कविताएँ ::
अशोक कुमार
हिमाचल के चंबा ज़िला के भरमौर तहसील में एक जनजाति बसती है—गद्दी। इस जनजाति से संबंध रखने के कारण, मैं वहाँ के जीवनानुभव को लिखने की कोशिश कर रहा हूँ। यह एक लंबी शृंखला होगी, फ़िलहाल कुछ कविताएँ :
गद्दी
किसी ने कहा
कि लाहौर से आए थे हमारे पुरखे
किसी ने कहा
कि राजस्थान से।
हम ऐसा कुछ नहीं मानते।
हमारे पुरखे मानते रहे हैं
कि यही मणिमहेश में रहते हैं शिवजी
और हम उन्हीं के साथ आए थे।
देवता
पहाड़ी पर अकेले घर
देवदार के घने जंगल
और बहुत सारे जानवर।
इसलिए हमने आस-पास ही बसाए थे अपने देवता
घरों में नहीं गाँव से थोड़ा बाहर
किसी पहरेदार की तरह।
हमारी ही तरह थे
हमारे देवता भी
बिना छत और बिना मूर्तियों के मंदिरों वाले।
भाषा
लिपि नहीं है हमारे पास
किंतु भाषा है अपनी।
मीठी लोकोक्तियों वाली
चटपटे मुहावरों वाली।
जिसमें रची हैं हमनें एंचलियाँ
नाटियाँ और नाच।
हमने रची हैं लोक-गाथाएँ
जिन्हें अलाव के पास बैठकर
सुनते-सुनाते हैं बड़े बुज़ुर्ग।
- एंचली वहाँ की एक गीत विधा है, जिसमें धार्मिक कहानियाँ गाकर सुनाई जाती हैं। नाटी और नाच नृत्य के प्रकार हैं।
ऊन
हमने चकमक घिसकर जलाई आग
और उसे राख में दबाकर
बरसों-बरस सुलगाए रखा।
हमने मिट्टी के घर बनाए
मिट्टी से लीपी दीवारें
गीली दीवारों पर अँगुलियों से उकेरे डिजाइन।
हमने ढूँढ़ी जंगली जड़ी-बूटियाँ
खाने-पीने के जंगली सामान।
हमने पाली भेड़ें
हमने बनाए सबसे पुराने ताने-बाने
और इन्हीं तानों–बानों पर
हमने बुने सबसे गर्म पट्टू
सबसे बेहतरीन ऊनी चादरें।
इन्हीं पट्टुओं से हमने सफ़ेद चोले सिले
सिले दोडू और जामे
और सिली लुआचड़ियाँ।
हमने सर्दियों को इसी ऊन में लपेटकर
अपने जिस्मों पर ओढ़ लिया।
- पट्टू ऊन से बुना हुआ कपड़ा है।
ख़ानाबदोश
लूंण तेल हल्दी की पुड़िया
कुकड़ी का आटा
लोहे के बड़े-बड़े लूंढे
और सूखी लाल मिर्च
यही कुछ पीठ पर लादकर निकलते थे घर से।
जहाँ दुपहर हुई वहीं पड़ाव
सूखा जंगली अलाव जलता
नमक मिर्च मिलाकर पकाए जाते
मकई के मोटे–मोटे रोट।
फिर जहाँ शाम ढलती वहीं डलता डेरा।
अलाव को घेर के बैठ जाता
भेड़ों–बकरियों का रेवड़
गादे कुत्ते तैनात हो जाते सुरक्षा में।
वही मक्की का रोट
बकरी का दूध
पुराने काले गुड की एक डली।
या फिर फिसलकर मर गईं
या बाघों से छुड़ा ली गईं
भेड़ों-बकरियों का बचाया हुआ मांस।
टहनियों-पत्तों का बिस्तर
उस पर ऊनी पट्टी का बिछावन
ऊनी चादर का ही ओढ़ना
और पहर-पहर भर की पाली।
अपने धण को हाँकते हुए
गर्मियों में लाहुल जाते
सर्दियों में पालमपुर
और हर छह महीने में एक बार घर।
एक मुलाक़ात बच्चों से
एक बूढ़े-बुज़ुर्गो से
और एक पत्नी-प्रेमिका से।
हर बार बच्चे थोड़ा और बड़े हो जाते
बूढ़े और थोड़ा बुज़ुर्ग।
ख़ानाबदोश होना
सुनने में जितना रोमांचक है
जीने में उतना ही कठिन और कठोर है।
- धण मतलब भेड़-बकरियों का समूह, कुकडी यानी मक्की।
प्रेम-कहानियाँ
छह माह का राशन पीठ पर लादकर
रेवड़ों को हाँकते हुए
अनिश्चितताओं की यात्रा पर निकल जाते थे मेरे पुरखे
और पतझड़ के दिनों में
विरह के गीतों से गूँज जाती थी घासनियाँ।
जहाँ एक जीवन के लिए
जीवन भर जंगलों में भटकते
चरवाहों की प्रेम-कहानियाँ
लोकगीतों में ढलकर अमर हो जाती थीं।
साटा-गाटा या बाटा-गाटा
विवाह के लिए रोज़गार कोई शर्त नहीं थी
साटे-गाटे का रिवाज था।
जिनके पास बहने नहीं थी
वे कुँवारे रहे ताउम्र।
मृत्यु के बाद वे देवता बन गए थे
गाँव के दक्षिण की गुफा में रखे थे कुछ पत्थर
उनमें ही बसती थी उनकी आत्मा।
ऐसा बाबा बताते थे।
जब वे नाराज़ होते तो क़हर बरपाते थे लोगों पर।
इसलिए उनपे ही चढ़ता था–
गाय का पहला दूध
पहला बिलोया घी
ऋतुओं की फ़सलों का पहला नया दाना।
घर जमातरी
बिन बहनों के बेटे
सात साल खटते थे
खेतों में बैलों के जैसे
विवाह के लिए वधू की आस में
यही रिवाज था।
इसे घरजमात्री कहते।
विवाह-पूर्व
दुल्हन के घर जमाई के रूप में चाकरी
अवैतनिक सात साल।
फिर कहीं होता था लग्न
फिर कुछ समय में गौना
और फिर कहीं जाकर गृहस्थी।
बिन बहनों के भाइयों को
विवाहपूर्व बेटा होना होता था
वह भी दो-दो घरों का बेटा।
- घरजमात्री यानी घर-जमाई प्रथा।
बहादुर औरतें
बहुत बहदुर थीं वे औरतें
एक हाथ में धारदार दराँती
दूसरे में सोठा
और दहाड़ मारकर चीख़ती हुई
वे टूट पड़ती थी बाघ पर
शिकार पर निकला बाघ
उनकी आँखों में आँखें डालने से डरता था
और भाग जाता था शिकार छोड़कर।
संतुलन
सिर पर पानी का घड़ा
हाथ में सिलाइयाँ
और काँख में ऊन का गोला
यदि संतुलन के इस खेल की
कोई प्रतियोगिता होती
तो मेडल सारे
इन औरतों के ही पास होते।
अशोक कुमार नई पीढ़ी के कवि हैं। उनका एक कविता-संग्रह ‘मेरे पास तुम हो’ प्रकाशित हो चुका है। उनसे akgautama2@gmail.com पर संवाद संभव है।
अशोक हमारे समय के बेहतरीन कवि हैं। इन्होंने पहाड़ी जीवन और उसमें व्याप्त जीवन की ऊष्मा को अपनी कविताओं में पिरोकर आम पाठक के लिए उसे उपलब्ध करा दिया है। इनकी कविताई की यात्रा शानदार रही है। ढेरों शुभकामनाएं और बधाई कवि को।
कठिन जीवन की बेहद सुंदर और मार्मिक कविताएँ। ऐसी कविताएँ बहुत मुश्किल से पढ़ने को मिलती हैं। अशोक जी को बहुत बधाई।
गद्दी जनजाति का अगर दस्तावेजीकरण होगा तो ये कविताएं काम आएंगी।अशोक की इधर की कविताओं में स्थानीयता प्रमुख रूप से उभर कर आई है।कविताओं को पढ़ते हुए महसूस होता है कि जितना चंबा में अशोक हैं उतना ही अशोक में चंबा।इस स्थानीयता का स्वागत किया जाना चाहिए।
अशोक को हार्दिक बधाई।
Inki Kavita bhut sundar hai hai
गद्दी कबीला मेरे एकदम पड़ोस से आता है। यह पश्चिमी हिमालय का सब से सख्तजान समुदाय है। इन की जीवटता की मिसालें पूरे हिमालय में दी जाती है। गद्दियों पर हर कोई लिखना चाहता है। लिखा भी है। आज ही एक किताब वाईरल हो रही फेस बुक पर। लेकिन अशोक जो लिखेगा वह सब से अथेंटिक लेखन होगा इस समुदाय पर । क्योंकि वह इसी समुदाय के भीतर का कवि है। उस की कविताई में रिपोर्टिंग से गहरी और ऊंची कोई बात सामने आएगी। क्योंकि वह बात अंदर से आएगी।
बहुत साधुवाद! सदानीरा और अशोक को।