कविताएँ ::
संदीप रावत

संदीप रावत

अपने प्रिय संगीतकार के लिए

एक

एक दिन चलते हुए तुम एक पत्ता उठाते हो
और उसके रंगों को सपनों के बहुत क़रीब ले जाते हो
और सारी ध्वनियाँ तुम्हारे सपनों में झाँकने लगती हैं
पुरानी और टूटी हुई एक घंटी
तुम्हारे अबोध सपनों को ले जाती है
सपनों के जागे हुए पवित्र प्रार्थनागृह में
जो बचपन का जन्म-स्थान है
जो जन्म-स्थान है कविता का
कुछ दूर जन्म-स्थान में एकाकी चलने से
पारदर्शी हो जाती है
जब दुनिया की दौड़-भाग
तब कांस्य ध्वनि—एक घंटी की—पुकारती है
हर आवाज़ के पूर्वजों को
जिन्होंने ख़ुद पर से झाड़ दिया है
पृथ्वी की गहराई को
ताकि गहराई उड़ सके
एकाकी आश्चर्य की तरह

दो

शांत हूँ
तुम्हारे संगीत के भीतर
जैसे यह दूर पहाड़ियों में
मेरे बचपन की गुफा हो
बचपन की गुफाओं में
सोए हुए चित्रों से बनती है
हर भाषा के हृदय की सात सुरीली परतें

तुम्हारा संगीत
वह ठहरता है ओस की एक बूँद के पास
एक हिरन के एकांत भरे पदचिह्नों के पास
एक काँटे की एकाग्रता और
एक पत्ती के हरे-पीले मर्म के पास
जो तैर रहा है झील के विस्मय पर
जहाँ-जहाँ भी ठहरता है
वह—झुकता है, सुनता है
सुनता है, ठहरता है और झुक जाता है
और बेहद आवाज़ करने वाले बूट पहने
मेरी बे-अंत जल्दबाज़ियाँ
वे रुकते-रुकते ठहर जाती हैं
उनके हाथों से छूट जाती हैं चीज़ें
और बदल जाती हैं
हरी जड़ों में जो तैरती हैं हाथों की तरह
किसी सिम्फ़नी-कंडक्टर के
हम सुनते हैं पहली बार
टहनियों पे झूलते फलों के
बेदाग़ सौंदर्य का नारंगी-गान
शुद्ध रस से भरे हुए बग़ीचे हमारे दिल
देखते हैं हम कि कुछ भी नहीं है
हमारे भीतर जड़ों के सिवाय
जड़ों में रहने वाले अँधेरे के सिवाय
इसलिए हमें नहीं सुलझा पाएगा
कुछ भी जड़ों के सिवाय
जड़ों में रहने वाले अँधेरे के सिवाय

तीन

‘आरंभ में एक शब्द था’ से बिछड़कर
‘आरंभ में एक शब्द था’ की याद को भी
खो चुके, ओ दिल!
चल सुनें नदी के दूरदर्शी नाद को
इससे पहले कि सुनना बहुत दूर चला जाए
आ लौटें, यह हमें एक बीज बना देता है
यह हमें भर देता है
नदी में डूबे पत्थरों की तराशी हुई गोलाइयों से
गोलाई एक प्राचीन आत्मसंवाद है

आ देखें ख़ुद को और अपनी इच्छाओं को
‘आरंभ में एक शब्द था’ की तरह
क्या ‘आरंभ में एक शब्द था’
हर चीज़ के अंत मध्य और आरंभ का संगीत है
क्या संगीत हर आत्मा का रहस्य है
जिसकी तरफ उड़ती जाती है क़िस्मत

चार

तुम आलू छीलते हो
यह तुम्हें शांत कर देता है
यही संगीत का आवास है

जहाँ मैं रहता हूँ
वहाँ सूरज डूबने के बाद
सूरज के डूबने की जगह को देखता रहता है राग यमन
प्रकाश और अंधकार के मध्य को जब पुकारती है एक घंटी
चीज़ों के भीतर लौटने लगती है
उनसे बिछड़ी हुई एक ख़ामोशी
और खोलने लगती है ग्रहणशीलता के क़दीम नक़्क़ाशी भरे द्वार
जो खुलते हैं आँसुओं की तरफ़
पहाड़, पेड़, बादल, अलविदा और अपार ख़ामोशी की तरफ़
और तब पेड़ों की तरफ़ जाते हुए मैंने देखा
जंगल में जन्मे जानवरों के पदचिह्नों से
बहुत दूर मैं था थका हुआ
झंडों, पाठ्यक्रमों, काम के मुखौटों और दिनचर्याओं के बीच बिखरा हुआ
गूँजता हुआ न जाने किसके आदेशों से

मन की सारी परतदार आवाज़ों से
मैं अब पानी के बुलबुले बनाना चाहता हूँ
न कि कोई रस्सी, कोई ख़बर, कोई सीढ़ी या कोना

ओ! मेरे आँगन के पत्थरों पे ठहरे हुए पानी के नन्हे आईनों
ओ! मिट्टी के हरे रहस्य
मैं अब सो जाना चाहता हूँ
चुपचाप अंत और आरंभ के बग़ैर
सिर्फ सुनते हुए
तुम्हारे संगीत की पाक बर्फ़ का गिरना
ताकि वह मेरी नींद में उतरकर
सपनों की सारी बत्तियाँ बुझा दे

पाँच

मैं था स्कूल से भागे किसी बच्चे-सा गहरी हरी उदासी से छलकता हुआ कहीं न जाने के रास्ते पर
ऐसे दिनों से भी गुज़रता हुआ जब परिंदे मेरे गिर्द उड़ाने भर रहे थे और मेरे ज़ेहन का पिंजरा फ़ैल रहा था

सिर्फ़ एक क़दम की धुंध थी जिसमें मैं बरसों चलता रहा

एक मंच था और पर्दों के पीछे थी एक रौशनी जो अपने तर्क से आगे नहीं बढ़ पा रही थी

फिर एक सुबह बहा ले गई हवा
अक़्ल-ओ-दिल के गिर्द बैठी पुरानी कहानियाँ और वहाँ
उस अजानी रिक्तता में
बैठा दिखाई दिया तुम्हारा संगीत
किसी दरवेशी की राहविहीन राह-सा
पहली और आख़िरी बार घटित होता हुआ
वहाँ मिट्टी जैसी उस अजानी रिक्तता में
केंचुओं की सुरंगों से होकर गुज़र रही थी हवा और धूप की तरन्नुमें हज़ार
इतना साफ़ था तुम्हारा संगीत कि
उसने मेरे जीवन की किसी भी उलझन को
सुलझाने की कोशिश नहीं की
मानो वह कोई ऐसी किरण हो
जो अपने तर्क से परे चली आई हो

छह

कितना कुछ है जो एक ही क्षण में पूरा कर देता है मुझे जैसे बचपन की नदी में डूबा वो भारी पत्थर जिसे मैं बड़े होकर घर लाना चाहता था और अब मैं खोज रहा हूँ अपने खोए हुए घर को जिसकी खोज मुझे नदी में तब्दील किए जा रही है

कितना कुछ है जो एक ही क्षण में पूरा कर देता है मुझे जैसे मिट्टी के सौंधे संगीत से सने हुए पाँव
जैसे अधूरी कविताओं की गहरी विस्मय भरी आँखें

मेरे सपने के सबसे उजले, सबसे स्याह, सबसे उदास और बारीक हिस्से को बयान करता है तुम्हारा संगीत

पिघलता है मन में जमा हुआ जल और तुम्हारे सागर जैसे वायलिन की तरफ़ बहने लगते हैं रास्ते सरग़ोशियाँ, यादें, खिड़कियाँ और अलविदाएँ

एक नियत अंतराल पर सूर्योदय की तरह उगती है तुम्हारे संगीत के भीतर
दूर कोई घंटी… आह!

काफ़ी है मेरे भीतर सब कुछ को एक बिंदु में डुबोने के लिए

सात

सूर्योदय पूर्व के काल के सौंदर्य से भरा एक मौन
तितली बनकर उड़ती एक नीली-काली ख़ल्वत
नीलम से निथारी हुई एक धुन
अनगिनत वर्षों का यात्री तुम्हारा संगीत
नापता हुआ आता है भावनाओं की पृथ्वी
अपने संग कही न जा सकने वाली कथाएँ लिए
देर रात खटखटाता है द्वार
मैं द्वार खोलता हूँ और एक काँटा
धुन बनकर
मुझसे बाहर निकल जाता है
और मेरा बचपन उसे सुन लेता है
और एक हल्की-सी रौशनी को ले आता है
‘यहाँ’
पत्थरों के उड़ते हुए एकांत से बने इस घर में
जो किसी बच्चे की तरह साँस ले रहा है
कल्पना के भी पार

पूर्ण विराम

इच्छाओं के वाक्य पूर्ण कहाँ होते हैं
अंत के लिए उन्हें चाहिए अनंत
अनंत ही है पूर्ण विराम
जो बात पूरी हो जाती है अनंत हो जाती है
अनंत ‘कोई बात नहीं’ जैसी एक बात है
‘कोई बात नहीं’ जैसा है आबशार दिल
‘कोई बात नहीं’ से चमकता है तारों भरा आकाश
गहराता है सागर और खिलता है एक फूल

कविता में हर एक ध्वनि
हर एक शब्द
हर एक अधूरे वाक्य के आस-पास
इतनी जगह होती है
कि पाठक का मन कहीं भी ठहर सकता है

मन की तलाश पर कई बार
मात्र एक ध्वनि से ही
लग जाता है पूर्ण विराम
एक मेंढक के सहसा उछलकर
झील में
छपाक्…
कूदने से
हो गई थीं बाशो की सारी कविताएँ पूर्ण

बग़ैर पूर्ण विराम के एक वाक्य
सारी किताबों, अख़बारों, डायरियों, दीवारों,
मन की सारी अवस्थाओं और युगों पर
यायावर की तरह घूमता रहता है

बग़ैर पूर्ण विराम के लोग एक दूजे को छोड़ जाते हैं
कविता की तरह अचानक और उनके पास नहीं होती कोई वजह
जिनके पास वजहें होती हैं
उन्हें भी वजहों की जगह
कभी-कभी दिखाई देते हैं
उगते पौधे
डूबता सूरज
मिट्टी और हवा को सूँघते जानवर
फल पे बैठी फफूँद
बरसाती धारे
पूर्ण विराम के बग़ैर

एक चील की आँखें धार देती हैं लौह-ए-दिल को
पतली-सी इक जलधारा मोड़ देती है सोच के लोहे को
मुड़ने से पहले तक ही साथ देता है शब्द-संसार
कभी-कभी आश्चर्यजनक रूप से अचानक मुड़ जाती है कोई बात
और महसूस करते हैं हम बात में दबी अग्नि, वायु और जल

हर चीज़ चाहती है अग्नि, वायु, जल जैसा अंत और आरंभ
अग्नि, वायु, जल तक आते ही हर चीज़ अंतहीन आरंभहीन हो जाती है

पूर्णविराम से पूर्ण नहीं होते वाक्य
वे सुनने वाले के भीतर की गहराई रिक्तता और पारदर्शिता से पाते हैं पूर्णता
जहाँ तैरती-डूबती हुई बात पर कोई भी चीज़ कहीं भी न लगाती हो विराम

वो बात ही पूरी बात है
खो जाता है जहाँ वक्ता-श्रोता का अंतर
रहता है जहाँ अनुनाद
वही है विरामावस्था जिससे
पाती है गति हर बात
वही है बात की ताक़त-ए-परवाज़

जो गीत मेरे कानों में सबसे पहले उतरे वो
पहाड़ों, नदियों और बर्फ़ में चलने का हुनर ख़ूब जानते थे
वे गीत खेतों, आँगनों, जंगलों में कर्मयोगी की तरह कर्म करते थे
वे गीत ज्ञानयोगी की तरह हर दिल में समाधिस्थ थे
उन गीतों को रस्सी दराँती-सा बाँधे
खड़ी हो जाती थीं औरतें
हठयोगी की तरह
उनकी कठोर साधना भरी होती थी
चिड़ियों की चहक, पानी की लचक, बुराँश की दमक से

चारों तरफ़ फैले कोहसार ऊँची से ऊँची
नीची से नीची आवाज़ में कहते थे
हम अंत नहीं हैं
हम अंत नहीं हैं
उठो और ऊँचे उठो
ऊँचाई से भी उठकर देखो
झुको और नीचे झुको
जब तक रीढ़ है झुककर देखो

चीटियाँ साँसें हैं धरती की निरंतर चलती हुईं
चींटियों की तरह वे गीत भूमि पर
चल रहे हैं अ-विराम
किसी प्राचीन संवाद को घुलमिल कर ले जाते हुए
जिसकी न इब्तिदा है कोई न इंतिहा

प्रेम एक पूर्ण विराम था
खोजती रहती थी जिसे
हमारी बकबक
बौराई हुई-सी

एक शब्द लिखते ही कभी-कभी
ध्वनिलोक में चली जाती है कोई तस्वीर
गहन अँधेरे में
इक काव्य-स्मृति
भटकाती है कवि को अविराम
स्मृति एक पूरी बात है
एक पूरी बात कोरी है

मन पूर्ण विराम के लिए खोजता रहा उत्तर
अंत में आश्चर्य मिला उत्तर नहीं
आश्चर्य को याद नहीं किया जा सकता
किसी उत्तर की तरह
आश्चर्य गुण है अनंत का
गुण रहते हैं हृदय में

भाषा की संरचना भी समझ नहीं पाती प्रेम की उलटबाँसी
प्रेम के व्याकरण में रहती है एक क़ायनाती धुन
बहुत दूर एकांत में अपने शब्दों को प्रेमानुसाशन सिखाती हुई

अपनी नींद की तरह अपनी बात पूरी न होने से चिड़चिड़ाए लोग
छुट्टियों और फ़ोन-कॉल्स का इंतिज़ार करते हैं
मगर कोई उनकी छुट्टी काट देता है और कभी कोई फ़ोन
कभी-कभी अवसाद और निराशा से भरा कुछ लिखते हुए
वे पूर्ण विराम का कहीं कोई प्रयोग नहीं करते

मन अपनी बात नींद की तरह
पूरी करना चाहता था
हर बात सपने की तरह मन में आती-जाती थी
मगर इतनी आहटों से भरा था संसार
कि बातें, नींदों स्वप्नों उम्मीदों की तरह
कहीं भी टूट जाया करती थी
और यह कह पाना बहुत मुश्किल होता कि टूटी हुई चीज़ नींद है, धागा है, बात है, भ्रम है या कोई धुन

कई बार बोलते हुए जब किसी ने मेरी बात काटी तो लगा जैसे नींद से एकदम आँख खुली हो

‘रात बहुत ज़ोर से बिजली कड़की फिर बिल्कुल नींद नहीं आई’ इतना कहकर माँ पूर्ण हो जाती पिता जो कभी एक काली बैचेनी से भर उठते बिल्ली को कोसते हुए बताते कि रात बिल्ली के रोने ने नींद तोड़ दी
‘क्या तुम्हें रात कुछ नहीं सुनाई दिया?’
‘नहीं, मुझे तो दिखाई दिया कोई सपना
जो बना हो शायद बिल्ली की आवाज़ के आलोक से’

घर में देखा कई बार—
पिता बोलना जारी रखते मगर उनकी बात कभी पूरी नहीं हो पाती
एक ही वाक्य कई-कई बार दुहराते मगर वे अधूरे ही रहते
कई बार कुछ बोलते हुए जब उनकी बात को उनकी पत्नी या बेटे काट देते तो वे कभी आँखें दिखाते कभी चले जाते दूसरे कमरे में सोने और तेज़ सिर दर्द की शिकायत करते

वासनाओं के वाक्यों पर
न अरण्य का पूर्ण विराम लगता है
न हिमालय का न घर का
दौड़ने ही से नहीं पूर्ण हुई कोई वासना
बोलने ही से नहीं पूर्ण हुई जैसे कोई बात

बोलते हुए जहाँ-जहाँ मेरे भीतर
ख़ामोशी आ जाती है
मेरा कुत्ता उस जगह को सूँघ लेता है
और उसी जगह पर बैठ जाता है
सुबह-शाम उसी जगह मुझे लिए जाता है खींच
घास पर चलते हुए मैं और मेरा कुत्ता
एक हरी काव्यानुभूति से भर जाते हैं

बारिश के बाद जब बर्फ़ का उजला मौन आता तो लगता कोई बात पूर्ण हो गई
कभी मैं कह रहा होता कोई बात तो बात के बीच
आँगन में अख़रोट के पत्ते गिरते
एक तितली गुज़र जाती
या सूँघता हुआ आ जाता एक कुत्ता
और मेरी बात वहीं टूटकर पूरी हो जाती
झरे पत्ते, तितली, घूमते जानवर, पक्षी और रंग
मेरे वाक्यों के पूर्ण विराम हैं


संदीप रावत की कविताओं के ‘सदानीरा पर प्रकाशित होने का यह चौथा अवसर है। उनसे और परिचय तथा ‘सदानीरा’ पर इससे पूर्व प्रकाशित उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखिए : मेरे पास एक चरित्रहीनता के सिवाय और कुछ नहींआँसू गहराई की आकस्मिकता हैदुनिया नहीं बोलती—यहाँ—सिर्फ़ दुनिया की पुरानी आदतें बोलती हैं

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