कविताएँ ::
निशांत कौशिक

निशांत कौशिक

एक

पहले नहीं थी
रचनात्मक बदहवासियों के सुथरेपन में कोई रुचि

नशे के अंतरालों में
टुकड़े बटोरे एक ही कविता के
अरसे तक

अक्सर देर रात पहुँचा हूँ
जहाँ मुँह पर गिर पड़ते थे
मुक्ति के दरवाज़े
फिर नींद थी

मिल चुका है मेरा राग

मिल चुका है मेरा ईश्वर मुझे

धूप में सूखते रहने के लिए
अलगनी मिल चुकी है

जिनको नहीं मिला ये सब
उन पर दया नहीं
उनकी पसंद
मेरे नज़दीक अभी भी निकृष्ट है

उन्हें टोकने का अधिकार नहीं खोया
उनकी बहर दुरुस्त करता हूँ
जाँघ पर हाथ मारकर कहता हूँ
‘यह था सम’

धर पकड़ता हूँ
रँगे हाथों उन्हें
जिन्हें बड़े-बड़े सवालों से निबाह है

निगहबान की तरह
दरवाज़ों पर अब भी हूँ
अपनी ही चौखट तक सब कुछ
खींच घटाकर लाने के अभिजात्य सुख के साथ

मुझे मेरा राग मिल चुका है
मिल चुका है ईश्वर मेरा

दो

जीवन का अर्थ
अर्थ की तलाश में मिली असफलता है
यह बात मुझे नौकरी पर ऊँघते हुए सूझी
छुटपुट तथ्यों का खुलासा होता रहा
जब हाथ और कंधों
दोनों पर कोई वज़न न था
अब मुझे अर्थों से ही सबसे अधिक ऊब है
लिखने में
मैं केवल अनंत को गुदगुदाने का इच्छुक हूँ
अब भी मेरे लिए
छत पर अचार सुखाने का कोई अर्थ नहीं है

तीन

हैरान होने के सिलसिले ख़त्म नहीं होते
जब पहाड़ों से लौटता हूँ
एक फ़िल्म इंतिज़ार कर रही होती है घर पर

सोचकर मैं भी निकला था
कि बर्फ़ के पुलों पर चलूँगा नंगे पैर

लौटकर सभी संसार अस्त-व्यस्त मिलते हैं

कुछ दिन रहो भी
वहाँ अगर ढंग से
जहाँ रहना ही है
दीवारें आँत हो जाती हैं
चश्मा हो जाती है
हॉल में गिरी धूप

ज्यों ही बचाते हो एक घोंसला
कुछ और बचाने की गुहार शुरू होती है
फिर न बचा सकने का मातम

क्या ही बचाता
सौंधी खुशबू की शीशी भी
मूलचंद में बिकती है

सभी जान छिड़कने वाले
इस पर भी जान ही छिड़कते हैं

हैरान होने के सिलसिले
ख़त्म नहीं होते
हज़म नहीं होती
प्रश्नोत्तरहीन स्थिरता

चार

अच्छी नींदों से दूर
फड़फड़ाते हैं सभी ज़रूरी स्वप्न
जब-जब लगता है
अब सध गया सब
उसके अगले क़दम
छाप होती है जीवन की

पाँच

एक जीवन की कल्पना के लिए
स्थगित करता हूँ यह जीवन
कि जीने की तैयारियाँ
कभी-कभी जीने से हसीन लगती हैं।

छह

हम
किसी आख़िरत के लिए तैयार नहीं हैं
हर अंत चौंकाता है
सारी तैयारियों के बावजूद

फूलों पर उतरती तितली की तरह
या
गहरे कुएँ से लौटती बाल्टी की तरह
नहीं खुलता अंतिम सत्य

पूरा एक जीवन लगता है
पचाने के लिए
यह बात
कि हमसे पहले बहुत कुछ था
रहेगा हमारे बाद भी

समय की इस मियाद में
गीली रेत पर
घिस कर खींचा गया नाम है
यह जीवन

अगर कुछ न समझ आया
इस दफ़ा भी
तो
लौट जाऊँगा
किसी स्त्री की नाभि से वापिस
जीवन से दूर
मृत्यु से परे

मुझे और सिर चाहिए
और रीढ़ तो कितनी
इस दुनिया को गहराई से गले लगाने
या तंग आकर छोड़ देने के लिए

बहुत ख़ुशी में माँगने से मिलता नहीं पुनर्जन्म
न बहुत दुख में फेंकी जा सकती है यह उम्र

जीवन और संसार केवल ईश्वर का जुआ नहीं है

सात

पीड़ा भोगने के पहले
उस पर प्रशंसा-काव्य लिखे

जीवन छूता
उससे पहले ही
चमत्कृत हो उठा

सुखों के केवल रोम छुए
और दीं
उसके स्पंदन पर व्याख्याएँ

पीड़ा मैंने जानी बहुत
भोगी इतनी कम
कि किसी छंद में कस गई

प्रेम हुआ
तो जा बसा
बीत चुकी कविताओं में

खेल-खिलवाड़ वाले आँगन
और
सुबहों के रोमांच ने मुझे जगाया

बाद उसके सोया किया एक पीढ़ी भर

जो गुज़रना था भीतर
मैं उसके बीचोबीच गुज़रा
यह जीवन,
जीवन के बिल्कुल निकट से गुज़रा

आठ

देखते रहने के लिए
हमेशा चाहिए एक चाँद
जिसके लिए बाँस
और घास बढ़ते रहते हैं ऊँचे
रात भर
जो उतरे कविता में बारहा
जिसकी तरफ़ देखकर
बर्फ़ के गोले जितनी
ठंडक पहुँचे आत्मा पर
सौंदर्य उस मोड़ से हमेशा आगे है
जहाँ हम अभी-अभी पहुँचे हैं
हमें चाँद की कल्पना भी चाहिए
केवल चाँद ही नहीं

नौ

तुम्हें याद करूँ
तुम्हारा संसार भी चला आता है
परदे और बर्तन
डिस्टेंपर पुती दीवारें
मर्तबान
और उड़द से बनने वाला
सब सामान

मैं बस ख़ुश हूँ
कि इन सबके बीच
तुम्हारे बग़ैर रह भी लेता हूँ

पहले तो इतनी किताबी थी विरह
कि दुख में भी
प्रतिनिधि रचनाओं में
ढूँढ़ना पड़ता था
मेरी मनःस्थिति वाला कवि

दस

सौंदर्य की आपाधापी है
हारमोनियम पर हत्यारे हैं
उन सबको पसंद है
महलर, वैगनर और मोजार्ट
वह भी फूल की व्याख्या पर लड़ते हैं
उन्हें भी ग़रज़ है सोनाटा और नॉकटर्न से
कुर्ते पहनते हैं
इकतारा बजा सकते हैं

हमारे पास भी जासौन और कनेर है
हम भी
वही सुनना चाहते हैं
जिसे बीथोवन
बिना कान के सुनता रहा
और हत्यारों को कभी सुनाई नहीं देता
हम सौंदर्य के पीछे ही नहीं
परे भी जाना चाहते हैं
हम भी
पानी पर नाम लिखकर हारे हैं
हमारे पास
कोई ऐसा सुझाव नहीं
जो बंदूक़ की गोली की तरह
खटाक से निकले

हमारी धुनें हमेशा वही रहेंगी
हमारा प्रेम
आदमी का आदमी के लिए
वही का वही
भले ही हारमोनियम पर हत्यारे हैं


निशांत कौशिक की कविताओं के प्रकाशन का ‘सदानीरा’ पर यह प्राथमिक अवसर है। उनका गद्य और ख़ासा अनुवाद-कार्य ‘सदानीरा’ के लिए चमक और रोशनी की तरह रहा आया है। निशांत ने गए कुछ वर्षों में बहुत शांत ढंग से कविताएँ लिखी हैं। वह फ़ेसबुक पर नहीं हैं। शोर में संकोच में रहते हैं। कविताएँ भेजते हैं, प्रकाशित करने के लिए मना करते हैं। देर रात गए भेजे गए उनके संदेश सुबह डूबे (डिलीट) हुए मिलते हैं। वे कविताएँ होती हैं। बहरहाल, अब उनकी दस कविताएँ ‘सदानीरा’ ने सँभाल ली हैं। उनसे kaushiknishant2@gmail.com पर बात की जा सकती है।

2 Comments

  1. मुमताज़ इक़बाल सितम्बर 21, 2023 at 8:29 पूर्वाह्न

    बहुत सुंदर और अर्थपूर्ण कविताएँ हैं आपकी निशांत भाई
    हर वाक्य और हर विचार/भाव सुंदर अपने आप तो है भी और सुंदरता के प्रति कोई एक सुंदर बात मन में जगाता है।

    “पीड़ा मैंने जानी बहुत
    भोगी इतनी कम
    कि किसी छंद में कस गई

    प्रेम हुआ
    तो जा बसा
    बीत चुकी कविताओं में”

    सारी कविताएँ मेरे लिए अर्थ का नया आह्वान हैं
    कि पढ़ो
    कि लिखो
    कि रचो
    और अर्थ की खोज में यात्रा करो!

    Reply
  2. Anchit सितम्बर 23, 2023 at 6:32 अपराह्न

    बहुत सुंदर कविताएँ

    Reply

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