कविताएँ ::
जितेंद्र सिंह

जितेंद्र सिंह

पत्थलगड़ी

चुटु मुण्डा और उसके क़बीले ने
घने जंगल के एक हिस्से को साफ़ किया
जिसकी स्मृति में पहला पत्थल गाड़ा गया
और गाँव का नाम रखा गया बुरूहातु।

बुरूहातु पीढ़ी-दर-पीढ़ी समृद्ध होने लगा
बैल, बकरी, मुर्ग़ी बढ़ने लगे
और बढ़ने लगीं गोंदली, मड़ुआ, गोड़ा आदि धान की क़िस्में
लोग बढ़ रहे थे; उसी के अनुपात में खेत भी
यहाँ ज़मीन का कोई मालिक नहीं था
इसलिए ज़मीन का बँटवारा नहीं था।

धीरे-धीरे संगी सखुआ पेड़ के साथ-साथ
चुटु मुण्डा भी बूढ़ा हुए
और एक दिन गाँव के पुरखा हुए
सखुआ का पेड़ गाँव का ‘खूँट देवता’ हुआ
बुरूहातु में उस दिन अपने अगुआ के सम्मान में
दूसरा पत्थल गाड़ा गया।

उलट-पुलट दुनिया उलटती-पलटती रही
राजा आए
मंत्री आए
नागवंशी आए
सिंहवंशी आए
न किसी को नियमित कर दिया
न किसी ने मजबूर किया
जो आये घुल-मिल गए आदिवासी-सदानी हुए।

फिर एक दिन फिरंगी आए
उनके साथ लबादा ओढ़े कुछ लोग आए
गोली आई
बंदूकें आईं,
नई किताब आई
नई मूर्तियाँ भी
चुपके-चुपके उन्हें बताया गया वे असभ्य हैं,
पाप करते हैं
सभ्यता की सीख और पाप क्षमा करने की जुगत उनके पास है
यह कह कर बुरूहातु में तीसरा पत्थल गाड़ा गया
और उस पर सुंदर समाचार लिखे गए।

आगे
बुरूहातु का नया सीमांकन हुआ
ठेकेदार, जमींदार, थानेदार, भट्ठीदार
सूदख़ोर, जमाख़ोर, मुफ़्तख़ोर धड़ाधड़ घुसने लगे
नई सरकार का नया कर आयद हुआ।

बुरूहातु के लोग अब भात की तरह उबलने लगे थे
गाते-गाते चिल्लाने लगे थे—
उलगुलान-उलगुलान-उलगुलान
और एक दिन सचमुच उलगुलान हुआ
दुश्मन जहाँ मिला वहीं श्मसान हुआ
नदी लाल हुई, जंगल लाल हुआ
मिट्टी लाल हुई, पहाड़ लाल हुआ
रात लाल हुई, दिन लाल हुआ
और इस तरह से लाल रंग की याद में
चौथा पत्थल गाड़ा गया।

पाँचवाँ पत्थल बाहर के लोगों ने गाड़ा
बाँध के नाम पर
कारख़ाने के नाम पर
सड़क के नाम पर बिजली के नाम पर
अपने नाम पर
पराए के नाम पर।

अब पत्थल गाड़ा ही नहीं जा रहा था
बल्कि उखाड़ा भी जा रहा था
लोहा पत्थल
चूना पत्थल
सोना पत्थल
कोयला पत्थल
नीला पत्थल
पीला पत्थल
अनेक पत्थल
छाँट-छाँटकर उखाड़े जा रहे थे
और बुरूहातु के हिस्से में
सिर्फ़ धूल और धुआँ बच रहा था।

उस धुएँ का पीछा करते-करते
कुछ लोग बुरूहातु के जंगलों में घुस आए
उन्होंने दो पत्थल ठीक
एक दूसरे के आमने-सामने गाड़ा
और युद्ध छेड़ दिया;
जिसकी चिंगारी रह-रहकर धधक उठती है
कहीं महुआ की डाली टूट जाती है
कि कहीं किसी की जोड़ी छूट जाती है।

अब पत्थल अपना अर्थ खो रहे थे
उन पर लिखना आवश्यक हो गया था
कि एक दिन अचानक कुछ लोग बुरूहातु में
हवा की तरह आए
और पत्थलों को झंडा की तरह फहराने लगे
किसी ने उस पर संविधान लिख दिया,
किसी ने आंदोलन लिख दिया
किसी ने अपना देश लिख दिया,
किसी ने अलग देश लिख दिया
ऐसे ही पढ़ने वालों ने अलग-अलग पढ़ा
किसी ने विद्रोह पढ़ा,
किसी ने देशद्रोह पढ़ा
किसी ने हक़ पढ़ा,
किसी ने नाहक़ पढ़ा।

नए पत्ते पुराने पेड़

पेड़ और पत्तों की सहमति से आता है पतझड़
पेड़ और पत्तों की सहमति से ही विदा लेता है
जाते-जाते नए पत्तों से कह जाता है
अगले बरस हम फिर आएँगे
तुम्हें लेने
मृत्यु के समाचार का कहाँ बुरा मानते हैं पत्ते
वे तो झूम उठते हैं,
जैसे कोई संगी सरहुल का न्योता देता है
अपने साथी को।

इस दुनिया से परे नहीं जाते हैं हमारे लोग
रहते हैं कहीं यहीं अगल-बग़ल आस-पास
किसी नदी, पेड़ या पहाड़ पर
और इसलिए
मृत्यु का भय नहीं मनाते हम
वसंत के पत्ते हो जाते हैं।

• कविता की प्रारंभिक दो पंक्तियों के लिए कवि-मित्र राही डूमरचीर का आभार 

आषाढ़स्य प्रथम दिवसे

आषाढ़ का पहला दिन था और मौसम साफ़ था
उठ नहीं पा रहा था बादल समुद्र की गोद से
कोई हवा उसे उठा नहीं पा रही थी;
कट गया वह पेड़ मेरे बग़ल का
हवा की गति कमज़ोर हो गई उस दिन से।

कमज़ोर होने लगी उसी दिन से हमारी साँसें
पृथ्वी पर से घास का उगना
हमारे अगल-बग़ल चिड़ियों की चहचहाहट
नदियों का हहराकर बहना
और जंगली फूलों का गंध।

मौसम अपनी रंगत में बचा रहे
तो बीजों में अँखुआने की उम्मीद बची रहेगी
और बचेगा एक रिश्ता
हल का ज़मीन के साथ
फूलों का तितलियों के बीच
नदियों का अपने किनारों के साथ
और कवि का अपनी कविता के साथ।

अच्छा आदमी

अच्छे आदमी का सब कुछ अच्छा होता है
चाल-चलन, बोली-बानी, सोच-विचार सब कुछ
यहाँ तक की उसकी हँसी भी
अच्छाई के दायरे से बँधी होती है
वह अट्टहास नहीं करता,
धीरे-धीरे हँसता है।

अच्छा आदमी हमेशा सतर्क रहता है
कि उसके हाथ किसी झमेले में न पड़ें
उसके जीभ किसी को बुरा न कहें
वह आदर्श होता है देश का, समाज का

अच्छा आदमी साधु स्वभाव का होता है
हर जगह पर उसकी उपस्थिति लोग बर्दाश्त नहीं करते
सबकी उम्मीद होती है
कि वह जब भी बोले, नपा-तुला बोले
प्यार की चर्चा तो उसे क़तई शोभा नहीं देती।

इस तरह से
अच्छा आदमी अपनी अच्छाई से ऊब रहा होता है
खुलकर न हँस पाने की कसक
उसके अंदर बारूद की तरह जमा होने लगती है
अच्छा आदमी धीरे-धीरे मूर्ति में तब्दील होने लगता है
वह न तो मुट्ठी तानकर हवा में लहरा पाता है
और न ही मुट्ठी खोलकर
अपनी प्रेमिका के जूड़े को सँवार पाता है।


जितेंद्र सिंह की कविताएँ ‘संवेद’ और ‘संवदिया’ जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। वह कम लिखते हैं। पर्यावरण एवं आदिवासी जीवन पर लिखने में उनकी विशेष रुचि है। उनसे jitendrahindi1@gmail.com पर बात की जा सकती है।

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