कविताएँ ::
प्राची

प्राची

पानी

प्यास से जन्मी ‘मैं’ का
पहला और अंतिम स्वप्न पानी था
बालपन में आश्चर्य रहा यह—
युवती हो जाने पर
कोई मछुवारा या तैराक होगा मेरा प्रेम
मेरे गर्भ में पत्थर
मोती नहीं बनेगा
चूँकि मैं प्यास से जन्मी अभागी
भ्रूण सींचने के लिए पानी कहाँ से लाऊँगी
किसी बाढ़ में डूबते व्यक्ति,
बहते घर और पशुओं को देख
अपने स्वप्न पर घृणा होती
पर नदी के लिए प्रेम
मुझे और अभागा बनाता
मैं जब भी खरखरा1एक नदी को देखती
ख़ुद को देखते हुए देखने से भय लगता
जो मुझ देखते हुए को धकेल देना चाहता
फागुन में नदी पार उठता
भाँय-भाँय सन्नाटा
संगीत है
नदी किनारे गड़े सभी पितृ
जो कभी भूख
कभी अकाल से मरे थे
मुझे मेरे सपने के लिए मरता देख दु:खी हैं
मैं ख़ुद को थोड़ा और झुका हुआ पाती हूँ
छूने की कोशिश में
माया की जननी को
जो छलती है
अपने में समा लेने का लालच देकर
जबकि जानती हूँ
आख़िर में मेरी देह
यह भी त्याग देगी।

रेत की स्मृतियाँ

नानी कहती है—
सामने बहनी वाली खरखरा ने
बहुत जीवन देखा है
कैसे गाँव वालों ने
बाढ़ में बहकर आए शेर को मारा
सिर्फ़ भालों और कुदाल से
भूखा-प्यासा भन्नाया शेर
इन लोगों के सामने लाचार
आख़िरी साँस तक लड़ा
इसमें कुछ ज़ख़्मी हुए
फिर उसे नाँदगाँव बाज़ार में
पंद्रह सौ में बेच दिया

उसके अगले साल जब सूखा पड़ा
भरी दुपहर एक विधवा
अपना बच्चा ले निकली
मायके का रास्ता
नदी के सहारे मापती
पैदल-भूखी-प्यासी
पाँच साल का बच्चा
तपती रेत
दोनों रोते
और सिर चढ़ती लकलकाती धूप
उन्हें चुप करवाती
रेत-अंगार की नदिया
और आसमान
आग की चादर
विधवा के अंदर से माँ मरी
और तपती रेत में
अधजले पाँवों ने नीयत बिगाड़ी
बेटा ज़मीन पर लिटा
वह उस पर खड़ी हो गई

जा देख आ नदिया पार
आज भी दोनों रेत में सोए हैं

इतनी मृत्यु-कथा के बाद
मैंने रेत की जीवन-स्मृति के बारे पूछा
गाँव की दीवारें चटख़ उठीं
मुझे नदी की ओर धकेलतीं
एक बोरी रेत की तरफ़
थोड़ा और जीवन जीने को
नानी से छुटकारा पा
किसी पुरुष से पूछने का जी करता है
उन्हें कहाँ दफ़नाया?
किस किनारे?
कौन-सी जगह?
कौन-सा ठौर?
कितनी मिट्टी?
कितना नमक?
कितनी गहराई?
रेत की स्मृतियाँ
मुझ डूबते हुए को
केवल मृत्यु-कथाएँ सुनाती है।

स्मृतियों की आकृति

स्मृतियों के खो जाने पर
कैसे पूछूँगी वह कहाँ गई?
नाक, कान, पूँछ, गला,
स्मृतियों की आकृति
आयत, वृत्त, त्रिकोण, बिंदु
भूरा, गेंहुआ, सफ़ेद
या हड्डियों-सा काला
किसी तबले की बेसुरी थाप सुन
उसकी प्रतिक्रिया की स्मृति कैसे होती?
सफ़ेद कुर्ते वाले उसकी आत्मा जान पड़ते हैं,
नमकहराम!

उसकी स्मृतियाँ
घर में टँगी पैतृक तस्वीरों की
त्रिज्या में होंगी
उसकी पीठ के टाँकों पर
अब मेरी पीठ लेटती है
उसके न होने पर
जब भी होंठ सूखते हैं
देह काँपती है
स्मृतियाँ उभर आती हैं
बिना किसी चेतावनी
एक सुखद खुजलाहट
गहरा निशान
असीम पीड़ा…

पीड़ा

पीड़ा निरंतर बढ़ती रही
जाड़े की रातों की तरह

मोटर रोड छोड़
सँकरी गलियाँ पकड़ीं

ये पहाड़—
इनके जंगल और इनका सन्नाटा
उठो इन सारे दुःखों को इकट्ठा कर
खींच दो एक हिमांत रेखा
जाखू से तारादेवी तक

फिर हँसो ख़ूब ज़ोर से
कि बर्फ़ गिरने लगे

लाल टिन की छतें
धूप में पीली पड़ रही हैं
बिल्कुल तुम्हारी देह की तरह

वसंत आकर चला गया
और तुम अपने शरीर से बड़े कपड़ों से
समाज ढकती रहीं।

आँगन

घर की परिभाषाओं में
आँगन, कपाट, फुला, पटनी के अलावा
अमरूद का कटा तना भी याद आता है
बँटवारे की आग में होम करते जीवन
घर छूटते ही छूट गया
आत्मा का एक टुकड़ा
आँगन में गड़ी नाल के साथ
जो चौड़ीकरण में महँगा बिका
पैसे आँगन संग उड़ गए
पुरखे कहाँ गए
यह अमरूद की शाखाओं को पता था
पोतों का पता जड़ों को होगा
मेरा पता
आँगन को था
घर-घर खेलने की उमर में
गोबर लीपते
घर सजाती लड़की
घर जाने को
भोरे-भोर
बिन पता खड़ी हो जाती है।

चार के फल

वसंत आने पर झरते पत्तों संग
नहीं झर पा रहा है
लबालब संवेदनाओं से भरा मन
टप-टप झरते सेमल
टप-टप झरते आँसुओं से
जीतने की लालसा में
अपना रंग आँखों में भरते रहते हैं
ऐनक पोंछती हूँ तो
बीता कल पलकों पर पत्थर मारता है
मेज़-कुर्सियों से भरे घर में
बिस्तर से जितना झाड़ूँ
अनिद्रा नहीं झड़ती
एक कोने में खड़ा अवसाद
उस छोर से आवाज़ लगाता है
जहाँ झाँकना भूल चुकी थी
अब बस वही सिरा दिखता है
वहाँ चार के अंबार में
मैं अटी पड़ी दिख रही हूँ।

हसदेव

एक

उस ओर उजाले की तलाश में
चलती धरती ने
जब उजाले की मिथ्या भंग की
मनुष्य त्राहिमाम-त्राहिमाम करते
सूर्यदेव तक पहुँचे
सूरज ने तपते हृदय से तंज़ किया
पृथ्वी चंद्रमा से दूर होती जा रही है
मेरा ताप पृथ्वी को आघात पहुँचा रहा
प्रेम की पराकाष्ठा का क्या करूँ
हे मनुष्य!
अपने भद्र देवों से पूछो
पूछो—ग्रीक, चीनी, यूनानी देवताओं से
कहो इंद्र से—
वह जर्मनी में जर्मन सीखे बिना
प्रवेश नहीं कर सकते
दक्षिण कोरियाई तुम्हारा बहिष्कार करेंगे
सबकी अपनी सभ्यताएँ जंगलों से निकलकर
जंगल काटने लगी हैं
भागते पशुओं को भूनकर
विलाप किया जा रहा है
तुमने मेरी क्रियाओं से प्रेरणा लेकर
एक कण में कई ईश्वर भर दिए
जिन्होंने जापान से वियतनाम और
सीरिया से ग़ज़ा को मोक्ष-द्वार पर खड़ा किया है
मेड इन अमेरिका का लेबल
तुम्हें विचलित नहीं करना चाहिए
विष्णु कितनी बार अवतार लेंगे
तुमने तो हर नेता को कल्कि बताया है
नारायण निर्विकार भाव से नाराज़ हैं
प्लास्टिक देवता अमर हैं
उनकी आराधना कीजो
नदियों की दिशा बदल
आज मनुष्य किसी देवता से कम थोड़े ही है
पर्वतों के नामकरण से लेकर
सीमा-रेखा में मरते प्रवासियों के
आँकड़ों को दर्जा देने तक
किसका कितना
और कौन आतंकवादी
कौन बेगुनाह
सब निर्धारित तो तुम ही करते हो
तो मेरे प्रकोप से बचने हेतु
मुझे अर्घ्य दीजिए
तुम्हारी हर मनोकामना पूरी हो,
कामी!

दो

कामना से हसदेव याद आते हैं
अपने बच्चों की कहानियों में
उनका इतिहास दोहराऊँगी कि
उनके परपोतों के काल में
हसदेव का कोयला इस्तेमाल होगा
जो मुझे इक्कीसवाँ साल लगते ही कटने शुरू हुए
जिसकी खुदाई आदिवासी औरतों के सीनों
और पुरुषों के सिरों को कुचलकर की गई
उनके गमछे के पसीने
और आँखों का पानी
अब इसी मिट्टी के अंदर समाहित है

कई हज़ार साल बाद जब
यह धरती फिर खोदी जाएगी
तो इसमें से तेंदू तोड़ने पेड़ पर चढ़े बच्चे
महुआ तोड़ने गई औरतें
और सुअर चराने गए उनके पतियों
या सरकार के आँकड़ों और प्रमोशनों के मुताबिक़
तथाकथित नक्सलियों की देह के कोयले मिलेंगे
ये कोयले आने वाले हज़ारों सालों तक जलते रहेंगे
ताकि कोई और हसदेव न कटे।

सहेली को स्मृति-पत्र

मेरी द्रौपती,
मुझे डर लग रहा है
मेरी स्मृतियों से तुम मिटती जा रही हो

तुम्हारा साँवला चेहरा और
दसवीं की बोर्ड परीक्षा से निकलते ही
तुम्हारी बड़ी-बड़ी पीली आँखें
मुझे आज भी याद आती हैं

तुम्हारे काले पड़ चुके होंठ
जिनसे तुमने कहा था—‘ठीक हूँ’
तुम्हारे काँटों से धँसे हाथ
जो खेत में काँटे बीनने की
कथा कह रहे थे…
मुझे डराते हैं

यही डर तुम्हारी स्मृतियों को
दिमाग़ के किसी अँधेरे कोने में घसीट रहा है
गर्मियों की छुट्टियों में तुम
हमें छोड़कर चली गईं
तुम्हारा नाम किसने कटाया स्कूल से?
माँ तुम्हारी कैसी दिखती होगी?
तुम्हारे बाद
तुम्हारे पोपले गाल
अब तुम्हारी माँ ने धारण कर लिए हैं?
तुमने ही बताया था न कि
तुम मोहला के जंगलों से
इस छोटे-से क़स्बे में
सिर्फ़ बारहवीं तक पढ़ने आई हो
साथ में नाना-नानी का ध्यान रखने

तुम्हारी सिकुड़ी देह
और घुँघराले बाल सावन लगते ही
ददरिया गाने लगते थे

मेरी द्रौपती,
मुझे तुम्हारे बारे में थोड़ा और जानना था
लेकिन गर्मियों की पीली धूप में पीला बुख़ार
तुम्हें लू के साथ उड़ा ले गया।

तेंदू

सरलता के जंगलों में भटकता बचपन
जब महुआ के दलदल में धँसने लगा
तब तेंदु तोड़ने आई औरतों की हँसी डोरी बनी

जब जंगलों में धाँय-धाँय चलती गोलियाँ डरातीं
तब ददारिया की ताल तुरंत ध्यान खींच लेती
नदिया, नरवा और खेत की मेड़ों पर
डोलने-मँडराने वाला बचपन
धीरे-धीरे सड़ते धान के खेतों-सा होने लगा
टप-टप झरता महुआ
एक जाल-सा लगता
अभी बीनने जाऊँगी
तो कपड़ों वाला जानवर तभी झपट पड़े
नए-नए तरक़्क़ी वाले राज्य
नए-नए बाँध
और उन्हीं बाँधों की वजह से आई
नई-नई बाढ़
नए-नए आतंक
और पक्की सड़क से आते नए-नए जानवर
जिन्होंने एक हाथ से बीड़ी पत्ता छीना
तो दूसरे से रोटी भी छीन ली

ददरिया का दम घुटने लगा
हँसी असहनीय चीख़ों में बदलने लगी
बचपन गाय-गोरू संग बाढ़ में बह गया
बाबा की झूठी बंदूक़ के बदले
नई नौकरी मिल गई
और नई-नई बिजली की ख़ातिर
नया-नया कोयला।

नदिया

एक उम्मीद से नदी की तरफ़ निहारती
बाट जोहती मछली पकड़ने वाली
निषाद लड़कियों की
जिनमें शामिल होती—
एक गोंड, एक तेली,
एक मरार और एक अहीर छोकरी
अपने-अपने कपड़े पचरी में रख
वे उतरतीं घुटने भर पानी में
और पकड़ लेती चारों
एक-एक छोर दुपट्टे का
हो जातीं शांत
मानो बाबू आ गए हों
देखतीं एकटक

अब आने लगी हैं धीरे-धीरे
छोटी-छोटी मछलियाँ
उनकी साँटी में जमी धूल को खातीं

दुपट्टे में अटकी उड़द खाने
पहले आती चिंगरी
फिर कोतरी
फिर मोंगरी
दुपट्टे में धीरे-धीरे बस जाता
मछलियों का छोटा-सा संसार
और पानी से अचानक ऊपर उठ आती
मछलियों की मृगतृष्णा
सब झपट पड़तीं कि
कौन-सी भूँजी जाएगी
किसका साग बनेगा
किसको कोकड़े के लिए छोड़ना है
और कौन-सा वह ले जाएँगी
बोतल में बंद कर घर में रखने को

…तू मछली नहीं खाती
हमारे यहाँ पाप कहते हैं इसे
ठीक है तू छाँट और ले जा
मरेगी तो फेंक देना
दूसरी पकड़ लेंगे
सब अपनी-अपनी मछली बाँधकर
कूद जातीं नदिया में
हो जातीं मछली…

सप्ताह भर में लिखी कविताएँ

एक कविता लिखी प्रेम को
दूसरी तुम्हें
तीसरी प्रकृति को
चौथी वामपंथियों को
पाँचवीं कविता लिखी—
सभी विचलित हृदयों को
छठवीं आज़ादी के नाम
और सातवीं
कक्षा तीन की बच्ची को…

सातों कविताएँ फेंक आऊँ
ट्रेन की खिड़की से फेंके सिक्के की तरह
जो फेंका था महानदी में
और माँगा था—
एक रुपए में सुखी जीवन
जो मिला हो राजिम के किसी
नंगे काले बच्चे को
अस्थि-विसर्जन में ढूँढ़ते रुपयों के साथ
महानदी की झुर्रियों में पत्थर टटोलते
उसने जैसे पाया एक रुपिया
वैसे ही मेरी कविताएँ मिलें
सभी को सभी की तरह…


प्राची की कविताओं के प्रकाशन का यह प्राथमिक अवसर है। वह राजनाँदगाँव (छत्तीसगढ़) की मूल निवासी हैं। ‘सदानीरा’ पर गए छह-सात वर्षों में एक स्थानीयता से संबंध रखने वाले कवियों की कविताएँ समय-समय पर प्रकाशित हुई हैं। इस सिलसिले में पटना, इलाहाबाद, अम्बिकापुर जैसी स्थानिकताओं का ज़िक्र उल्लेख-योग्य है। इन जगहों से आने वाले कुछ बिल्कुल नए कवियों की कविताओं को पहली बार प्रकाशित करने संयोग-सौभाग्य ‘सदानीरा’ के साथ संभव हुआ। इधर अम्बिकापुर के विस्तार को बढ़ाएँ तो छत्तीसगढ़ समकालीन हिंदी कविता का नया राज्य बनता नज़र आ रहा है। यह कहने के लिए हमें बाध्य किया है—यहाँ प्रस्तुत प्राची की कविताओं ने। इस प्रकार की कविताएँ किसी नए कवि के यहाँ हाल-फ़िलहाल नहीं पढ़ी गई हैं। ये कविताएँ हिंदी कविता के सभी मोर्चों पर फ़तह पाती हुई नज़र आती हैं। प्राची से iprachisahu@gmail.com पर बात की जा सकती है।

2 Comments

  1. Akhilesh Singh मई 17, 2024 at 9:26 पूर्वाह्न

    इस कवि में गज़ब का कवि सामर्थ्य है। बहुत कम होता है, लेकिन ऐसे कवि जब दृश्य में आते हैं तो, (उनसे) बहुत रश्क होता है।

    Reply
  2. सत्यव्रत जून 17, 2024 at 4:12 पूर्वाह्न

    कविताएँ जिस सिरे से आ रहीं उनकी जीवटता कमाल है।

    Reply

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