कविताएँ ::
प्रदीप सैनी

प्रदीप सैनी

स्वर्ग के सारे नक़्शे

पहचान में आने से पहले सभी नरक
स्वर्ग हैं
जबकि कोई स्वर्ग कहीं नहीं है
यह दुनिया नरकों से भरी पड़ी है

बहुत से पागल स्वर्ग का स्वप्न
देखते-देखते ग़र्क़ होते रहे
गुज़री कितनी ही सहस्राब्दियों में हर तरफ़
उनमें से कुछ ने स्वप्न में देखे हुए स्वर्ग का
नक़्शा बनाने में अपनी ज़िंदगियाँ खपा दीं
इतने ही वक़्त में कुछ समझदारों ने
दुनिया में
नए नरक पैदा किए

बाद उसके दुनिया में स्वर्ग के नक़्शे थे
लेकिन स्वर्ग कहीं नहीं था

कुछ लोग थे जिन्हें किसी भी नक़्शे पर
अपने हाथों से ज़्यादा भरोसा नहीं था
और वे अपने नरक को
अपनी छोटी-सी छेनी और हथौड़ी से
तोड़ते रहे लगातार
इस उम्मीद में कि
वह भरभराकर टूट जाएगा एक दिन

कुछ लोगों ने क़िस्म-क़िस्म के बीजों की तलाश की
वे युगों से छितराते रहे उन्हें धरती के सीने पर
कि हो सकता है स्वर्ग एक दिन
किसी फ़सल की तरह उग आए

जिन लोगों को नरक से चिढ़ थी
और उससे ज़्यादा चिढ़ इस बात से थी
कि वे इसका कुछ बिगाड़ नहीं सकते थे
उन लोगों ने वाद्य-यंत्र ईजाद किए
अपनी बेबसी की धुनें खोजीं
और यंत्रणा के गीत गाए
उन्होंने बहुतों के लिए
नरक को जीने लायक़ बनाया

बहुत से लोगों ने ख़ुदकुशी की
बहुतों ने किया विद्रोह
जिनसे न हुई ख़ुदकुशी
और न हुआ विद्रोह
उन्होंने कविता ईजाद की

उधर स्वर्ग के सारे नक़्शे समय के साथ
धूर्त लोगों के हाथ लग गए
उन्होंने इतिहास के तहख़ाने में रेड डाली
और काम की चीज़ें निकालते हुए
ये नक़्शे अपनी चोर जेबों में भर लिए
उन्हें ये नक़्शे समझ नहीं आते थे
लेकिन उन्हें चीज़ों का इस्तेमाल समझ में आता था
वे जानते थे लोग अब भी
स्वर्ग का सपना देखना चाहते थे
वे जानते थे कि
उनके पास स्वर्ग का नक़्शा था
जिसे वे नहीं जानते थे
लेकिन वे इस्तेमाल जानते थे
लेकिन वे इस्तेमाल जानते हैं।

मच्छर

एक तोते की रखवाली में कोताही हुई मुझसे
और उसकी गर्दन एक कुत्ते ने मरोड़ दी
उसे पिंजरे की सुरक्षा देकर उड़ान छीन ली थी मैंने
हमले के वक़्त वो पिंजरे से बाहर था पर उड़ न सका

एक रात एक करैत घर में घुस आया
और जहाँ से आया था
वहाँ लौट जाने को तैयार न था
मेरे पास जब कोई अन्य फ़ौरी विकल्प न बचा
तो उसे पीट-पीटकर मार डाला मैंने
हत्या के बाद इतना होशमंद रहा कि अँधेरे में
एक गड्ढा खोदा
और अपने पाप को एक पुराने कपड़े से ढक
उस पर मिट्टी डाल दी

एक बार एक बिल्ली ज़्यादा चालाकी दिखाते हुए
दौड़ते-दौड़ते बीच सड़क अचानक मुड़ गई
और टायर की चपेट में आ गई
मैंने रियर-व्यू मिरर में उसकी लाश देखी
और रुकने का अपना इरादा छोड़
मैं आगे बढ़ गया

ऐसे और भी वाक़ियात हैं जिनका बोझ
आत्मा पर बदस्तूर बना रहा
और गाहे-ब-गाहे मुझे
घेर लेता है

किसी भी जीव हत्या को सही न मानने के चलते
तमाम उम्र शाकाहारी रहा
और पाप-पुण्य का लेखा-जोखा रखता रहा
बावजूद इसके इस बही में कहीं दर्ज नहीं
उन हज़ारों मच्छरों की हत्या जो मैंने की हैं

क्यों?
क्या सिर्फ़ इसलिए कि वे इतने तुच्छ थे
कि उन्हें मैंने जीव भी नहीं माना
और सोते हुए भी उनके हल्की से आहट पर
उन्हें मौत के घाट उतार दिया
बिना किसी ग्लानि के

क्या उनका कोई जीवन नहीं था?
जो मैं जीता रहा अपने किए के लिए
बिना किसी अपराधबोध के

क्या उनकी भनभनाहट इतना बड़ा अपराध था
कि उनकी हत्या न्यायसंगत मान ली गई
या उनका काटना ऐसा अपराध था
कि उन्हें मौत की सज़ा सुनाई जाना तर्कसंगत था

जब शाकाहारी, संस्कारी, धर्मपरायण और दयालु
सत्ता के हाथ पर चिपटी हुई है हमारी खाल
और उसकी हथेली पर चमक रहा है
हमारे ख़ून का धब्बा
तो जानता हूँ मैं
बावजूद इसके सत्ता के चेहरे पर हमारी हत्या की
कोई शिकन क्यों नहीं है।

छलाँग

किसी बाधा से पार पाने के
जतन से जन्मी होगी
छलाँग
और जान बचाने को
जान पर खेल जाने का जुआ
होते-होते
फिर वह एक करतब बन गई होगी

उसकी उपयोगिता को फिर
वहाँ भी आज़माया जाने लगा होगा
जहाँ कहीं कोई बाधा भी नहीं रही होगी
पार पाने को

उसके बाद जल्द पहुँचने
और दूसरों को पीछे छोड़ देने की
एक तरकीब की तरह शामिल हुई होगी
इंसान के जीवन में छलाँग

बचपन में संगी-साथियों के साथ खेलते हुए
मैंने उसे पहली बार जाना
बहुत उकसावे, तानों और मख़ौल के बावजूद
मैं नहीं लगा पाया कभी कोई छलाँग
जबकि वहाँ बहुत छोटी बाधाएँ
और नेड़ी खाइयाँ थीं

वह किसी जुए, तरकीब या करतब की तरह भी
कभी नहीं आई बाद के मेरे जीवन में
वह जैसे भी आ सकती थी नहीं ही आई
जबकि उसे लगाने के मौक़े बदस्तूर आए
जैसे वे आते ही हैं जीवन में हर तरफ़
वे ईमान में आए
प्रेम में आए
कभी-कभी वे विकल्पहीनता की मुँडेर पर आए
लेकिन मैं उसे लगा सकने के लायक़ नहीं हुआ
मैं आज तक जहाँ भी पहुँचा चलकर पहुँचा
उसमें छलाँग का कोई योगदान नहीं

कभी-कभी वह मेरे स्वप्न में आती है
कभी पहाड़ से लगाता हूँ उसे
तो कभी किसी दीवार से
और बिस्तर पर सरक पड़ता हूँ नींद में

क्या सच में
मैं कभी कोई छलाँग लगा पाऊँगा?
या मृत्यु तक भी ऐसे ही चलकर जाऊँगा।

धुंध

धुंध बहुत थी तो मैं बहुत देर तक रुका रहा वहाँ
इस उम्मीद में
कि छँटेगी धुंध तो बढ़ूँगा आगे
इंतज़ार जब लंबा हुआ तो
मैंने धुंध में देखना शुरू किया
कुछ दूर धुंध का एक पेड़ दिख रहा था
मैं उसे पेड़ की तरह देखने के लिए
धुंध के रास्ते पर चल पड़ा
जब उसके पास पहुँचा
तो वह मुझे एक पेड़ की तरह हरा मिला
दूर कहीं से उड़ती हुई एक धुंध की चिड़िया आई
और उस पर एक चहचहाती हुई
चिड़िया की तरह बैठ गई
वहाँ से देखने पर आगे धुंध की एक खाई थी
उससे बचते हुए मैं उसके किनारे-किनारे हो लिया
मैं आगे बढ़ा तो पीछे छूटता हुआ हरा पेड़
धुंध का पेड़ बनते हुए
फिर धुंध में गायब हो गया
मेरे भीतर एक पेड़ के आकार का हरापन रह गया लेकिन
जबकि एक मोड़ पर पहुँचकर मालूम हुआ मुझे
कि धुंध की वह खाई
जिसके किनारे-किनारे चलता आया यहाँ तक
दरअस्ल, झील-सी शांत एक नीली नदी थी
जिसे मैं न जाने कब से ढूँढ़ रहा था
और जिससे कहने को मेरे पास
अपने जीवन जैसी एक कहानी थी
मैं उसके पास बैठ गया
उससे कुछ कहता इससे पहले
किसी चीज़ के सड़ने की गंध ने
मुझे बेचैन कर दिया
और फ़िलहाल मैं वे सभी बातें भूल गया जो मुझे
उस नीली नदी से एक उम्र से कहनी थी
मैं जल्द से जल्द वहाँ से दूर चले जाने से पहले
नदी को आख़िरी बार देखने लगा तो देखा
उसमें दूर एक धुंध की नाव हिल रही थी
दुर्गंध के बावजूद
मैं नदी के तट पर बैठ
उसके नाव होने का इंतज़ार करने लगा
लेकिन पास आते-आते
उसके नाव होने का अनुमान धुंध हो गया
और वह नदी में तैरते
रस्सी से बँधे दो शवों में तब्दील हो गई
मेरे और नदी के बीच अब कोई धुंध नहीं थी
जबकि मुझे दृश्य में उसकी ज़रूरत थी
मैं बदहवास धुंध की तरफ़ दौड़ पड़ा
लगा कि यह धुंध मुझे बचा लेगी लेकिन तभी
एक तेंदुआ मेरे सामने से छलाँग लगाता हुआ
धुंध से निकला और धुंध में समा गया
दृश्य में उसके होने से पहले और उसके बाद
धुंध का कोई तेंदुआ मुझे नज़र नहीं आया।

चीज़ें धुंध से आती थीं
और धुंध में समा जाती थीं
हमारे पास उनके होने के सिर्फ़ अनुमान होते थे
कभी-कभी वह भी नहीं
उनके रंग, आकार और गंध की स्मृतियाँ
बाज दफ़ा धुंध को और गहरा करती थीं।

सरल बात

आँखें देख सकती हैं
कान सुन सकते हैं
और सूँघ सकती है नाक
जीभ बता सकती है
स्वाद और त्वचा महसूस कर सकती है
स्पर्श और ताप

मुझे मालूम नहीं कि क्रम विकास में इन शक्तियों को अर्जित करने में कितने लाख वर्ष लगे होंगे
और यह भी नहीं जानता कि इन्हें उपयोग में लाए बिना कितने वर्षों में खो जाएँगी ये…

मुझे मालूम है केवल इतना
कि यह इतनी सरल बात समझी गई
कि शिक्षाविदों ने इसे प्राथमिक कक्षाओं के
पाठ्यक्रम में जगह दी

लेकिन देखना, सुनना, सूँघना, चखना और महसूस करना
बिल्कुल भी साधारण नहीं हैं

मैं भूल न जाऊँ इस साधारण-सी लगती बात को
बस इसलिए ही मैं इस सरल बात को दोहराता हूँ।

कोरी नींद का स्वप्न

मैं आँखों के बंद होते ही उनके भीतर एक पर्दे के गिर जाने से तंग आ गया हूँ

ऐसा नहीं कि मैं नींद के भीतर और नींद के बाहर सपने देखने के ख़िलाफ़ हूँ
मैं इन्हें देखता आ ही रहा था
लेकिन नींद के बाहर के सपने जब मुझे बहुत सस्ते क़िस्म का नशा मालूम हुए तब से उन्हें छोड़ देने का एक सपना देखता रहा हूँ

जबकि नींद के भीतर
सपनों पर मेरा कोई वश नहीं
मुझे पहले उनसे कोई गुरेज़ नहीं था
वे बहुत धीमे चलते थे
किसी पुरानी आर्ट फ़िल्म की तरह
तो मैं उनमें खो जाता था
धीरे-धीरे उनकी गति तेज़ होती गई
दृश्य ओवरलैप करने लगे
और उनका कोई क्रम समझ से परे हो गया
पता नहीं क्या हुआ
कि वे या किसी बर्बाद एडिटर के हत्थे चढ़ गए
या यह कोई नए क़िस्म का सिनेमा था
मेरे भीतर जो पल रहा था चल रहा था

मैं जीवन की आपाधापी से भागकर तो नींद के पास आता हूँ
यहाँ भी मुझे वैसी ही गति घेर लेती है
जबकि मुझे चाहिए एक कोरी नींद
जिस पर किसी सपने का कोई दाग़ न हो।

स्थानीयता

आसान है करना प्रधानमंत्री की आलोचना
मुख्यमंत्री की करना उससे थोड़ा मुश्किल
विधायक की आलोचना में ख़तरा ज़रूर है
लेकिन ग्राम प्रधान के मामले में तो पिटाई होना तय है।

अमेज़न के वर्षा वनों की चिंता करना कूल है
हिमालय के ग्लेशियरों पर बहस खड़ी करना
थोड़ा मेहनत का काम
बड़े पावर प्लांट का विरोध करना
एक्टिविज्म तो है जिसमें पैसे भी बन सकते हैं
लेकिन पास की नदी से रेत-बजरी भरते हुए
ट्रैक्टर की शिकायत जानलेवा है।

स्थानीयता के सारे संघर्ष ख़तरनाक हैं
भले ही वे कविता में हों या जीवन में।

अध्यादेश

मुझे मुआफ़ करें
मेरे पुरखे और समकालीन कवि
मैं बादलों पर रूमान से भरी उनकी सभी कविताएँ
इस कविता से निरस्त करता हूँ।

वे जहाँ कहीं भी हैं
किताबों में, स्मृतियों में या ज़बान पर
उन्हें तत्काल प्रभाव से मिटा देने का हुक्म है यह
अदना-सी कविता

उन्हें मिटाता हूँ
मिटाता हूँ उन्हें तुरंत
बादलों से मिले हमारे ज़ख़्मों पर
उनसे नमक झरता है।

सेफ़्टी फ़ीचर्स

उसकी चपेट से बच निकलना
मुश्किल होता अगर
वक़्त पर न खुले होते
किसी झूठ से भरे हुए एयर बैग
और न लगाई हुई होती हमने
किसी ग़लतफ़हमी की सीटबेल्ट

ज़िंदगी के हाईवे पर कई मर्तबा
सच हादसे की तरह पेश आया।


प्रदीप सैनी सुपरिचित हिंदी कवि हैं। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखें : स्मृति भर नहीं होती स्मृति

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