कविताएँ ::
सुघोष मिश्र

वर्षा में
सुदीर्घ गुलाबी चिंगारियाँ
दाहती हैं
वातावरण का हृदय
गति थम जाती है
थर्राती हैं खिड़कियाँ
विरही स्वर अस्फुट
वर्षाधुन में गाता है
यह अकेली
पेंडुकी चिरई
कौन-सा दुःख धोती है
पाकड़ के सघन पत्तों में
नहीं छिपती
विद्युत तार पर बैठी
भीगती है धारासार वर्षा में
नरकट की क़लम
क़लमें इन दिनों
काम आती हैं
प्रार्थना-पत्र लिखने में
हस्ताक्षर करने में
कोई नाम काट देने में
कोई नाम लिख लेने में
वे अवश्य काम आती हैं
किसी से अवसर छीनकर
किसी और को भेंट करने में
उनसे सच्ची और झूठी
गवाहियाँ भी लिखी जाती हैं
और मृत्युदंड देने के बाद
उन्हें तोड़ दिया जाता है
सत्य की सतत उपेक्षा के चलते
वे प्रायः कहीं खो जाती हैं
महँगी क़लमों को देख लगता है
वे सोना उगलती होंगी
और हीरे-मोती भी
लेकिन उन संपन्न अक्षरों से
क्या आत्मा की भूख तृप्त होती होगी!
जबसे ताक़तवर लोगों की
उँगलियों में क़लमों की शोभा देखी
मेरी कमज़ोर उँगलियाँ उनसे कुचल जाने लगीं
जब तय किया ख़ुद को दूर करूँ उनसे
तो क़लमों ने मेरी सफ़ेद क़मीज़ पर
पहले नील छोड़ा
फिर साथ छोड़ गईं
मेरे यौवन में कई-कई बार
क़लमों से गोदकर मेरी हत्या की गई
जबकि बचपन में नरकट की क़लमों ने
जीवन भरा था मुझमें
सुई-धागे से सिले काग़ज़ों की वह लेखन-पुस्तिका
उसके खुरदुरे सुंदरतम पन्ने
दवात की स्याही में
नरकट डुबोकर जो नीले किए मैंने
क़लम और चाक़ू दोनों
एक साथ पकड़ा मैंने
नरकटों को चाक़ुओं ने क़लम बनाया
और नरकटों ने हमें मनुष्य
इन दोनों से ही किसी को मारने का ख़याल
मुझमें आज तक नहीं आया
जबकि दुर्भाग्य ने
मेरी क़लम छीनकर
चाकू मेरे आत्मा में घोंप दिया
गाँव का सूरज
नरकट की झुरमुट से निकलता
ताड़ पर चढ़ता
तलैया में डूब जाता था
नरकट की जड़ों में
फँसी सर्प की केंचुल
हमें सशंकित करती
चूहों की गहरी बिलों तक
फैलतीं उनकी जड़ें
आधार खोजतीं भ्रमित होतीं
उनकी पत्तियाँ प्यार जैसी तीखी थीं
उनकी देह स्वप्न की भाँति भंगुर
अपने जीवन और उत्तरजीवन में भी
वे हमेशा निजता की ओट बनकर तने रहे
बहुत बार सोचता हूँ
एक नई क़लम लूँगा
औपचारिकताओं के दाग़ से मुक्त
अतियथार्थों, दुःस्वप्नों, पूर्वाग्रहों से मुक्त
ब्रांड और विज्ञापनों से भी मुक्त
मनुष्यों के मध्य का दीर्घ अंतराल भरने के लिए
मीलों योजनों तक धैर्य और स्नेह के साथ
चल सकने वाली प्यारी-सी एक क़लम
नरकट की क़लम
साथ में एक चाक़ू
और ढेर सारी दवात
भाव की भाषा रची नरकट ने
अभाव की गाथा लिखी नरकट ने
पीढ़ियाँ बदल गईं
नरकट की क़लम छुए
मानों सदियाँ बीतीं
स्याही की दवात ख़त्म किए
बहुत-बहुत उम्र गुज़री
किसी से आपबीती कहे
मैं तुम्हें पत्र लिखूँगा
मौसमों के बदलने तक लिखूँगा
स्याही ख़त्म होने तक लिखूँगा
दवात भरकर पुनः-पुनः
नरकट की नोक तेज़ करके
अधूरी रही हर बात
पूरी होने तक लिखूँगा
नायिका
मेरे मन की कोठरी में
धूसर, काले और चितकबरे
पालतू सर्पों से घिरी
नायिका नहाती है
मुझे बुलाती है
उसे देखने को उठती निगाहों पर
धूसर, काले और चितकबरे दंश लगते हैं
भय से जड़ हो जाते दोनों पाँव
चाहना के आँगन में घुसे बिना
ड्योढ़ी से वापस लौट आता हूँ
किसी को मुक्त करते वक़्त
उसकी यादों को क़ैद नहीं करते
मुझसे भूल हुई, पछताता हूँ
बूढ़ी होती नदी में
किसी दिन बाढ़ आएगी
किनारे पर बनी कोठरी
बहा ले जाएगी
नायिका अपने पालतू सर्पों पर सवार
दूर देस चली जाएगी
वासना के सागर में
भावना के द्वीपों के बीच जहाँ
कामना के जंगल लहलहाते हैं
वह नए ठिकाने बनाएगी वहाँ
कोठरी की क़ैद से
मुक्ति के गीत गाएगी
नहीं बनाएगी
सर्पों को पालतू
और
कवियों को प्रेमी
पारस्परिकता
समाज में
बहुत बहुत लोगों के बीच होता हूँ
उनमें से कुछ चले आते हैं साथ
मेरे एकांत में
भय, घृणा, प्रेम और कृतज्ञता की शक्ल में
अपने आत्म में बिल्कुल अकेला
होता हूँ मैं ध्यानस्थ
किंतु वहाँ भी कभी-कभी
महसूस करता हूँ
कोई छिपकली-सी सरसराहट
वह प्रवृत्ति कोई जो सबमें रेंगती है
वही मुझमें भी बसती है
जिस दिन वह मरेगी
मुझमें या लोगों में
सामाजिकता अर्थवत्ता खोएगी
दुनिया ख़ाली हो जाएगी
अमिट
सागर किनारे तुम लकीरें खींचोगी
लहरें उन्हें तुरंत मिटा देंगी
पेड़ों पर जो आकृतियाँ उकेरोगी
तने उनके घाव भर देंगे कुछ वर्षों में
पत्थरों पर नाम उत्कीर्ण कराओगी
शताब्दियों बाद वे अपठित हो जाएँगे
तुम मेरे हृदय में आकार ले सकती हो
नष्ट होने के बाद भी
सृष्टि में उसकी अनुगूँज बनी रहेगी
प्यार हमें अमर करेगा
वही रहेगा अमिट
इस नष्टप्राय संसार में
प्राप्ति
रेखा पार करने पर पाँव क्यों न जल उठे
पापी की कुदृष्टि कब तक सहनी पड़ेगी
अग्नि मिलने पर ही पीड़ा मिटेगी
पश्चाताप की दाहकता
अग्नि से ही शमित होगी
नीच दशानन से मुझको अपमानित होते देखता
यह तटस्थ चंद्रमा ही काश दे एक बूँद अमृताग्नि
शिवधनुष तोड़कर मुझे ब्याहने वाले
के हाथ ही मुझे स्पर्श करेंगे
भले शिव द्वारा वरदान में प्राप्त
चंद्रहास हर ले मेरे प्राण
यह सीता शिवत्व गहती है
और रामत्व में जीती है
आकाश से कोई तारा नहीं टूटा
अशोक के अग्निसदृश पत्र नहीं गिरे
मेघ से तप्त तैल नहीं बरसा
गोद में गिरी राम नाम अंकित सहिदानी
रामदूत के अश्रुजल में भीगी
सीता का तापहरण करती
मनोहर मुद्रिका
राम को बहुत चाहने वाले को
विरह मिलता है पर शोक नहीं
प्रभु के विरह में
प्रभु का नाम मिलता है
भक्ति मिलती है नवधा
क्षण भर में
डरो इनसे प्रिय
प्रेम न छूने पाए तुम्हारा हृदय
एकाकीपन न चूमने पाए तुम्हारा माथा
मृत्यु तुम्हारा हाथ गहकर संगिनी न बन जाए
प्रार्थना करो
ऐसी स्थितियाँ न आएँ जीवन में तुम्हारे
भयावह उल्कापिंड हैं ये
नष्ट कर देंगे तुम्हारी दुनिया
बिखेर देंगे पूरी व्यवस्था
लोग तुम्हें विक्षिप्त कहेंगे
दुनियावी उपस्थितियाँ
तुम्हें असहज करेंगी और तुम उनको
सत्य से उपजता है वैराग्य
प्रिय! वही तुम्हें सँभालेगा
प्रेम, एकाकीपन और मृत्यु से
नग्नता
प्रजा की आँखों पर लगे हैं सात पर्दे
ताकि नग्न लोग नग्न न दिखें
जबकि लोग सतत नग्न हो रहे
या फिर किए जा रहे
इतनी नग्नताएँ हैं परिवेश में
कि मैं अपनी आँखें खुली रख ख़ुद को
सात पर्दों के पीछे छुपा लेना चाहता हूँ
प्रकट में परोक्ष में
अंतस में आचरण में
रचना में आलोचना में
लोग सतत नग्न हो रहे
या फिर किए जा रहे
विडंबना यह कि
नग्नता के स्तर पर उतरकर
नग्नता को चिह्नित करने वाले
लोग भी नग्न हुए जा रहे
मैंने नग्न आँखों से
उन्हें देखा और परखा है
वे मुझे भी नग्न करके दम लेंगे
या कि अपने संसार से बाहर करके
देह के सारे आवरण उतर चुके हैं
नग्न आत्मा लहूलुहान हो चुकी है
समय के उस अदृश्य घर का दरवाज़ा
खोजे नहीं मिल रहा है
जहाँ से निकल आया था मैं
वहाँ जाना चाहता हूँ मैं
अपनत्व से भरी दुनिया थी वह
संगीत था
सुख थे
सहृदयता थी
नग्नता एक बिकाऊ चीज़ नहीं थी
उस पर स्थापना, सैद्धांतिकी और क़ीमत का
आवरण नहीं चढ़ाया गया था
श्लील-अश्लील आवृत-निरावृत से परे
सौंदर्य से आप्लावित था अस्तित्व
नग्न लोगों के संसार से बाहर
मैं एक अभिनव संसार को ढकता-छिपाता
भटक रहा हूँ चिथड़े में लिपटी
एक पागल स्त्री के साथ
जिसका नाम नग्नता है
जो मेरी परछाईं है
जिसे पुकारे जाने पर
एक नग्न हँसी फूट पड़ती है
सभ्यता की आँखों से
लहू का फ़व्वारा फूटता हो जैसे
मसक-कथा
भिन-भिन करके मटक-मटक कर
सुई-सी पतली तीखी अपनी सूँड दिखाया
मच्छर ने मुझको बतलाया
इसी सूँड से मैंने
तुम सब भोले-भाले कोटि जनों का
रक्त चूसने वाले जनशत्रु राजा का रक्त पिया है
मेरी आँखें भर आई थीं
किसी वीर ने साहस लाकर
अत्युत्तम यह काम किया है
कोटि जनों से नहीं हुआ जो
मच्छर ने अविराम किया है
मैंने कहा भले हो भाई
अन्नरिक्त है चौका-बर्तन
पीने का जल अत्यल्प है
देखो कितनी मजबूरी है
बोलो तुमको क्या कुछ दे दूँ
बोला उसने दानवीर को
कभी कहाँ कुछ कम पड़ता है
इतने दिन तक रक्त पिलाया
उस राजा को
थोड़ा-सा तो मैं भी चख लूँ
मन तो मेरा टूट गया था
फिर भी बोला पी ले भाई
इसे छोड़कर अभी पास में
मेरे कुछ भी शेष नहीं है
जानबूझकर रक्त पिलाना
सोचा मैंने कष्ट अभी है
वास्तव में यह तप जैसा ही महाकर्म है
जब यह मच्छर पुष्ट रहेगा
तब तो राजा से हम सबका बदला लेगा
रोज़ पिलाते रक्त उसे सब थोड़ा-थोड़ा
पीते-पीते इतना पी ली
मच्छर ने कि उसको भी
लत लगी हमारी
रहने लगा हमीं लोगों में ठाठ-बाट से
स्वप्न दिखाता किसी रोज़ वह रक्त चूसकर
राजा को ठठरी कर देगा
दुबला-पतला भिन-भिन करता
मच्छर अब मोटा-ताज़ा था
अपने हल्के पंखों से अपना ही
दैहिक भार उठाने में
बिल्कुल असमर्थ हो गया
गिरा भूमि पर पाँवों-पाँवों पर वह चलता
ऊँचा आसन देने को जब
उसे उठाया हौले से ही
पेट फट गया उसका
मेरी कानी उँगली ख़ून सन गई
सीख मिली यह
मच्छर को तो भूल-चूक से
अपना नेता कभी न चुनना
शत्रु के शत्रु को
यद्यपि मित्र बनाना
मगर कभी मत
उसको अपना रक्त पिलाना
किवू
कितनी यात्राओं में होऊँगा
जागते और सोते हुए
कितनी ट्रेनें छोड़ूँगा
कितनी बसें बदलूँगा
कितनी बार टिकट बनवाऊँगा
और बाक़ी पैसे लेना भूल जाऊँगा
कितने लोगों से पता पूछूँगा तुम्हारा
और कितनी ग़लत जगहों पर पहुँच जाऊँगा
तुम्हारे नाम की कितनी स्त्रियाँ हैं इस देश में
जिन्हें मैं प्यार से किवू पुकारूँगा
ठहर जाओ ओ क़दम
रुक जाओ ओ गति
मिल जाओ ओ मंज़िल
मैं यूँ ही भटकता मरूँगा
साथ-साथ
चाँद की किरनों में
मद्धिम परछाई-सा
प्रेम तुम्हारा
करता क़दमताल मेरे साथ
कभी नहीं बीतती
पूनो की रात
ख़त्म नहीं होती
सूनी-सी राह
सुघोष मिश्र की कविताएँ ‘सदानीरा’ पर प्रकाशित होने का यह छठा अवसर है। उनसे और परिचय के लिए यहाँ देखिए—
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अनुवाद : मुझे कोई आईना नहीं मिला
संपर्क : sughosh0990@gmail.com
स्याही ख़त्म करके ही पता चले कि लिखना इतना भी अधिक सोचने से ज़्यादा काम है! नरकट की क़लम ठीक से अभी तक नहीं खड़ी हुई है कि नायिका की दुनिया भी उलट गई है। सर्पों की सवारी बहुत ही आकर्षक लगती है, लेकिन मुझे लगता है कि उसके पास अभी कोई आईएम नहीं है! वैसे भी, इस नग्नता की बात अच्छी है, लेकिन क्या लोगों को इससे भी ताजा करेगी या हमेशा उनकी नज़र आँखों की छाती पर ब्लॉक हो जाएगी?act2 ai