कविताएँ ::
प्राची

प्राची

अंतिम आलाप

कितना और समेटूँ ख़ुद को!
ख़ुद की सूनी-वंचित बाँहों में
धूप का छुआ मेरा रंग
कपड़ों के इस पार तक ही है
तुम्हारे छूने की लालसा
अंतस को कचोटती
अँधेरे में सकुचाती
और सर्वस्व त्याग देने को खड़ी—
ध्यान-मुद्रा में

पेड़ो-पहाड़ो-जानवरो-बच्चो,
कोई तो मेरी देह अपने तक खींच लो,
ख़ुद के भार से मैं धँसती जा रही हूँ

अंतिम आलाप का आख़िरी सुर
जहाँ न पहुँचे
वहीं कहीं छुपी बैठी हूँ।

रत्ती

रत्ती-रत्ती मानो सोने की राख हो
सहेजती हूँ
छोटे पड़े कपड़ों की सिलाई की तरह
उधेड़ते
मिट्टी के ढेले को चूरा करते
चूल्हा लीपते हुए
बची हुई राख को
उदासीनता से निहारते मेरी आँखें
दुखों का फ़ेब्रीकेशन देखती हैं
चोटिल छिपकली झाँक रही है
देख रही है—
मैं कितना खींच सकती हूँ
दोनों होंठों के सिरों को
कानों तक
कि हँसना अभिशाप बन जाए!

विकृत होता स्वर
कड़ुआ होता साग
और लपलपाता गिरगिट…
किससे नज़र हटाऊँ
कि अपने नाख़ूनों की राख धोकर
वापिस से लगा पाऊँ
वही आग
जो बुझती नहीं।

अनंत की गिनती

किस कोने में छुपा है?

दस तक गिनते हाँफने लगती हूँ

कुछ अच्छा होने का स्वाँग रचना भर जीवन है क्या

संभावना और समर्पण के बीच लटकी हूँ
खटकती हूँ सभी मानवीय संकेतों से भागती हुई
साँझ-सवेरे
एक मुट्ठी धान छुपा लेती हूँ
अकाल के दिनों के लिए
भूखे
बेबस
दिन
ताकि हम एक दूजे को न खाएँ
कितनी ईर्ष्याएँ समर्पित की हैं मैंने
तुम भागते हो
मैं छुप जाती हूँ
तुम अनंत तक गिनते हो
और नहीं आते।

असहाय विचार

अपने सबसे असहाय विचारों में भी
ऐसे ईश्वर की प्रार्थना मत करना
जो उसका भी हो
जिसने लाखों हत्याओं को अंजाम दिया
कभी सुमिरन मत करना वे मंत्र
जो अस्पताल की बेंचों के बाहर
अँधेरे कोनों में
काँपते होंठों ने पढ़े
और गँवा दी अपनी आख़िरी आस

अपने सबसे क्रूर विचारों में
डरना उन मासूम बच्चों से
जो बंदूक़ की नलियों के सामने
बमबारी के शोर में भी
जीने और जीवित रहने की ईक्षा नहीं छोड़ते
एक युद्धग्रस्त क्षेत्र के बच्चे ने कहा था
उसे चीनी खानी है
जान के बदले जान माँगने वालों के ईश्वर
इनके ईश्वर के मित्र नहीं होंगे
वरना वे भी कहते
कि बंदूक़ और बमों को दफ़नाकर
हम फल क्यूँ नहीं उगाते!

कटहल

एक

कटहल के जंगलों की तरफ़ भागते हुए
वर्षा की कामना करना
मृत्यु की कामना करना है
स्वचयनित मृत्यु
तुम्हारी तरफ़ भागते हुए पीछे देखने जैसा
कि पलक झपकाई और तुम ओझल
इसी भागने-भगाने के खेल से मुक्ति हेतु
माँ ने आँगन से सारे कटहल उखाड़ दिए
कहती है बिजली गिरती है
तुम्हें भी ऐसे बहाने देना
मैंने माँ से ही सीखा है

कटहल के जंगलों की तरफ़
भागते हुए सोचती हूँ
तुम ऐसे ही आ गिरो मुझ पर—
गाज की तरह
चमकते हुए
थरथर काँपते एक झटके में तुम्हारा नृत्य
दूसरे में देह तुम्हारी।

दो

कटहल में फूल नहीं लगते
बस कटहल लगते हैं—
भारी-भरकम

मेरे कंधों की जगह कटहल की टहनियाँ हैं
एक तुम तोड़ लो
बाक़ी किसी और को दे देना

लेकिन अब मैं थक चुकी हूँ
इन जंगलों में भागते
कुछ दिखाई नहीं पड़ता

तो आ जाओ ना
बरखा-बिजली-गाज-सावन
मेरा शब्दकोश बहरा हो चला है
आ जाओ न…
कि आँखें अब देखने से मना करती हैं
साँय से चमककर
भाग जाओ
आसमान में मिल जाओ
जैसे कभी आए नहीं
बस एक क्षण के लिए
अपनी उपस्थिति दे जाओ
क्योंकि तुम ईश्वर नहीं!

सवाल

कैसा जीवन?

हम कितने सालों का पुआल इकट्ठा करेंगे?
हर बछड़े के मरने पर हम क्यूँ रोते हैं?
उसके मरने पर तुम क्यूँ नहीं रोए?
अब तक गिनती कहाँ पहुँची?

सबके मरने पर हमें सोचना होता है
कि किसे सोचकर रोएँ

इतनी दूर हूँ—
कैसे पहुँचूँगी तुम तक
कौन रोकेगा उन्हें मेरे आने तक
कि तुम रुक जाओ…
बरसात में बाढ़, टूटते पुलों, धँसते पहाड़ों और ट्रेन हादसों से ज़िंदा बचकर तुम तक पहुँचना कितना कठिन हो चला है

हमारे पास साधन कम और सीमाएँ ज़्यादा हैं

मेरे आने तक
वहाँ से क्या-क्या चला जाएगा?
जिन्हें रोकना किसके बस में था?

पिता की मृत्यु के लिए कामना-पत्र

अप्रिय पिता,
पिता कहलाने वाले सभी साँचों से तुम
अविश्वसनीय ढंग से
विचलित करने वाले लार की तरह थूक दिए गए
इतनी घृणा है तुमसे
कि तुम्हारे बारे में सोचने की सोच भी
हृदय को मितली से भर देती है
किसी व्यक्ति से
इतनी घृणा के लिए
कितनी ऊर्जा लगती है!
मेरे चेहरे के उड़ते रंग से तुम समझ सकोगे
तुमने कितने कष्ट दिए
और कितनी कृपाएँ की होंगी मुझ पर
कि मैं तुम्हारी मृत्यु की बाट जोहते बैठी हूँ
तुम्हारे पैरों के नाख़ून जैसे हैं मेरे नाख़ून
जो तुम्हारे लगाए हर इल्ज़ाम को झुठलाते हैं
जी करता है हर नाख़ून उखाड़ फेंकूँ
सात बरस की उमर में जब पहली बार
तुम्हें ज़हर देने की योजना बनाई थी
तब अचानक मैं इक्कीस बरस की हो गई
इक्कीस में इकतीस बरस की चिंताएँ
हमारे सड़ते संबंधों की उम्र थी
तुम्हारे मरने पर जो आँसू बहते
वो तुमने मेरा सिर पटक-पटककर
आँगन में ही झाड़ दिए
इस जन्म में किए कर्मों का फल
इसी जनम में मिलता है
मुझे किन कर्मों का फल मिला?
तुम्हें कब मिलेगा ये फल
सब झूठ है
मेरा ईश्वर
मेरे कर्मों का हिसाब करने से पहले मर गया
तेरे कर्मों की परिधि
नापे बिना
बूढ़ा हो गया
तेरी आत्मा को शांति न मिले!

बर्फ़

जीवन की पहली बर्फ़
गोले के ठेले पर देखी
और आसमान से उतरने वाली बर्फ़
सीधे सीने में उतरी
तुम तो थे न
हाथ थामे
डरते-सहमते की लोहे के पुलों पर जमी बर्फ़
हम दोनो को न ले डूबे
अब सिर्फ़ ठेले भर बर्फ़ के सामने बैठ
तुम्हारे ठेले पर हिमालय की बातें याद करती हूँ
तुम हमारे प्रेम की तुलना साही से करते हो
साही सर्दी से बचने के लिए
एक दूसरे के पास जाते
और काँटों से ज़ख़्मी हो वापिस दूर
बर्फ़ से डरकर जब मैं तुम्हारे पास आती
तो बर्फ़-सी दमकती
तुम्हारी देह को देखते रह जाती
रूई-सी बर्फ़
हमारा छाता कहाँ से लिया था हमने?
एक कहानी कितनी बार सुनाई मैंने?
सीने में ठंड उतर रही है
मैं बर्फ़ में दफ़न हो जाऊँ?
‘‘तुम कितने सवाल करती हो?’’
अच्छा घर चलें?
घर से दूर जीवन अच्छा
और मृत्यु घर को अच्छा बनाती रही
बर्फ़ गिरने लगी है
धीमी-धीमी
धीमे-धीमे
बादल श्वास-नली से
फेफड़ों और फेफड़ों को पार कर
हृदय में उतर रहे हैं
देवदार लद चुके हैं—
उनके भारों से
मेरे सीने की तरह
जहाँ बर्फ़वाले जूते पहनकर
तुम आ सकते हो।

पारिजात

झुकते हुए कंधों और निराश आँखों से परे
हम एक अलग दुनिया कैसे बना सकते हैं?

लाई के गुच्छों की तरह लटकती पारिजात की कलियाँ
जैसे मध्यरात्रि तक छिदरकर
भोरे-भोरे भुइयाँ लोट हो जातीं
किसी हारी हुई रानी-सी लगती
बाँह भींच उठाती हूँ
कोमल संतरी बाँहें
मेरी रातरानी
राजा के जाने पर राज्य की माँ बन
राज किया जाता है
ऐसे भूमि से लिपटकर रोने वाली
तुम नहीं हो सकतीं
वार्ता ख़त्म होने से पहले
बिखरी पारिजात की कलियाँ बुहार दी जातीं
और रात की लाई मुरझाई-सी झाँकती
अपने पूर्ण सौंदर्य की प्राप्ति से पहले
अपना अंत देख लेती
और सूनी छिदरती ख़ुशबू के बहाने कंधे पर बैठ पूछती,
झुकते हुए कंधों और निराश आँखों से परे
हम एक अलग दुनिया कैसे बना सकते हैं?

स्मृति-पत्र

नरवा के पास खड़ा
विशाल-घना
सुंदर फलों से लदा
खेत आने-जाने वालों के लिए
ठौर बना
काइत का पेड़
उसको कटे छह साल हो गए
तुम्हारे जाने के बाद याद आया
कि वह कभी यहीं था

तुम मुझे कभी मेला-हाट-बाज़ार नहीं ले गए
पर साइकिल पंक्चर हो जाने पर
हेलमेट पहन मुझे
इसकूल छोड़ने के लिए ख़ूब तैयार रहते
छह बरस की तुम्हारी पोती भी
छह बरस बाद उस काइत के पेड़ की तरह
तुम्हें भुला देगी?
या तुम छिपकली बन
अपनी हार चढ़ी तस्वीर के पीछे से मुझे झाँकोगे?
तुम्हारी बेटियाँ और बेटा
तुम्हारे जाने के बाद वैसे ही दिखते हैं
मेरे बारे में भी वे ऐसा ही सोचते होंगे
तुम्हारे जाने के बाद
जब मैं नहीं रोई
तो मुझे वो सभी गालियाँ सुनने मिलीं
जो तुम बिस्तर पर पड़े-पड़े
मुझे फ़ोन पर दिया करते थे

तुम जिस नदी के किनारे जाकर लेट गए हो
मैं उस दिन से नदी में नहाते वक़्त
चोरी से बहाना कर तुम्हें ढूँढ़ती हूँ
तुम सात फ़ीट भीतर हो—
सफ़ेद कुर्ते में
सफ़ेद रेत के नीचे
मेरी धुँधली आँखें तुम्हें कैसे ढूँढ़ें?
अभी तो मेरी क़मीज़ से
तुम्हारा ख़ून धुला भी नहीं था
तुम्हें जाने की जल्दी थी?
कष्ट था?
मैं हत्यारी हूँ?
मैं हत्यारी हूँ!
मुझे मदद लेनी चाहिए
मुझे मदद करनी थी
मुझे?
तुम आओगे?
शाम हो गई है
साल भर से
जहाँ तुम्हारा सिर था
वहाँ मैं दिया रख रही हूँ
तुम देख रहे हो?

प्रेम-पत्र

संवेदनाओं और प्रेम से भरे मन में
आना तो ईर्ष्या की तरह मत आना
आ जाना शीत में वर्षा की तरह
आ जाना कि राह तकते बैठी कुम्हारिन को
धूप नहीं मिली
आ जाना कि उदास-सी शक्ल लिए घूमती हूँ…
बस देखो और चूम लो
आ जाना सारी सीमाएँ लाँघकर—
वीज़ा-पासपोर्ट और रिजर्वेशन की चिंता किए
पैदल चल लेना मेरी तरफ़
कि इधर से पैदल चलने की क्रांति मैं कर दूँगी
बस आ जाना जैसे आती है
दिन भर की थकान के बाद
तुमसे बात करने की तीव्र ईक्षा
जैसे जागती है पहली तितली
ओस से लदी
आ जाना कि
आने से ही होगा
तुम्हारा और मेरा थोड़ा-बहुत भला
और बहुत-बहुत नुक़सान दुनिया का

रामकुमार तिवारी के लिए

ओ ओलंका,
चेख़व मानवीय अभिव्यक्ति के लेखक हैं
झूठी मुलाक़ात में ये एक किरदार
अंदर तक घर कर गया

ओलंका डार्लिंग,
तुम ख़ुद से प्रेम करो न
तुम कितनी भोली हो
या बेवक़ूफ़
कितना प्रेम दोगी?
दे पाओगी?
आख़िर तक?
तुम थकती नहीं ओलंका?
तुम थकती हो?
संभावित लेखक…
ओलंका क्या तुम मुझसे इतना प्रेम कर पातीं
कि दूसरे संग-समागम तक से न डरो
बस मुझ तक आने के लिए?
तुम कर सकती हो इतना प्रेम—
बिना प्रेम की अपेक्षा किए?

तो उन्होंने बताया ही नहीं न
कि उसने अपने बच्चे के लिए
जब दुनिया भर का प्रेम माँगा
और उसे पता लगा कि ये वरदान नहीं
अभिशाप माँग लिया है
तो फिर क्या हुआ?
उसके बाद?
उसने प्रेम करना नहीं सीखा न?
वह जीवन भर ऐसे ही कठोर बना रहा?
तुम्हें नहीं लगता—
हम सबकी माँओं ने एक साथ ये माँगा हो
कि उनके बच्चों को पूरी दुनिया प्रेम करे
और हम सभी अभिशप्त हो गए हों—
जीवन भर के लिए…


प्राची की कविताओं के प्रकाशन का ‘सदानीरा’ पर यह दूसरा अवसर है। यहाँ अगर इसमें अतिकथन न तलाशा जाए, तब कह सकते हैं कि आख़िरी बार हिंदी संसार में इस प्रकार की कविताएँ प्राची ने ही संभव की थीं। इस वक़्त में, जब तमाम कविताएँ इस क़दर सामने हैं कि उनका सामना करने के लिए कोई सफ़र नहीं करना पड़ता, हम—हिंदी साहित्य के ग्राहक—कविताओं से पल-प्रतिपल सूचनाओं की तरह गुज़रते रहते हैं। इस गुज़रने में कविता के साथ हमारा संबंध कुछ ज़्यादा ही सहज हो गया है। यह ध्यान देने योग्य है कि इससे कविता की आवश्यकता, उसकी आविष्कारशीलता और उसकी महत्ता तीनों ही प्रभावित हुए हैं। इस स्थिति में यहाँ प्रस्तुत कविताएँ कविता के साथ हमारे उस जटिल रिश्ते की खोज हैं, जिसे पहले कवि पाता है और फिर पाठक या श्रोता। इस प्राप्ति तक कविताएँ कई बार स्वीकृत-अस्वीकृत होती हैं। वे पढ़ लिए जाने के सुख और न पढ़े जाने के अवसाद में खो जाती हैं। उनके कवि अपनी अस्मिता अर्जित करते हैं या इसकी प्रतीक्षा करते हैं। उनकी कविताएँ दुःखों और संकटों के विश्व में विचरण करते हुए उन्हें दर्ज करती रहती हैं। इस स्थिति में कहना आप-ही-आप आता-होता है, कला की ज़रूरत कम बहुत कम पड़ती है। ‘सदानीरा’ पर इससे पूर्व प्रकाशित प्राची की कविताओं के लिए यहाँ देखिए : प्यास से जन्मी ‘मैं’ का पहला और अंतिम स्वप्न पानी था

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