कविताएँ ::
सत्यम तिवारी

सत्यम तिवारी

साज़

जब अँधेरा हुआ
और अँधेरे में जगह
तब तुमने गिरने के बारे में सोचा
यह तो भिड़ने के बारे में सोचना नहीं था

न हवा में गंध थी
और न पानी का रंग बाक़ी
न वहाँ धूल थी
और न भटके हुए लोगों की आस्था

बारिश दीवार बनाती थी
तो आदमी छतरी बनाता था
जो सड़क नहीं बना पाते थे
वे जूते बनाने की जुगत में
जान गँवाते थे

नहीं भर पातीं तो न भरे
घाटियाँ फूल से
हाथ पर हाथ से बेगाना हो?

बदले की भावना रही जब तक
तब तक कुछ भी नहीं बदला
फिर आदमी पानी में पाँव धरे
या गर्दन पर हाथ

काग़ज़ पर भूल हो
चाहे अक्षर पर धूल
हिय में हूक हो
और ताखे पर ताज
यह आदमी न भी रहा आज
तो सलामत रहेगा उसका साज़

मसौदे पर मृत्यु

वह अपना किया धरा हो
या सबका धरा किया
धर्म न हो तो कौन
धारण करे धरती को
शर्म हो तो कौन
धारण करे धर्म को

कौन जिस्म से भारी पत्थर
लेकर चढ़े फिर पहाड़ पर
किसका पानी रहे फूटता पोरों से
पानी न रहे तो
किसका पत्थर रहे महफ़ूज़

कौन शर्मिंदा हो मनुष्य होने के लिए
पूरी दुनिया का कौन बने बरख़ुरदार
फिर जवाँ और ज़िंदा होने वास्ते
हो कौन एहसानमंद इसके उसके
और उनके जिनका नाम
ऐन मौक़े पर याद भी नहीं आता

और गुनाह करने से घटे जब सज़ा
कौन समझाए घटना है घाटे का सौदा
इस तरह से होता रहे कौन बरी
किसकी बारी भी न आए कभी इस तरह

मरे हुओं को कौन राहत बख़्शे
कौन करे जीवितों को प्यार
कौन लाल झंडी लेकर
कूदे चलती रेल के आगे
तीर चलाने की दशा में
कलकलाहट की दिशा में
कौन हिरन के पाँव से काँटा निकाले

दर-ब-दर

नकारापन और आवारापन के
बीच की ख़ाली जगह
जहाँ अभी भी तुम्हारा नाम
नारों की तरह पुकारा न जाए

एक बिल्कुल चूका हुआ शख़्स
पर चुका नहीं
एक आधा झुका हुआ भी
पर बुझा नहीं

वह तुम्हारी हँसी में बसता
अगर उसे घर कह सकता

उसे भी बार-बार आकर्षित करता
जुलूस की तरह
तुम्हारे दिल से निकल जाने का ख़याल

तुमने उठाकर जिसे रख दिया
अपनी जगह पर
और सोचा उसका तुम्हारी तरह सोचना
वह क्या करे कि आता हुआ स्वप्न है
तुम क्या करो कि हो टलती हुई दुर्घटना

जिसे निकाला जाए
हाथ खींचकर कविता से बाहर
जैसे फ़ैमिली फ़ोटो से
कट जाती है कोई तस्वीर

जब लंबी फैल जाए उसकी कविता
जैसे लंबा फैल जाता है उसका दुख
समेटने में लगे जाने कितना वक़्त
तुम जाने के लिए बहाना तलाशो
तो वह बन जाए तुम्हारा खिलौना
तुम जभी चलना सीखो
वह थामे धरती तुम्हारे लिए
जब वह हो तुम्हारा आसमान
जले, बरसे भी

उसने खींचकर फैलानी चाही थी रस्सी
झुकता ही गया है थोड़ा और
थोड़ा और वज़न ढोने के फेर में जीवन

प्रतिलोम

सालगिरह हो तो साल
कमता है देशवासियों का
देश का बढ़ जाता है
हर बरस लगती है उम्र
हर बरस पुरातन होता है देश

वह माध्यम बन गया है जिसका
वह अपराध पर करेगा अपराध
और सज़ा से सजेगा नहीं

हिसाब हो तो लहराते
झंडे में जा छिपता है
रद्दी हो तो नींद
कबाड़वाला भी नहीं लेता
फिर पीली रौशनी में
देह के पीले पड़ने का इंतज़ार

यही कुछ कड़ियाँ हैं
फूटी कौड़ियाँ
टूटना है इन्हें अभी और
मन, फूटने से पहले का बौर

मंज़र मोमबत्ती नहीं है
बत्ती जल जाती है
मोम रह जाता है

बिना देह के रूह
आज़ाद कैसे होती है

फिर जो रूह तक
पहले पहुँच जाते हैं
वहाँ से कहाँ जाते हैं?

और जो निष्कामना से
आगे निकल पाते हैं
हमें वहाँ से क्यों बुलाते हैं?

अंत में

एक

घंटियों की तरह बजते हैं फूल
धोखे की तरह बढ़ती है आस
उसके भीतर बसती है धूप
उसके बाहर गिरती है परछाई
वह जब चाहिए, नहीं रहता
हवा रहती है, जब नहीं चाहिए

दो

समय से नहीं कटता मेरा समय
मेरी ही आँख नहीं देख सकती अपनी आँख
दिन क्या नापेंगे पृथ्वी पर मेरे बचे दिन
मैं कई शक्लों, कुछ चेहरों का मेहमान

मैंने सोचने को जगह माँगी
कलाई भर की घड़ी नहीं
मुझे निर्जन टापू पर छोड़ा
कछुए की खोल में जहाँ
घोंघे-सा समय गुज़रता था

इच्छाएँ डाल पर बैठती थीं
वर्जनाएँ पात पर बैठती हैं
तितलियाँ फूल पर बैठेंगी
कोई कैसे बैठ सकता है
नुक्कड़ की दुकान पर?

तीन

(ऐसे नहीं)
ख़ाली हाथ किसी के घर नहीं जाते
खाली हाथ किसी को घर से विदा नहीं करते

फिर भी जब तक जलती है लौ
तब तक रहती है आदमी को उम्मीद
आदमी जब नहीं होगा
उसके हिस्से की लौ
देर तक जलाए रखेगा आदमी

लौ जब बुझ जाएगी
हर आता-जाता आदमी
उसे दिखेगा लौ की तरह
जलता, फिर बुझता।

दिल और गिलास

एक ख़ाली गिलास की तरह है मेरा दिल
जिसे ज़रूरत से अधिक प्यार किया गया तो
यह मेरी आँखों की कोर से छलक पड़ेगा

एक टूटे गिलास की तरह है मेरा दिल
जिसमें अपना प्रतिबिम्ब ढूँढ़ना भी
तुम्हारे लिए अपशगुन है

एक प्लास्टिक के गिलास की
तरह है मेरा दिल
जिसे बची-खुची पत्तलों के साथ
लोग इस्तेमाल के बाद जला देंगे

अदालतों की मेज़ों पर
धड़कता रखा है मेरा दिल
जिसे थोड़ा-थोड़ा सुड़ककर
मुझे फ़ैसला सुनाया जाएगा

कथेतर

कठिन है भरना
काग़ज़ का कोरापन
रेलगाड़ी में कोयला
उससे भी कठिन

फिर भी पा ही गया मैं
उमीद का उस्तरा
पैंट भर घुटना

फिर भी आ ही गया मैं
दरीचे से दरकिनार
बग़ीचे से बदस्तूर

यह तो हुई कथा की बात
अब नाव में अतिरिक्त है
जो भी सामान
उसे समंदर में फेंक दो

तृष्णा

मुझे तुम्हारा अस्वीकार क्यों चाहिए
तुम्हारा निर्णय
कि दुहराव से बेहतर है, बदलाव
बदतर से बेहतर है

नाउम्मीदियों से भरी नाव में
वक़्त कोई दर्पण भी कहाँ है
कि चेहरों से ख़ाली होती
उपस्थिति, जहाँ थोथी है

छात्रावास का पंखा जैसे
गली का कुत्ता
जैसे नागफनी, फूल
कहे जाने पर शर्मिंदा

क्या यही दुनिया नहीं
शर्ट से रंग छूट जाता है
देह से मैल नहीं छूटता

भीगे पानी से चेहरा भिगोता
ऐसे में मैं कैसा दिखता हूँ
संसार का भाप पसाते!

अंधकार की रश्मियाँ
माथा चूमकर लौटती थीं
अन्यत्र जाओ संभावनाओं ने कहा
कहीं भी, जाओ चले

अगर मरती न तुम्हारी आवाज़
घड़ी की सुइयों पर
मैं एक आह से बाहर निकल आता

अगर घुलती न बेचैनी
बजबजाता न घाव
मैं क्रम की तरह नहीं टूटता

अगर यही होती मेरी अंतिम प्रार्थना
चैन से सोने देते आज की रात
कम अज़ कम एक किसी को?

आस्तीन

अगर कोई कह सकता
हमारी बात
हमारी ही तरह से
या हमसे भी बेहतर
तो उसे ही रखते हम ज़ुबाँ पर

बहस में भी शग़ल में भी
सहर में भी सजल में भी
अगल में और बग़ल में भी

और सबसे ज़्यादा वहाँ
जहाँ क़मीज़ का दाहिना छोर मुड़ता है।

वरीयता

जीवन तुम्हारा साधारण था—
साधारण और अर्थहीन

तुमने इसमें अपनों को खोया
और शायद अपनों ने तुम्हें?
और उनके लिए तुम बारहा उपलब्ध रहे
प्रेरणा के ओछे उदाहरण बनकर
और उन्होंने अकाल के अनाज की तरह
तुम्हारा इस्तेमाल किया
और पछताए नहीं
तुम्हारी देह पर चीरा लगा था
और आँसू तक न निकले!

आधारभूत

और तो कहाँ जाता मैं
विकल्पहीनता में आया था
तुम्हारे पास
तुमने मुझे घुड़क दिया
जैसे मज़दूर को
दफ़ा करता है मिल-मालिक—
‘कल आना…’


सत्यम तिवारी (जन्म : 2003) हिंदी की बिल्कुल नई पीढ़ी से संबद्ध कवि हैं। वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में स्नातक हैं। उनसे satyamtiwariau2020@gmail.com पर बात की जा सकती है।

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