सच
और मैं किसी कमज़ोर दीवार की तरह
भरभराकर ढह जाऊँगी

वह जान यह भले न पाए
कि कैसे सारी पीड़ा, सारा संकोच, सारी लज्जा, सारी उदासी, सारी असहमति
कई बार पीठ पर उतर आती है एक साथ

वह जान यह ज़रूर लेगा
कि कितनी नादान
कितनी कच्ची हूँ मैं—
उस ताने-बाने में
जिसमें वह मुझसे संपूर्णता की आशा करता है—
हर बार

वह जान यह भी ज़रूर लेगा
कि मैं स्वाँग रचाती हूँ—
उसे उसकी तरह चाहने का
और यह भी कि जिन्हें
जंगलों से रही होती है बेपनाह मुहब्बत
ज़रूरी नहीं कि उनमें जंगलीपन भी
उतना ही कूट-कूटकर भरा हो।

तुम्हारी स्मृतियाँ

मैंने अपनी देह से उठती
कितनी बार महसूस की है
तुम्हारी गंध
जबकि कभी तुम्हें छुआ तक नहीं

तुम्हारे पास से भी कब गुज़री
ठीक-ठीक यह भी याद नहीं
शायद कभी नहीं

तुम कभी मिलते तो किसी बच्चे-सा
दोनों हाथों से थाम लेते अपना चेहरा
और ढूँढ़ते उस ताले की चाबी
जहाँ मैं क़ैद रही हूँ बरसों तक
रिहाई माँगना तो मेरा हक़ था
है न?
और देना तुम्हारी ज़िम्मेदारी

कितनी बार अपनी आँखें
हाथ-पैर, शक्ल-सूरत
सब लगते है तुम्हारे-से

कितनी बार मैं सोचती हूँ
मुझमें कितने गहरे तक गड़ी हुई हैं—
तुम्हारी स्मृतियाँ

कितने भीतर तक उतर आए हो तुम!

लड़की कैक्टस थी

बहुत से लोगों की आँख में चुभती रही वह
लड़की काँटा थी या थी—
पूरा का पूरा बबूल का पेड़
जिस पर स्वाभिमान नाम का प्रेत
और सच्चाई नाम की चुड़ैल डोलते रहे सदा

माँ-बाप के लिए पहाड़ थी वह लड़की
जिस पर वह साधिकार चढ़ना चाहते थे
और पार उतर नहाना चाहते थे गंगा
वह कल्पना करती थी
कि कभी अगर ऐसा होता
तब वह दिन उनके लिए कितना सुकून भरा होता

लड़की सीने पर रखा कोई भारी पत्थर थी

लड़की सिर्फ़ काँटा नहीं
काँटों भरा वह हरा रंग थी
जिस पर दुनिया की तमाम जद्दोजहद के बावजूद
पीला बहुत देर से उतरा
जिसके काँटों भरे वजूद में भी खिलता रहा
किसी-किसी मौसम कोई ख़ूबसूरत-सा फूल

लड़की तपती रेत में भी ख़ुद को बचाए रखना जानती थी
लड़की टुकड़ा भर पानी से सिर्फ़ प्यास बुझाना नहीं
प्यास और पानी दोनों बचाए रखना जानती थी
लड़की कैक्टस थी।

अब ख़याल

अब उसे आत्महत्या के ख़याल नहीं आते
यह किसी गुज़रे ज़माने की बात रही होगी
ठीक वैसे ही
जैसे ज़िंदगी के एक दौर में
ख़्वाब नहीं आते
नींद नहीं आती
मुस्कान भी नहीं…

वह एक ज़िंदगी से भरपूर लड़की थी
वह हो जाती थी छोटी-छोटी बातों में ख़ुश

वे कहते रहे—
वह किसी दिन भाग जाएगी घर से

वे कभी जान ही नहीं पाए
कि उसे सिर्फ़ भागना ही नहीं आया

वह सिर्फ़ इतनी ख़ुशक़िस्मत रही
कि प्रेम में रही
लेकिन इतनी भी नहीं
कि कोई कसकर किसी दिन
उसका हाथ थाम लेता
और कहता—
मैं हूँ हमेशा साथ तुम्हारे

वे कहते हैं :
उसके हाथों हत्याएँ होंगी

वे कभी जान ही नहीं पाए
कि जो लड़की आँगन बुहारते वक़्त
चींटियों के बनाए घर तक
वैसे ही छोड़ दिया करती
वह कैसे किसी की हत्या कर सकती है!

क्या उसके माथे यह अपराध धर देना
उसकी ही हत्या कर देना नहीं था।

नींद में तुम्हारे संग

नींद में तुम्हारे साथ विचरती हूँ ऐसे
जैसे पिता की उँगली थामे कौतुक से हाट घूमती
कोई लड़की…

स्वप्न में भी तुम्हारे साथ
तुम्हारी हथेली थामे फिरती हूँ

तुम्हारे ही स्वप्न—तुम्हारे ही साथ

ताके हैं साथ तुम्हारे चींटियों के घर
एक उम्र से तुम्हारे ही साथ
जमा करती रही हूँ बेलपत्र

मोड़ों और पगडंडियों पर अदृश्य से
तुम ही तो साथ चलते रहे

वर्षा में साथ भीगे हैं—
एड़ियों और हथेलियों का रक्त जमने तक

सुनो!
तमाम गंधों में तुम्हारी ही गंध घेरती है मुझे
चीन्ह लेती है हर बार
देह से आत्मा तक महकती है
उठती है लहक

आसमान का नीला तब कुछ और गहरा नीला नज़र आता है
कपास के सूखे फूल कुछ और उजले दीखते हैं
खिलता कपास थोड़ा और कपासीय नज़र आता है
बादल का कोई टुकड़ा थोड़ा और गुलाबी हो उठता है
ठीक वैसे ही जैसे
तुम्हारे स्पर्श से और निखर जाती है
मेरी प्रिय बोगनवेलिया
थोड़ा और गहरा जाता है
नाज़ुक-नन्हे पीले फूलों पर उतरा हुआ पीला रंग।

सिर्फ़ कहने भर को

कितना कुछ कहना था तुमसे
सिर्फ़ कहने भर को
वह सब कुछ जो सिर्फ़ ख़ुद से कहा गया

तुमसे होकर उस पार भी जाया जा सकता है
जहाँ कई जन्म पीछे हमने साथ बोए थे जामुन
पर चख नहीं सके कभी उनका स्वाद

मैं तब खिड़की पर ही खड़ी रही
जबकि चाहती तो कूदकर थाम लेती तुम्हारा कंधा

मैं चबा सकती थी तुम्हारे हाथ से चुनी हुई मूँगफलियाँ

चूम सकती थी तुम्हारी जेब से उतारकर
तुम्हारी प्रिय गिलहरी
और तुमको भी तो…

तीन प्रेमी

हाँ मेरे तीन प्रेमी रहे
मैं उन तीनों के प्रेम में रही उम्र भर
आप कहेंगे—
नहीं-नहीं यह झूठ है
यह हो ही नहीं सकता
प्रेम सिर्फ़ एक दफ़ा होता है
या दुबारा होता भी है तो अलग-अलग टुकड़ों में
कि तुम्हें नहीं है प्रेम के विषय में ज़रा-सा भी ज्ञान

हाँ मैं भी यही समझती रही
क्योंकि यह हो सकता है हैरानी का विषय
जैसे रहा मेरे लिए उन दिनों
पर अगर कोई मेरा शरीर खोलकर देखे
देखे उसके दो टुकड़े करके
तब दिखेगा मेरे प्रेमियों के लिए
उनका अलग-अलग आरक्षित स्थान
जहाँ वे परत-दर-परत नहीं
अपनी-अपनी जगह मौजूद रहे हमेशा
और मन खोलकर देखे कोई
तो वहाँ वे मिलेंगे एकाकार
जहाँ उनका कोई अलग अस्तित्व नहीं।

घाव को घाव ही कहा

घाव को घाव ही कहा
हमेशा
घाव को फूल कहना
मुझे कभी नहीं आया

नहीं ही आ सकी कभी
दुनियादारी
चाहा तब भी नहीं

प्रेम किया जंगली-जीवों की भाँति
और मनुष्यता की श्रेणी से ख़ुद को बार-बार वंचित पाया

वैसे ही भुलाए छल-कपट, घृणा-द्वेष, उचित-अनुचित
जैसे भूल जाती हैं अपने मालिक का क्रोध
कुछ क्षण बाद ही हर नस्ल की बिल्लियाँ

बस नहीं भुलाया गया वही एक मन
जिसे याद रहा देह के माटी होने तक
कि माथे पर कभी क्यों नहीं मिल सका कोई चुंबन
मनुष्य की देह धरने का इससे बड़ा दंड तब कोई और कहाँ!

पीड़ा लौटती है

सिर्फ़ चेहरे बदलते हैं
नाम बदल जाते हैं
पीड़ा फिर-फिर लौटती है—
ठीक उसी रूप में

ठीक उसी रूप में लौटता है—
मनुष्य के भीतर का प्रेम
वह नहीं कर पाता आविष्कृत—
प्रेम करने का कोई नया ढंग

फिर जा टकराते हैं
हम उसी चमेली के झाड़ से
ख़ुशबुओं में डूबते-उभरते हैं
फिरते हैं उसी एक गंध के पीछे बौराए

चुभना तय है—पाँव में करौंदे का काँटा
धँस जाना है—घुटनों में नागफनी को
बोगनवेलिया को अँगूठे का लहू पीना ही है—
एक रोज़

झरना ही है हम पर अमलतास
फिर सब मिट्टी में मिल जाना है

और प्रेम…

प्रेम को फिर टँग जाना है बहुत दूर कहीं
एक दिन आसमानों में चाँद-सितारा बनकर।

रातरानी की महक सिर्फ़ रातरानी से उतरती है

रातरानी की महक सिर्फ़ रातरानी से उतरती है
गुलाबों-सी गंध सिर्फ़ गुलाबों से
तुम्हारी तरह कौन चूमता है माथा
कौन फेरता है होंठों पर उँगलियाँ

तुम्हारे सिवा दे भी कौन सकता है
तुम्हारी सी-पीड़ा
हर भी कौन सकता है
सिवा तुम्हारे

हाँ समय भी हरता है—
समय की पीर
पर वह तुम तो नहीं हो
न ही वह तुम है

तुम्हारे सिवा कर कौन सकेगा
मुझे तुम-सा प्रेम
आता भी किसको है भला ऐसा जादू-वादू

सिर्फ़ तु‌म्हारे आने से खिलता है तन
महक उठती है मन की मौलश्री।

आख़िरी बार

मैं एक लड़की हूँ
एक जवान औरत भी
ऐसी औरत जिसके लिए
ग़लतियों की कोई गुंजाइश नहीं होती
जिसे अपने ऊपर लगाए गए
प्रत्येक लांछन को सिर-माथे पर बिठाना चाहिए
प्रतिउत्तर में रहना चाहिए चुप
या मुस्कुरा देना चाहिए
या फिर आँसू भी बहाए जा सकते हैं—चुपचाप

पर अफ़सोस बार-बार अफ़सोस
यह मुझसे हो न सका कभी

जब-जब यह हुआ
पुरानी सारी पीड़ाएँ उभर आईं पीठ पर

पेट में एक गहरा सुराख़ है
जिसमें हाथ डालकर कोई बेरहमी से मांस नोचता है
और बाहर फेंकता है

सारा शरीर कीड़ों से भर गया है
ज़मीन पर कितना मवाद बह गया है
या बह गया है—
बचा-खुचा आत्मसम्मान

सुनाई देती है मौत की आवाज़
उफ़् कितनी बेरहम और डरावनी-सी

ख़याल आता है :
क्या अपनी आख़िरी साँसें गिननी शुरू कर दूँ—
दस-नौ-आठ-सात-छह-पाँच-चार-तीन-दो-एक…

यही तो किया था न उसने
और काट दिया था फ़ोन

एक पुराना प्रेमी याद आता है
साँसों की लय छूटती है
मैं सूखे होंठों पर जीभ फिराती हूँ
और पुकारती हूँ
अपने आख़िरी प्रेमी का नाम
आख़िरी बार
सोचती हूँ यह भी
कि मेरी मौत पर बारिश तो होगी न
बारिश कितनी… कितनी पसंद रही है मुझे

सोचती हूँ यह भी
कि जानती थी
इस बार बचूँगी नहीं।


वियोगिनी ठाकुर की कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। वह कई वर्षों से फ़ेसबुक पर कविताएँ और गद्य लिख रही हैं। ‘सदानीरा’ ने उनसे लगभग दो-तीन वर्ष पूर्व अपनी कुछ कविताएँ संकलित करके भेजने का आग्रह किया था। हमारे इस आग्रह का मान वियोगिनी ने बहुत देर से रखा, लेकिन क्या ख़ूब रखा है; यह इन कविताओं से ज़ाहिर है। वह अपना मूल नाम और संपर्क इन कविताओं के साथ यहाँ व्यक्त नहीं करना चाहती हैं। उनसे और परिचय के लिए उनका गद्य यहाँ पढ़ सकते हैं : एक पुरुष की देह को लेकर

4 Comments

  1. Yogesh Dhyani अगस्त 4, 2021 at 1:20 अपराह्न

    बहुत अच्छी कविताएं, आभार साझा करने के लिए

    Reply
  2. सुमन कुमार सिंह अगस्त 5, 2021 at 6:57 पूर्वाह्न

    बहुत अच्छी कविताएँ ! कवयित्री को शुभकामनाएँ!

    Reply
    1. डॉ• ममता पाठक शर्मा अगस्त 10, 2021 at 3:08 अपराह्न

      सुंदर सचेत शब्दों में कवयित्री ने ह्दय के सूक्ष्मतम उद्गगार प्रकट किये हैं।कविताएं हर स्त्री के मन का दस्तावेज लगती हैं।बहुत बारीक मनोभावों को उकेरा है।

      Reply
  3. Rohit अगस्त 18, 2021 at 10:00 अपराह्न

    I found the poems deeply moving lines of emotions and trauma women often experience in personal intimacy. Impressive and touching readers’ hearts. Rohit Bristol UK.

    Reply

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