कविताएँ ::
सौरभ मिश्र
उम्मीद
मुझे रोटी से कोई उम्मीद नहीं है
मुझे चकला-बेलन से कोई उम्मीद नहीं है
मुझे आटे से कोई उम्मीद नहीं है
लेकिन इसे उगाने वाले
इसे पीसने वाले
रोटी सेंकने वाले से उम्मीद है
सत्ता से कोई उम्मीद नहीं है
रोटी खाने वाले से उम्मीद है कि
वह किसान का क़र्ज़ अदा करेगा।
मोल
दुनिया दिन-ब-दिन
जटिल होती जा रही है
लोग अंतर्मुखी होते जा रहे हैं
अति में रोते हैं
या अति में हँसते हुए नज़र आते हैं
बीच में हो जाते हैं विलुप्त
खोई हुई चीज़ों में
ख़ुद को ढूँढ़ते हैं
पा जाने पर आश्चर्य से तकते रहते हैं
ख़ुद के जूड़े में बँधी रिबन
और माथे पर रखी हुई ऐनक
आलपिन रखी हुई फ्रिज पर
या लटकी हुई पल्लू में
और बिंदी गिरी हुई मिलती है
टब में!
कभी न कभी
कहीं न कहीं
मिल तो हर चीज़ जाती है
बस उसका मोल खो जाता है
जो कभी नहीं मिलता।
पतझड़
इतना आत्मीय होना
कि जब कोई मिले
तो निराश न लौटे
इतना मर्यादित भी
कि बोलते वक़्त
शब्द अपनी गरिमा न बिसरे
इतना जटिल भी
कि निजी ज़िंदगी में
कोई प्रवेश करने कि न सोच सके
इतना भर ईश्वर हुआ जाए कि
हर जगह बिन बुलाए न पहुँचा जाए
और बुलाने पर भी अंतर्मन की साधना न टूटे
निरंतर करना ख़ुद पर विचार
और भूलना मत
वसंत की क़दर
पतझड़ के बाद ही होती है।
स्थगित
माध्यमों से होता हुआ
कारण तक पहुँचा
और निराश हुआ
भरम टूटे
और कहीं-कहीं दिल भी
आभास हुआ
दूरी का भरम
बरक़रार रहे
इससे इंसान का मरना
स्थगित होता रहता है।
प्रेमिका का माँ हो जाना
एक प्रेमिका का
माँ हो जाना
पुरुष को पिता होना सिखाता है
एक स्त्री का
उसके हाथ हो जाते हैं
कोमल और वाणी नरम
उसका शरीर हो जाता है सुगंधित
उसका स्वरूप निखरता है
पौरुष पिघलता है
दिल पसीजता है
नाक तनती नहीं बात-बात पर
मूँछें खिलौने की तरह
खेलने को आकर्षित करती हैं
निहारते रहने को जी करता है
ऐसे प्रेमिल जोड़े को
जो दो नहीं रहते
स्त्री-पुरुष का भेद मिटाते
एक हो जाते हैं।
वास्तविकता के थपेड़े
पलट कर उन चौराहों पर नहीं जा सका
जहाँ विदा के गीत गाए थे
नहीं देखी वो सड़क दोबारा
जहाँ पहली बार चूमना सीखा था
उन आँगनों में नहीं लौट सका
जहाँ भात-दाल आलू चोखा खाया था
नहीं देख पाया वो पोखर दोबारा
जहाँ बंसी डालकर मछली पकड़ी थी
नहीं बैठ पाया उस साइकिल कैरियर पर
जिस पर बैठकर पहली बार मकई का स्वाद चखा था
अब जब उन्हीं जगहों पर लौटता हूँ
नहीं देख पाता हूँ उन जगहों को
अपलक एकटक नन्हे बच्चे की तरह रोता हूँ
विदा करता हूँ स्मृतियों को
लौट आता हूँ स्वप्निल आलोक से बाहर
वास्तविकता के थपेड़े खाने।
पढ़ो, लिखो, बदलो
नक़लची की तरह
नक़ल करके लिखो
पर लिखो
पढ़ो ख़ूब पढ़ो
और हू-ब-हू लिखो
पर लिखो
देखो, महसूस करो, जियो
खाल का उतरना
नदी का सूखना
पहाड़ का पिघलना
ज़मीन का खिसकना
ये सब लिखो
पर लिखो
लिखते-लिखते
ख़ुद को ख़ारिज होता देखो
देखो माँग और पूर्ति का फ़र्क़
ख़ुद का बदलना देखो
पुरानी सीख है—
ख़ुद को बदले बिना
कुछ नहीं बदलता
तो बदलो बदलो बदलो
एक ठूँठ से
पेड़ बनने के लिए बदलो
दिखने के लिए नहीं
होने के लिए बदलो
जीने के लिए बदलो
पढ़ो पढ़ो पढ़ो
लिखो लिखो लिखो
बदलो बदलो बदलो।
चुम्बन
प्रेम में
होंठों पर नहीं
पैरों पर किए जाने चाहिए
चुम्बन!
ताकि जाने की ताक़त क्षीण हो जाए
और बाँहें एक दूसरे को समेट लें
अब और क्या?
क्यों, कब, कैसे
जब-तब, जैसे-तैसे
आज, कल, परसों
सुबह, दुपहर, शाम
हर पल, हर वक़्त
याद, फरियाद और क्या?
दिल, दर्द, इंतजार
साँस, आस, प्यास और क्या?
अँधियारा, उजियाला और क्या?
मैं, तुम, हम और क्या?
अजब-ग़ज़ब बात और क्या?
लिखना, पढ़ना, सोचना और क्या?
भागना-दौड़ना, गिरना-पड़ना और क्या?
सपनों में, अपनों में, दिलजलों में रहना और क्या?
बंद आँखों में, खुली आँखो में और क्या?
माँ, बहन, प्रेमिका और क्या?
आज नहीं, कल नहीं, कभी तो होगा और क्या?
चल बस रुक जा अब और क्या?
मगर याद रखना इंतजार है तेरा
बस अब और क्या?
सौरभ मिश्र (जन्म : 1996) नई पीढ़ी के कवि हैं। ‘सदानीरा’ पर उनकी कविताएँ प्रकाशित होने का यह प्राथमिक अवसर है। उनसे saurab19248@gmail.com पर बात की जा सकती है।
बेहतरीन! 👌👌