कविताएँ ::
कमल जीत चौधरी
समारोह और संस्कृति
समारोह में
मेरी बेटी राधा बनी है
आज अनेक बेटियाँ राधा बनी हैं
मेरी बेटी मीरा बनी है
आज अनेक बेटियाँ मीरा बनी हैं
मेरा बेटा भगत सिंह बना है
आज अनेक बेटे भगत सिंह बने हैं
…
मक्खन की हांडियाँ
विरह के मधुवन
ज़हर के प्याले
फाँसी के फंदे
हमें बस नाटकों में ही अच्छे लगते हैं
देह-मटकों से छलकती आत्माएँ
बात की
रात की
घात की
प्यास; स्त्रीलिंग थी
जिसने हमें घट-घट चुना
घृणा के
धोखे के
ज़ख़्म के
रंग; सारे पुलिंङ्ग थे
जिनने हमें घाट-घाट नंगा किया
देह-मटकों से छलकती आत्माएँ
समलैंगिक थीं
पानी जैसी
पानी ही…
तीन सवाल
मेरी आँखों में
खेतों की ओर जाती पगडंडी देखकर
एक लड़की कहती है :
तुम्हारे पैरों पर कविता लिखी जा सकती है
कविताएँ किसके पैरों पर लिखी जाती हैं?
मेरी छाती पर कान धरकर
भतीजा बोलता है :
चाचू इस पहाड़ के अंदर आवाज़ नहीं टूटती
आवाज़ किसकी नहीं टूटती?
एक बुज़ुर्ग
मेरी कविता सुनकर कहता है :
तुम बान1मुंज का मंजा2चारपाई बुनते हो
बान का मंजा कौन बुनता है?
उस दौर में
उस दौर में
लगभग सभी सम्मानित थे
वह समय
अज्ञान में अज्ञान को
ज्ञान में अज्ञान को
अज्ञान में ज्ञान को
सम्मानित करने का समय था।
धरती पर इससे पहले
इतना सम्मान कभी नहीं था
उस दौर में जो एकाध आदमी
ज्ञान से ज्ञान को सम्मानित होते हुए
देखना चाहता था
उसे अपमान के हाथी से
कुचलवा दिया जाता था।
क्रोध का पेड़
आदमी बचाना है
बाघ बचाना है
चिड़िया बचानी है
बाज़ बचाना है
मछली बचानी है
घड़ियाल बचाना है
शेर और बकरी को
एक ही घाट पर पानी पिलाना है
…
किसी दुश्मन देश के लिए नहीं
किसी ग़ैर धर्म लिए नहीं
दो कप चाय
और एक निग्घी3गर्माहट भरी झप्पी के लिए
हमें क्रोध से
पूरे क्रोध से
कुल्हाड़ी कंधे पर रखकर
पेड़ के लिए बचाना है—
क्रोध का पेड़।
एक काव्य-कथा
दिल एक चिड़िया था
प्यार ने जिसे पिंजरे से आज़ाद करवाया :
दिल एक कबूतर था
चालाकी की बिल्ली
और बाज़ की होशियारी से
अंतत: वह मर गया।
आत्मकथा
मिट्टी पर लेटकर
मैंने कई रातें जागकर काटीं
मैं धरती के सीने पर जलता दीवा था
राम की अयोध्या-वापसी पर जलने में नहीं
मुझे जानकी के पैरों तले बुझ जाने में ख़ुशी मिली।
तथागत के लिए
जीवन एक ज़हरीला तीर है
तथागत,
हमारी देह में इसे किसने भेदा था
यह कोई सवाल नहीं
सवाल यह है कि
इसका अगला निशाना कौन होगा
और चूकने पर यह कहाँ गिरता होगा।
तीन सौ पैंसठ बार
कनपट्टी पर
बंदूक़ टिक जाती है :
उत्सव मनाओ।
उड़ानें गिरती हैं :
तीन सौ पैंसठ बार।
फ़सलें जलती हैं :
तीन सौ पैंसठ बार।
रात को हॉस्टल में एकदम अकेले रहते हुए
अँधेरे ने मुझे अपने सुरक्षित घेरे में ले रखा है
पेड़ पर बैठे उल्लू की आँखों में नई दुनिया खुल रही है
…
दो सौ सत्तर डिग्री घूमती नज़र
दिल के आकार का चेहरा
चार उँगलियाँ
तेज़ कान
बाल
दाढ़ी
और जादुई आवाज़ों की यह रात
मैं डूबती जा रही हूँ…
पत्तों से छनकर
मेरे बिस्तर पर आने वाले दिलफ़रेब चाँद,
देखो,
उल्लू की कलाओं ने मुझे कैसे बचा रखा है।
कमल जीत चौधरी हिंदी कवि-लेखक-अनुवादक हैं। उनके दो कविता-संग्रह और कविताओं का एक चयन प्रकाशित है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : सिवाय कविता के मैं किसी का प्रिय कवि नहीं हूँ
जैसे लंबी कविता को सँभालना पड़ता है,वैसे ही छोटी कविता को भी ; लेकिन छोटी कविता में शिल्प को साधना कुछ अधिक दुष्कर है।
ये कविताएं, एक सहज उदाहरण हैं, कि कैसे शिल्प में विचार और संवेदना यकसां बुनी जा सकती है।
अप्रतिमम, अतुलनीय।
अग्रज, हार्दिक धन्यवाद। यह टिप्पणी सहेज ली है।
: कमल जीत चौधरी
बहुत सुंदर और गंभीर अर्थ लिए कविताएँ!
सत्यव्रत रजक जी, प्रणाम। इस स्नेह से अभिभूत हूँ।
बहुत ही बढ़िया है। जिसके लिए आप साधुवाद के पात्र हैं। सम्माननीयों
हार्दिक अभिनन्दन एवं शुभकामनाएं सम्माननीयों जय हिन्द
अग्रज, हार्दिक धन्यवाद। आपको भी शुभकामनाएँ।
कमलजीत चौधरी के पास अपनी बात कहने की गहरी समझ है। संक्षिप्तता उसकी ताक़त है। शब्द उसके यहाँ किसी बोझ की तरह नहीं रहते बल्कि उसकी कविता को लय और गति देते पंखों की तरह लगते हैं।